Sunday, August 24, 2008

बड़े वकीलों के कद छोटे

Rajasthan Patrika 24-08-2008
दिल्ली उच्च न्यायालय ने देश के दो नामी और बड़े वकीलों को सजा दी है। उन पर बी.एम.डब्लू. कार दुर्घटना कांड के गवाह को खरीदने का आरोप है। अदालत का मानना है कि ऐसा करके इन बड़े वकीलों ने न्याय की प्रक्रिया में दखल देने की  नापाक कोशिश की है। सजा के तौर पर इनको वरिष्ठ अधिवक्ता से कनिष्ठ अधिवक्ता बना कर इनकी पदावनति कर दी गयी है। अगले चार महीने तक इन पर अदालत में पेश न होने की पाबंदी भी लगा दी गयी है। न्यायधीशों के इस फैसले के विरुद्ध दिल्ली की विभिन्न अदालतों ने हड़ताल करने की चेतावनी दी है। सजा प्राप्त वकील मामले को सर्वोच्च न्यायालय में ले जाने की तैयारी कर रहे है।

इस पूरे प्रकरण में जो बात मीडिया ने देश के सामने रखी है वह आम आदमी की जिंदगी में अक्सर सामने आती है। दूसरे तमाम पेशों की तरह वकालत भी कोई साफ सुथरा पेशा नहीं रह गया है। वकीलों के काले चोगे में कमर के पीछे एक छोटी सी जेब लटकी होती है। यह विलायत की परंपरा है। जहां कि न्याय व्यवस्था को भारत के ऊपर थोप दिया गया था। इस परंपरा के अनुसार वकील मुवक्किल से फीस तय नहीं करते। तय करना तो दूर मांगते भी नहीं। मुवक्किल मुकदमा खत्म होने के बाद अपनी मर्जी से और अपनी हैसियत के मुताबिक जो देना चाहता है वह वकील की पीठ पर टंगी कपड़े की जेब में डाल देता है। खैर ये तो प्रतीकात्मक बात रही। इंग्लैंड में भी वकालत कोई खैरात में नहीं करता। वहां के वकील खूब मोटी रकम वसूल करते हैं। पश्चिमी देशों में तो ये माना जाता है कि डाॅक्टर और वकील सबसे ज्यादा कमाई करते हैं। खुद वकील होते हुए महात्मा गांधी ने 1909 में लिखा था, ‘‘ अंग्रेजी सत्ता की एक मुख्य कंुजी उसकी अदालतें हैं और अदालतों की कुंजी वकील हैं। यदि वकील वकालत छोड़ दें और ये धंध वैश्या के धंधे जैसा नीच माना जाए, तो अंग्रेजी राज्य एक दिन में टूट जाए।’’

अदालतों में भ्रष्टाचार की बात आम आदमी, कार्यपालिका, मीडिया ही नहीं करता बल्कि खुद सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीशगण तक कई बार यह कह चुके हैं कि नीचे से ऊपर तक अदालतों में भ्रष्टाचार है और इसे रोकने के मौजूदा कानून नाकाफी है। अगर भारत के मुख्य न्यायाधीश ही स्वीकारते हैं कि अदालतों में भ्रष्टाचार है तो प्रश्न उठता है कि इस भ्रष्टाचार का स्वरूप क्या है ? अदालत में भ्रष्टाचार यानी न्याय का खरीदा बेचा जाना। न्याय को खरीदने बेचने का माध्यम बनते हैं वे वकील जो भ्रष्ट न्यायाधीशों से मिलकर अपने मुवक्किल के हक में अनैतिक रूप से फैसला करवाते हैं। बिना किसी लालच के कोई न्यायधीश किसी वकील की सिफारिश पर न्याय का गला क्यों घोटेगा ? सबको पता है कि ऐसे न्यायधीश वकीलों की मार्फत रिश्वत लेकर फैसले दिया करते हैं। इस रिश्वत का अच्छा खासा हिस्सा उस वकील की जेब में भी जाता है।

सच्चाई तो ये है कि अक्सर साधन संपन्न मुवक्किल कचहरी में वकील का चयन करते समय इस बात की परवाह नहीं करते कि उसकी काबलियत कितनी है बल्कि ये पता लगाते हैं कि उसकी न्यायधीश से निकटता कितनी है ? क्या वह ले-देकर फैसला हमारे पक्ष में करवा देगा ? जो वकील इसकी गारंटी लेते हैं उनसे ही वे पैरवी करवाते हैं। इस तरह देश की अनेक अदालतों में हजारों मामलों में हर दिन न्याय का गला घोटा जाता है। पिसता तो है आम आदमी जिसकी न्याय प्रक्रिया में आस्था होती है। वह टूट जाती है जब वो देखता है कि गुनहगार छूट गया। उसे कोई सजा नहीं मिली तो वह हताश हो जाता है। पर वह कर कुछ भी  नहीं पाता। यह दुखद स्थिति है। जो घटने की बजाय बढ़ती जा रही है। इस पतन पर सेमिनार, गोष्ठी और लेख तो बहुत लिखे जाते हैं। पर हालात सुधरते नहीं। चिंता की बात तो यह है कि जनता के बीच या मीडिया पर जो वकील नैतिकता की दुहाई देते है उनमें से अनेकों मौका आने पर अपने ताकतवर मुवक्किल के लिए न्याय खरीदने में संकोच नहीं करते। ऐसे तमाम अनुभव देश के तमाम बड़े वकीलों के बारे में अक्सर सुने जाते हैं।

ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका में सभी तत्व ऐसी अनैतिक सोच वाले हैं। एक से एक ईमानदार, मुवक्किल के हित के प्रति सजग, न्यायपालिका की गरिमा में विश्वास रखने वाले वकील हर अदालत में हैं। इन वकीलों से अगर यह कहा जाए कि आप फैसला हमारे पक्ष में दिलवाने की गारंटी करें तो हम आपको मुंह मांगी फीसदेने को तैयार हैं। तो वे ईमानदार वकील उखड़ जाते हैं और कड़ाई से जवाब देते हैं कि वे वकालत करते हैं दलाली नहीं। अब ये मुवक्किल पर निर्भर है कि उसे पैरवी अच्छी करवानी है या न्याय खरीदना है। देखने में यही आया है कि आम आदमी ही नहीं बड़े बड़े औद्योगिक घराने तक वही वकील ढूंढ़ते हैं जो उनके हक में फैसला दिलवा सके। फिर हम केवल वकीलों को ही दोषी कैसे ठहरा सकते हैं ?

दरअसल न्याय प्रक्रिया की खामियों पर निगाह तो सबकी है पर इन हालातों को बदलने की राजनैतिक इच्छा शक्ति किसी भी राजनैतिक दल में नहीं है। इसलिए सभी दल कभी कभी  संसद शोर मचा कर चुप हो जाते हैं। न्याय व्यवस्था की इन खामियों को सुधारने की पहल या तो लगातार हताश होती जा रही जनता करेगी या फिर वकीलों को करनी चाहिए। अगर पीडि़त जनता ने ये पहल की तो हालात काफी वीभत्स हो सकते हैं। तब न्याय व्यवस्था की गरिमा को भारी झटका लगेगा। बेहतर हो कि हर जिले, प्रांत और देश की अदालतों के न्यायधीशों और प्रमुख वकीलों का एक सम्मेलन हो और उस सम्मेलन में न्याय व्यवस्था को सुधारने के बारे में कोई ठोस निर्णय लिए जाएं जो फिर सरकार के माध्यम से कानून बनें। अगर ऐसी पहल उनकी तरफ से नहीं होती है तो आने वाले समय में न्याय व्यवस्था का व्यापक पतन देखने को मिलेगा।

Sunday, August 17, 2008

कितने आजाद हैं बुद्धिजीवी ?

Rajasthan Patrika 17-08-2008
जब हम अपनी आज़ादी की 51वीं वर्षगांठ मना रहे हैं तभी रूस में वैचारिक आजादी के सितारे, नोबेल पुरस्कार विजेता एलेक्जेंडर सोलझेनित्स के महाप्रयाण पर लोग आंसू बहा रहे हैं। सोलझेनित्स ने कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ इतना दबंगाई से लिखा कि उन्हें देश निकाला दे दिया गया। ठीक वैसे ही जैसे आजादी की लड़ाई के दौर में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लिखने वालों से गोरी सरकार कड़ाई से निपटती थी। उनके प्रकाशन जब्त कर लिए जाते थे। उन्हें जेलों में डाल दिया जाता था या देशद्रोही करार कर दिया जाता था। यह सब सहकर भी गुलाम भारत के बुद्धिजीवियों ने समझौता नहीं किया और हमें आजादी मिली।

आजादी के बाद हम विदेशी हुकूमत के गुलाम नहीं थे। हमारी सरकार लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी थी। हमारे यहां संसद में पक्ष और विपक्ष दोनों थे। संविधान में हमें लिखने और बोलने की आजादी दी गयी थी। आपातकाल के स्याह दौर को छोड़कर या पश्चिमी बंगाल की साम्यवादी सरकार के खिलाफ खड़े हुए नक्सलवादियों पर हुए दमन को छोड़कर, देश में शायद ऐसा कोई दौर नहीं गुजरा जब इस देश के बुद्धिजीवियों से उनकी आवाज छीनी गयी हो या सरकार के खिलाफ लिखने और बोलने पर दमनात्मक कारवाही की गयी हो। फिर क्या वजह है कि हमारे देश के बुद्धिजीवी आजाद नहीं हैं ? वे गुलाम की तरह जीते हैं। विश्वविद्यालयों में, शोध संस्थानों में, साहित्य में और पत्रकारिता में कितने लोग हैं जो आत्मा की आवाज पर लिखते हैं। देश के करोड़ों निरीह लोगों के हक में बोलते हैं ? देश में कितने बुद्धिजीवी ऐसे हैं जो सच को सच कहने की ताकत रखते हैं ?

क्या वजह है कि खुद को बुद्धिजीवी बताने वाले अपनी बुद्धि को गिरवी रखकर जीते हैं ? फिर भी भ्रम यही पाले रहते हैं कि हम ही देश को समझते हैं, दूसरे नहीं। दरअसल आजादी के बाद विशेषकर तीसरी पंचवर्षीय योजना के विफल होने के बाद नेहरू खेमे में घबराहट हो गयी। जो सपने दिखाये गये थे पूरे नहीं हो रहे थे। स्थिति हाथ से निकल रही थी। तब पंडित नेहरू के प्रबंधकों ने विरोध का स्वर दबाने के लिए बुद्धिजीवियों को ‘मैनेज’ करना शुरू किया। उन्हें विदेश यात्रा, फैलोशिप, सरकारी समितियों की सदस्यता, सरकारी मकानों के आवंटन, प्राथमिकता के आधार पर अनेक सार्वजनिक सेवाओं को मुहैया कराना जैसे तमाम हथकंडे अपनाये गये।

सरकार के इस नए रूख को सबसे पहले ’साम्यवादी बुद्धिजीवियों’ ने पकड़ा और इस हद तक पकड़ा कि इस देश की सोच पर, शिक्षा पर, सूचना तंत्र पर, ये लोग हावी हो गये। ऐशोआराम की एक बेहतर जिंदगी जीने के लालच में इन्होंने न सिर्फ खुद को सरकार का चारण और भाट बना लिया बल्कि सच कहने वालों को अपने संस्थानों में हर स्तर पर दबाने का काम भी किया। इनका जाल इस कदर फैल गया कि ये देश की सभी प्रमुख बौद्धिक संस्थाओं पर हावी हो गये। इनकी देखा-देखी अनेक गांधीवादियों और समाजवादियों की भी यही हालत हो गयी।

ऐसे माहौल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से जुड़े पढे लिखे लोग खुद को राष्ट्रभक्त बता कर सरकारी बुद्धिजीवियों का उपहास करते थे। तब लगता था कि जब संघ समर्पित सरकार बनेगी तो यह लोग सत्ता की मोहिनी से दूर रहकर देश हित में लिखेगें और बोलंेगे। पर ऐसा नहीं हुआ। राजग के शासनकाल में या जिन-जिन प्रांतों में भाजपा की सरकार रही है और आज भी है, वहां संघ से जुड़े बुद्धिजीवियों ने भी वही आचरण दिखाया जो पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में साम्यवादी और समाजवादी बुद्धिजीवियों का था। अपने राजनैतिक आकाओं के विरुद्ध बोले जा रहे सच को दबाना, झूठ का प्रचार करना, प्रतिभाओं की उपेक्षा कर भाई-भतीजावाद करना, एक ही तरह के मुद्दे पर मौके के अनुसार अलग-अलग टिप्पणी करना और यहां तक कि सत्ता की दलाली करना। अपवाद हर दौर में रहे हैं। लेकिन केवल अपवाद ही।

लगता है कि सत्ता की मोहिनी इतनी आर्कषक है कि किसी भी विचारधारा में पले-बढ़े बुद्धिजीवी क्यों न हों, भौतिक सुख की लालसा में अपनी खुद्दारी और हैसियत को भूल जाते हंै। सरकार के भाट बन कर तमाम फायदे लेते हैं और जब उनकी विरोधी विचारधारा के लोग सत्ता में आते हैं तो यही बुद्धिजीवी मुखर हो जाते हैं। तिल का ताड़ बना देते हैं। कोई मंच नहीं छोड़ते तूफान मचाने से। यही आचरण हर पक्ष करता है। हर पक्ष अपने मौके पर निजी लाभ के लिए देश और समाज का हित बलि चढ़ा देता है। यही वजह है कि जब जिसकेे पक्ष के लोग सत्ता में आते हैं उसी पक्ष के चारण और भाट बुद्धिजीवियो को पद्मभूषण देने से लेकर सांसद, राजदूत और न जाने क्या-क्या बनाया जाता है। इस तरह सच्चाई को दबाकर, झूठ का साथ देकर, अपने फायदे के लिए समाज के हित की उपेक्षा करके जीवन जीने वाले बुद्धिजीवी कैसे हो सकते है ?

ऐसे लोग न तो समाज को दिशा दे सकते हैं और न ही समाज में उठ खड़े होने का जज़्बा पैदा कर सकते है। आजाद भारत के लोगों के लिए यह बहुत दुखद स्थिति है कि इसने बुद्धिजीवियों की एक जमात खड़ी नहीं की। बुद्धिजीवियों के नाम पर राजनैतिक दलों के दरबार में खड़े रहने वाले याचक पैदा किए हैं। पर संतोष की बात यह है कि फिर भी देश में हजारों लोग ऐसे हैं जो सही लिखते बोलते और सोचते हैं पर उन्हें जानबूझकर गुमनामी के अंधेरे में रखा जाता है। उन्हें अखबारों में छापा नहीं जाता, कोई टीवी चैनल उनका साक्षात्कार प्रसारित नही करता या उन्हें बौद्धिक चर्चाओं में नहीं बुलाता। विचारों के मुक्त आदान प्रदान के लिए बने विश्वविद्यालय भी ऐसे वक्ताओं को बुलाने में संकोच करते हैं। ’आत्मघोषित बुद्धिजीवी माफिया’ की रणनीति के तहत ऐसे लोगों को दबा कर रखा जाता है। दूसरी तरफ जिन्हें बुद्धिजीवी बता कर प्रचारित किया जाता है वे केवल किराये के भांड हैं। यही हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी है, जिससे हमें निकलना ही होगा।

Sunday, August 10, 2008

देश को जरूरत है एक धर्मनीति की

Rajasthan Patrika 10-08-2008
हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर में भगदड़ में डेढ़ सौ से अधिक जाने गयीं। इससे पहले महाराष्ट्र के पंडरपुर में भी ऐसा ही हादसा हुआ था। बिहार के देवघर में शिवजी को जल चढाने गयी भीड़ की भगदड़ में मची चीतकार हृदय विदारक थी। कुंभ के मेलों में भी अक्सर ऐसे हादसे होते रहते हैं। जब से टेलीविजन चैनलों का प्रचार प्रसार बढ़ा है तब से तीब्र गति से भारत में तीर्थस्थलों और धार्मिक पर्वो के प्रति भी उत्साह बढ़ा है। आज देश के मशहूर मंदिरों में पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा भीड़ जाती है। जितनी भीड़ उतनी अव्यवस्था। उतना ही आतंकवादी हमले का खतरा। पर स्थानीय प्रशासन कुछ भी नहीं करता। साधनों की कमी की दुहाई देता है। हमेशा हादसों के बाद राहत की अफरा-तफरी मचती है।

आजादी के बाद से धर्म निरपेक्षता के नाम पर एक ऐसा माहौल बना दिया गया कि धर्म की बात करना शिष्टाचार के विरुद्ध माना जाने लगा। नतीजा ये हुआ कि हर धर्म के तीर्थस्थल उपेक्षित होते चले गये। गुरू़द्वारों की प्रबंध समितियों ने और अनुशासित सिख समाज वे गुरूद्वारों की व्यवस्था स्वयं ही लगातार सुधारी। मस्जिदों और चर्चो में क्रमबद्ध बैठकर इबादत करने की व्यवस्था है इसलिए भगदड़ नहीं मचती। पर हिंदू मंदिरों में देव दर्शन अलग-अलग समय पर खुलते हैं। इसलिए दर्शनार्थियों की भीड़, अधीरता और जल्दी दर्शन पाने की लालसा बढ़ती जाती है। दर्शनों के खुलते ही भीड़ टूट पड़ती है। नतीजतन अक्सर हृदय विदारक हादसे हो जाते हैं। आन्ध्र प्रदेश में तिरूपतिबाला जी, महाराष्ट्र में सिद्धि विनायक, दिल्ली में कात्यानी मंदिर, जांलधर में दुग्र्याना मंदिर और कश्मीर में वैष्णो देवी मंदिर ऐसे हैं जहां प्रबंधकों ने दूरदर्शिता का परिचय देकर दर्शनार्थियों के लिए बहुत सुन्दर व्यवस्थाएं खड़ी की हैं। इसलिए इन मंदिरों में सब कुछ कायदे से होता है।

जब भारत के ही विभिन्न प्रांतों के इन मंदिरों में इतनी सुन्दर व्यवस्था बन सकी और सफलता से चल रही है तो शेष लाखों मंदिरों में ऐसा क्यों नहीं हो सकता ? जरूरत इस बात की है कि भारत सरकार में धार्मिक मामलों के लिए एक अलग मंत्रालय बने। जिसमें कैबिनेट स्तर का मंत्री हो। इस मंत्रालय का काम सारे देश के सभी धर्मों के उपासना स्थलों और तीर्थस्थानों की व्यवस्था सुधारना हो। केंद्र और राज्य सरकारें राजनीतिक वैमनस्य छोड़कर पारस्परिक सहयोग से नीतियां बनाएं और उन्हें लागू करें। ऐसा कानून बनाया जाए कि धर्म के नाम पर धन एकत्रित करने वाले सभी मठों, मस्जिदों, गुरूद्वारों आदि को अपनी कुल आमदनी का कम से कम तीस फीसदी उस स्थान या उस नगर की सुविधाओं के विस्तार के लिए देना अनिवार्य होगा। इसमें बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक धर्मस्थानों के बीच भेद न किया जाए। सब पर एक सी नीति लागू हो। हां इस बात का ध्यान रखा जाए कि किसी एक धर्म या संप्रदाय का चढ़ावा दूसरे संप्रदाय या धर्म पर तब तक न खर्च किया जाए जब तक कि ऐसा करने के लिए संबंधित संप्रदाय के ट्रस्टीगण लिखित अनापत्ति न दे दें। वरना नाहक वैमनस्य बढ़ेगा।

इसके साथ ही हर मठ, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च आदि को भी यह आदेश दिए जाए कि अपने स्थल के इर्द-गिर्द तीर्थयात्रियों द्वारा फेंका गया कूड़ा उठवाने की जिम्मेदारी उसी मठ की होगी। यदि हमारी धर्मनीति में ऐसे नियम बना दिए जाए तो धर्मस्थलों की दशा तेजी से सुधर सकती है। इसी तरह धार्मिक संपत्तियों के अधिग्रहण की भी स्पष्ट नीति होनी चाहिए। अक्सर देखने में आता है कि धर्मस्थान बनवाता कोई  और है पर उसके सेवायत उसे निजी संपत्ति की तरह बेच खाते हैं। धर्मनीति में यह स्पष्ट होना चाहिए कि यदि किसी धार्मिक संपत्ति को बनाने वाले नहीं रहते हैं तो उस संपत्ति का सरकार अधिग्रहरण करके एक ट्रस्ट बना देगी। इस ट्रस्ट में उस धर्मस्थान के प्रति आस्था रखने वाले लोगों को सरकार ट्रस्टी मनोनीत कर सकती है। इस तरह एक नीति के तहत देश के सभी तीर्थस्थलों का संरक्षण और संवर्धन हो सकेगा। इस तरह हर धर्म के तीर्थस्थल पर सरकार अपनी पहल से और उस स्थान के भक्तों की मदद से इतना धन अर्जित कर लेगी कि उसे उस स्थल के रख-रखाव पर कौड़ी नहीं खर्च करनी पड़ेगी। तिरूपति और वैष्णों देवी का उदाहरण सामने है। जहां व्यवस्था अच्छी होने के कारण अपार धन बरसता है। इतना कि कई बार प्रांतीय सरकारों को भी ऋण लेने की जरूरत पड़ जाती है।

देश में अनेक धर्मों के अनेकों पर्व सालभर होते रहते हैं। इन पर्वों पर उमड़ने वाली लाखों करोड़ों लोगों की भीड़ को अनुशासित रखने के लिए एक तीर्थ रक्षक बल की आवश्यकता होगी। इसमें ऊर्जावान युवाओं को तीर्थ की देखभाल के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाए। ताकि वे जनता से व्यवहार करते समय संवेदनशीलता का परिचय दें। यह रक्षा बल आवश्यकतानुसार देश के विभिन्न तीर्थस्थलों पर बड़े पर्वों के दौरान तैनात किया जा सकता है। रोज-रोज एक ही तरह की स्थिति का सामना करने के कारण यह बल काफी अनुभवी हो जाएगा। तीर्थयात्रियों की मानसिकता और व्यवहार को सुगमता से समझ लेगा।

भारत में वर्ग के अनुसार तीनों तरह के तीर्थयात्री हैं। उच्च वर्ग के तीर्थयात्री अनेक तामझामों के साथ कुछ क्षणों के लिए आते हैं और फिर जल्दी ही लौट जाते हैं। जबकि मध्यम वर्ग के तीर्थयात्री कुछ दिन ठहरते हैं और निम्न वर्ग के बहुत बड़ी तादात में आते हैं और सड़क के किनारे चूल्हा बनाकर अपना भोजन तैयार करते हैं। तीनों की आवश्यकताएं और आदतें अलग-अलग होती हैं। धर्म नीति यह तय करे कि सरकार को तीनों वर्गों के लिए कैसे व्यवस्था करनी है। राजस्थान सरकार में देवस्थान विभाग है। जो सभी मंदिरों की सफल व्यवस्था करता है। इसी माॅडल पर राष्ट्रीय स्तर पर भी व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि व्यवस्था में एकरसता आए।

ऐसा नहीं है कि भाजपा हिंदुओं के तीर्थस्थलों की बेहतर व्यवस्था करती है। ब्रज क्षेत्र में तो भाजपा के शासन काल में, चाहे वो राजस्थान में हो या उत्तर प्रदेश में, चारों ओर विनाश ही विनाश हुआ है। इसलिए इस मुद्दे पर किसी भी दल को राजनीति करने की छूट नहीं है। सबका यह कर्तव्य है कि हमारे देश के धर्मस्थलों को सजाने संवारने में सहयोग दें। क्योंकि ये धर्मस्थल हमारी आस्था के प्रतीक है और हमारी सांस्कृतिक पहचान हैं। इनके बेहतर रख-रखाव से देश में पर्यटन भी बढ़ेगा और दर्शनार्थियों को भी सुख मिलेगा। बिना किसी धर्म के प्रति विशेष झुकाव दिखाए अगर सभी धर्मों के लिए ऐसी धर्म नीति लागू की जाए तो धर्म जनता का अफीम नहीं बनेगा। वहां आपस में दंगे नहीं करवाएगा। बल्कि देश में पारस्परिक सौहार्द की स्थापना करेगा।

Sunday, August 3, 2008

क्या संघीय सुरक्षा बल से रूकेगा आतंकवाद ?

Rajasthan Patrika 03-08-2008
अहमदाबाद और बैंगलूर में हुए श्रंखलाबद्ध बम विस्फोटों के बाद पूरे देश में ऐसी घटनाओं की पुर्नरावृत्ति की आशंका से आम आदमी चिंतित हैं। सरकारें भी इस संभावना से चैकन्नी हो गयीं हैं। राजनेता दलगत राजनीति से उपर उठकर आतंकवाद का मुकाबला करने की जरूरत पर जोर दे रहे हैं। केन्द्रीय गृहमंत्री शिवराज पटिल ने आतंकवाद से निपटने के लिए एक बार फिर संघीय सुरक्षा बल के गठन की जरूरत पर जोर दिया है। पर क्या इससे आतंकवाद रूक पाएगा ? क्या यह बल आम जनता की सुरक्षा की गांरटी दे पाएगा ? क्या देश के मौजूदा कानून आतंकवाद से निपटने के लिए काफी नहीं है ? नए सुरक्षा बल के गठन से पहले हुक्मरानों को इन सवालों के जवाब खोजने चाहिए।

एक बात तो साफ है कि अगर मानव बम बनकर यानी आत्मघाती मानसिकता से कोई आतंकवादी सामान्य जन-जीवन को हानि पहुंचाना चाहे तो उसे कोई नहीं रोक सकता। न तो सुरक्षा ऐजेंसी और न ही खुफिया ऐजेंसी। दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों में एक विशेष संप्रदाय के लोगों में इस तरह की मनोवृत्ति काफी तेजी से बढ़ी है। इसलिए पूरी दुनिया की सरकारें चिंतित हैं और इसका हल नहीं निकाल पा रही हैं। अमरीका में हुई 9 सितंबर की भयावह घटना हो या भारत की संसद पर हुआ हमला, इन सब घटनाओं में इसी मानसिकता के पढ़े लिखे नौजवान शामिल रहे हैं। पर यह भी सही है कि आत्मघाती मानसिकता का कोई आतंकवादी भी बिना स्थानीय संरक्षण और मदद के कामयाब नहीं हो सकता। आतंकवाद की इसी जड़ पर कुठाराघात करने की जरूरत है।

भारत में जब भी कोई बड़ी दुर्घटना होती है तो या तो जांच आयोग बिठा दिये जाते हैं या नए विभाग बना दिए जाते हैं। ताजा वारदातों के बाद केन्द्रीय गृहमंत्री का प्रस्ताव भी इसी श्रेणी का है। ऐसा नहीं है कि संघीय सुरक्षा बल का गठन पूरी तरह निरर्थक रहेगा। इससे आतंकवादी घटनाएं रूकें या न रूकें पर यह बल दुर्घटना के बाद अपराधी खोजने में काफी मददगार हो सकता है। क्योंकि तब इस बल को विभिन्न राज्यों में जांच करने में सुविधा रहेगी। मौजूदा व्यवस्था में कई जांच ऐजेंसियां और प्रांतीय पुलिस बल के मौजूद होने के कारण जांच में काफी दिक्कत आती है और समय बर्बाद होता है। संघीय बल दुर्घटना के तुरंत बाद देशभर में जांच शुरू कर सकता है। पर केवल दुर्घटना के बाद। जबकि जरूरत तो ऐसी दुर्घटनाओं को घटने से पहले रोकने की है। आतंकवादियों को मिल रहे स्थानीय प्राश्रय पर चोट करने की है। पाकिस्तान में लाल मस्जिद पर सरकारी हमले के बाद जो जखीरा और आतंकवादी निकले उससे पूरी दुनिया स्तब्ध रह गयी। तभी हमने अपने काॅलम में चर्चा की थी कि भारत के भी कई सौ छोट-बड़े शहरों में इसी तरह धर्म स्थलों और तंग गलियों में रहने वाले लोगों के पास अवैध जखीरा भरा पड़ा है। भारत की खुफिया ऐजेंसियां सरकार को बार-बार चेतावनी देती रहीं है। इस जखीरे को बाहर निकालने के लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति चाहिए। जो किसी भी राजनैतिक दल के नेताओं में दिखायी नहीं देती। 51 लाख रूपयेे के इनाम की घोषणा से एक कांड के मुजरिम पकड़े जा सकते है। इस प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगाई जा सकती।

देश के कस्बों और धर्म स्थलों से अवैध जखीरा निकालने का जिम्मा यदि भारत की सशस्त्र सेनाओं को सौंप दिया जाए तो काफी बड़ी सफलता हाथ लग सकती है। पर साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि आतंकवाद से निपटने वाले सैन्य बलों और पुलिस बलों को मानव अधिकार आयोग के दायरे से मुक्त रखा जाए। वरना होगा यह कि जान पर खेल कर आतंकवादियों से लड़ने वाले जांबाज बाद में अदालतों में धक्के खाते नजर आएंगे। यह एक कारगर पहल होगी। पर राजनैतिक दखलअंदाजी ऐसा होने नहीं देगी। कुछ वर्ष पहले एक विदेशी पत्रकार ने कश्मीर की घाटी में खोज कर के एक रिपोर्ट ‘फाॅर ईस्टर्न इकनौमिक रिव्यू’ में छापी थी। जिसका निचोड़ था कि आतंकवाद घाटी के नेताओं के लिए एक उद्योग की तरह है। जिसमें मोटी कमाई होती है। जिन दिनों मैंने कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन को विदेशों से मिल रही अवैध आर्थिक मदद का भांडा फोड़ किया था उन दिनों मुझे भारत सरकार की ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा में कई वर्ष रखा गया था। तब दिल्ली पुलिस से मिले अंगरक्षक मुझे बताते थे कि जब वे एक केन्द्रीय मंत्री की सुरक्षा में तैनात थे तो यह देखकर उनका खून खौल जाता था कि कश्मीर के आतंकवादी उन मंत्री महोदय् के सरकारी आवास में खुले आम पनाह लेते थे। उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर पाता था। ऐसी ही स्थिति देश के दूसरे प्रांतों की भी है। यह काफी चिंतनीय स्थिति है। दरअसल आतंकवादी उन लोगों से संबंध बनाते हैं जो सत्ता में अपनी पकड़ रखते हैं। फिर वे चाहे नेता हो या मंत्री। इनकी मदद से कहीं भी पहुंचना आसान होता है और आसानी से पकड़े जाने का भय नहीं होता।

इसलिए जरूरत इस बात की है कि स्थानीय पुलिस अधिकारियों को आतंकवाद से निपटने की पूरी छूट दी जाए। उनके निर्णयों को रोका न जाए। अगर हर जिले का पुलिस अधीक्षक यह ठान ले कि मुझे अपने जिले से आतंकवाद का सफाया करना है तो वह ऐसे अभियान चलाएगा जिनमें उसे जनता का भारी सहयोग मिलेगा। आतंकवादियों को संरक्षण देने वाले बेनकाब होगें। जिले में जमा अवैध जखीरे के भंडार पकड़े जाएंगे। पर कोई भी प्रांतीय सरकार अपने पुलिस अधिकारियों को ऐसी छूट नहीं देती। पंजाब में आतंकवाद से निपटने के लिए जब के. पी.एस. गिल को को पंजाब के मुख्य मंत्री बेअंत सिंह ने तलब किया तो गिल की शर्त थी कि वे अपने काम में सीएम और पीएम दोनों का दखल बर्दाश्त नहीं करेंगे। उन्हें छूट मिली और दुनिया ने देखा कि पंजाब से आतंकवाद कैसे गायब हो गया।

मानव अधिकार की बात करने वाले ये भूल जाते हैं कि हजारों लोगों की जिंदगी नाहक तबाह करने वाले के भीतर मानवीयता है ही नहीं। घोर पाश्विकता है। ऐसे अपराधी के संग क्या सहानुभूति की जाए ? कुल मिला कर बात इतनी सी है कि अगर वास्तव में राजनैतिक इच्छा है तो मौजूदा पुलिस और सैन्य बल की मदद से ही आतंकवाद पर काबू पाया जा सकता है।

Sunday, July 20, 2008

विश्वास मत और दलों की असलियत

 22 जुलाई को लोक सभा में विश्वास मत के बाद सरकार रहेगी या जाएगी ये तो सामने आ  ही जाएगा। पर  इस  पूरी प्रक्रिया में जो बातें सामने नहीं आ रही उन पर ध्यान देने की जरूरत है। वामपंथी दल परमाणु संधि के शुरू से विरोध में है। इसलिए स्वभाविक है कि वे इस मुद्दे पर सरकार गिराना चाहते हैं। परमाणु संधि के मुद्दे पर कांग्रेस का रूख शुरू से साफ है फिर क्यों नहीं यह निर्णायक लड़ाई पहले ही लड़ ली गयी ? वामपंथी कहेंगे कि तब सरकार इतनी कटिबद्ध नहीं थी जितनी आज है। असलियत ये है कि यह सारा नाटक चुनावी रणनीति के तहत खेला जा रहा है। डाॅ. मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियां शुरू से ही अमरीकी नीतियों की पक्षधर रही हैं। फिर भी वामपंथी दलों ने उनके प्रधानमंत्रित्व में 4 साल तक सहयोग दिया क्योंकि वे सत्ता का सुख भोगना चाहते थे। अब चुनाव सिर पर है जिसमें उनका सीधा मुकाबला कांग्रेस से ही होना है इसलिए कांग्रेस का मुखर विरोध करना उन्हें फायदेमंद लग रहा है। जितना ज्यादा शोर वो मचाएंगे उतना ही उन्हें चुनावी लाभ मिलेगा। अगर वामपंथी दल यह दावा करते हैं कि उनका विरोध सैद्धान्तिक है। तो ऐसे दर्जनों मुद्दे उन्हें याद दिलाए जा सकते हैं जब उन्होंने सिद्धांतों को ताक पर रखकर राजनैतिक फैसले लिए। भ्रष्टाचार के सवाल को ही ले तो क्या वामपंथी बता सकते हैं कि उन्होंने जैसा तूफान बोफोर्स और तहलका कांड पर मचाया था वैसा तूफान इन दोनों से सौ गुना बड़े व ज्यादा प्रमाणिक हवाला घोटाले पर क्यों नहीं मचाया ?

आज वाम मोर्चे के नेतृत्व में ही दरारें पड़ चुकी हैं। दो दशक तक बंगाल पर हुकूमत करने के बाद वामपंथी अपने प्रांत की गरीबी दूर नहीं कर पाए। आज उन्हें भी आर्थिक विकास के लिए पूंजीवाद और उदारीकरण का सहारा लेना पड़ रहा है। सच्चाई तो ये है कि बिड़ला, टाटा, निवतिया या खैतान कोई भी समूह क्यों न हों किसी को भी पश्चिमी बंगाल की वामपंथी सरकार से कभी कोई दिक्कत नहीं हुई। साफ जाहिर है कि ज्योति बाबू के सुपुत्र वही करते रहे जो भाजपा में प्रमोद महाजन और कांगे्रस में अहमद पटेल करते आए हैं यानि सबको साधने का काम।

जहां तक भाजपा का प्रश्न है तो उसे तो इस संधि पर कोई विरोध हो ही नहीं सकता। उनकी सरकार के सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा से लेकर तमाम दूसरे नेता इस संधि के पक्षधर रहे हैं। कल अगर एनडीए की सरकार सत्ता में आती है तो वह भी वही करेगी जो यूपीए की सरकार आज कर रही है। पिछली बार जब एनडीए की सरकार सत्ता में आयी तो उसने इंका की सत्ता के दौरान लागू किए गए आर्थिक सुधारों को ही आगे बढाया कोई नयी आर्थिक नीति लागू नहीं की। यह हास्यादपद है कि भाजपा को अमरीकी साम्राज्यवाद का एजेंट बताने वाले वामपंथी दल आज भाजपा के ही साथ खड़े है। लोकसभा के चुनावों के बाद यही वामपंथी दल एक बार फिर इंका से हाथ मिलाकर सरकार बनाने को राजी हो जाएंगे। कल तक समाजवादी इंका के निशाने पर थे आज मुलायम सिंह उसकी सरकार बचाने में जुटे हैं। राजनीति के खेल निराले हैं। दरअसल विचारधारा का अब कोई स्थान बचा ही नहीं है। सारा खेल सत्ता पाने और उसे भोगने का है। जिसे जो चाहिए वो जैसे मिलता है वैसे हासिल करना है। जनता तो मूर्ख है उसे कुछ भी बता कर बहका लिया जाएगा।

इस विश्वास मत की विशेषता ये है कि कोई भी दल अभी चुनावों के लिए तैयार नहीं है। हर सांसद बेचैन है कि अगर सरकार गिर गयी और चुनावों की घोषणा हो गयी तो उसकी संसद सदस्यता नाहक ही अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाएगी। फिर जो मोटा पैसा लगाकर चुनाव जीता गया था उसका पूरा लाभ भी नहीं मिल पाएगा। बहुत से सांसद जानते हैं कि उन्हें टिकिट भी नहंी मिलेगा और बहुत से जानते हैं कि वे अगले चुनाव में जीत नहीं पाएंगे। इस अफरातफरी के माहौल में आरोप लग रहा है कि सत्तारूढ़ दल 25-25 करोड़ रूपए में सांसद खरीद रहा है। यदि यह सही है तो जो सांसद सरकार के पक्ष में मतदान करेंगे वे तो फायदे में रहेंगे और जो उसके विरोध में मतदान करेंगे उन्हें रुपया भी नहीं मिलेगा और लोकसभा का कार्यकाल भी जल्दी समाप्त हो जाएगा। घाटा ही घाटा। इसलिए वे पशोपेश में हैं कि करें तो क्या करें। इसलिए कई बड़े दलों को व्हिप जारी करना पड़ रहा है।

इसका मतलब यह नहीं कि परमाणु संधि देशहित में ही है। यहां तो सिर्फ इतनी सी बात है कि इस विश्वास मत में जो लोग भी हिस्सा ले रहे हैं वे किसी वैचारिक आधार के कारण नहीं बल्कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण निर्णय लेने जा रहे हैं। ढिढोरा देश में यही पीटा जाएगा कि यह एक सैद्धान्तिक लड़ायी थी। इसलिए जब टीवी चैनलों पर विभिन्न दलों के नेता अपनी बात ऊंची आवाज में तर्क देकर और आक्रामक तेवर से कहें तो यह मान लेना चाहिए कि ये सब शैडो-बाॅक्सिंग कर रहे हैं। नाटक कर रहे हैं। इस विश्वास मत का जनता के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ेगा। सिवाय इसके कि अनिश्चिता का माहौल व्यापार और उद्योग पर विपरीत असर डालेगा। नाहक थैलियों का आदान प्रदान होगा और देशवासी मूक दर्शक बनकर यह तमाशा देखेंगे।

Sunday, July 13, 2008

क्यों फट रही है धरती ?

13-07-2008_RP
एक कहावत है कि जब धरती पर पाप बढ़ते हैं तो धरती फट जाती है। पिछले कुछ महीनों से देश के अलग-अलग हिस्सों में धरती फटने की खौफनाक खबरे आ रही हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में अचानक धरती फटी और कई सौ मीटर तक लंबी दरार पड़ गई। यह दरार कई मीटर चैड़ी और कई मीटर गहरी थी। इस अप्रत्याशित घटना से लोग भयभीत हो गए। घर छोड़कर भाग निकले। दहशत फैल गयी। प्रशासन को भी समझ में नहीं आया कि इस नई आपदा से कैसे निपटे ? अभी हाल ही में मथुरा जिले के अकबरपुर गांव में भी ऐसी ही घटना हुयी। उधर गुजरात में जब भूकंप आया था तो लोग यह देखकर हैरान थे कि कई-कई मंजिल की इमारतें सीधी जमीन के अंदर घुस गईं। नई दिल्ली के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के मार्ग में भी एक तिमंजिली इमारत देखते ही देखते धरती के भीतर समा गयी।

इस तरह धरती का फटना और भवनों का जमीन में समाना कोई साधारण घटना नहीं है। यह संकेत है इस बात का कि हमारी धरती बीमार है। जिसका इलाज फौरन किया जाना है। नहीं तो मर्ज बढ़ जाएगा। धरती की इस बीमारी का कारण भू-जल का निरन्तर, अविवेकपूर्ण व आपराधिक दोहन है। आज शहर हो या गांव हर ओर सबमर्सिबल पंप लगाने की होड़ मची है। बहुत आसान उपाय है जल संकट से जूझने का। दो, चार, छः इंच चैड़ी और सौ-दो सौ फुट गहरी बोरिंग करवाओ उस पर सबमर्सिबल पंप लगा दो। फिर तो खेत खलियान और घर बैठे गंगा बहने लगती है। कहां तो एक-एक बाल्टी पानी की किल्लत और कहां पानी पर कोई रोक ही नहीं। चाहें जितना बर्बाद करो। बिना मेहनत के एक बटन दबाते ही आपके पानी की टंकी लबा-लब भर जाती है। इसलिए हमारा पानी का उपभोग पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ गया है। पर इस अविवेकपूर्ण दोहन ने पृथ्वी के भीतर जमा जल के विशाल भण्डारों को पिछले दशक में तेजी से खाली कर दिया है। जिस कारण पृथ्वी के भीतर बहुत बड़े-बड़े वैक्यूम पैदा हो गए हैं। यूं समझा जाए कि धरती की जिस परत पर हमारे घर और भवन खड़े हैं उसके कुछ नीचे ही गुब्बारेनुमा हवा के खोखले विशाल कक्ष बन गए हैं। पृथ्वी में थोड़ी सी भी भूगर्भीय हलचल होते ही ऊपर की सतह फट जाती है। उस पर बने भवन या तो सीधे सरक कर नीचे चले जाते हैं या टूट कर गिर जाते हैं। ऐसी घटनाएं अब तेजी से बढ़ेंगी। क्योंकि अभी तो इसका आगाज होना शुरू हुआ है।

पानी तो पहले भी पृथ्वी के अंदर से ही लिया जाता था। पर उसे निकालने के तरीके बहुत मानवीय थे जैसे कुंआ या रहट। मानवीय इसलिए कि मनुष्य अपनी आवश्यकतानुसार अपने या अपने पशुओं के श्रम से जल निकालता था और उसका किफायत से उपयोग करता था। पर अब बिजली या डीजल के पंप अन्धाधुंध पानी निकालते हैं। किसान भी कृषि की आवश्यकता से ज्यादा पानी खींच लेता है। रासायनिक उद्योग और शीतलपेय कंपनियां भी बहुत बेदर्दी से भू-जल का दोहन कर रहे है। इसलिए धरती कराह उठी है।

पहले धरती की सतह पर जो जल फैलता था उसका एक भाग भाप बनकर आकाश में चला जाता था और दूसरा रिस-रिस कर पृथ्वी के भीतर। इस तरह भू-जल की कुछ मात्रा वापिस स्रोत तक पहुंच जाती थी। पर रासायनिकों, साबुन, डिटर्जेंट, फर्टीलाइजर, रासायनिक खाद और कारखानों से बहकर नदी नालों में जाने वाले तेल युक्त गंदे पानी ने पृथ्वी की सतह पर एक ऐसी तबाही मचाई है जो पिछले हजारों सालों में नहीं मची थी। इस सब ने और इसके साथ ही प्लास्टिक की थैलियों ने पृथ्वी की सतह पर जितने भी स्वभाविक छिद्र थे उन सबको सील कर दिया है। पूरी तरह बंद कर दिया है। अब सतह का जल धरती के भीतर रिस कर नहीं पहुंचता। पहुंचता भी है तो बहुत थोड़ी मात्रा में। 

पृथ्वी फटे न। सतह पर बने भवन उजड़े न। नगर और गांव पानी के संकट से जूझे न। भू-जल का स्तर घटे न। इसके लिए वही करना होगा जो इस समस्या का कारण है। यानी साबुन, रासायनिकों और फर्टीलाइजरों का प्रयोग बंद करना होगा। धरती के जल का दोहन तेजी से घटाना होगा। आधुनिक बाथरूमों की संरचना बदलनी होगी। जैसे जापान कर रहा है। वहां अब शौच के बाद पानी का फ्लश नहीं चलता बल्कि हवा के सक्शन से सीट साफ हो जाती है। यह सब करना ही होगा वरना अभी तो धरती ने बीमारी के लक्षण दिखाए हैं फिर प्रलय का तांडव भी दिखा देगी।

सवाल उठता है कि जानते सब है।ं लोग भी, कारखानेदार भी, किसान भी और सरकार भी। पर कोई पहल नहीं करता। विपक्षी दल परमाणुसंधि से लेकर घोटालों तक पे आसमान सिर पर उठा लेते हैं। पर ऐसे बुनियादी सवालों की तरफ उनका ध्यान नहीं जाता। इसलिए पहल जनता को ही करनी होगी। आजकल लखनऊ के लोग और आला अफसर मिलकर गोमती नदी में उतर गए है और टोकरी, फावड़े व जाल लेकर इस प्रदूषित नदी का जल रोज साफ कर रहे हैं। कितने ही शहरों में प्लास्टिक के थैलों के इस्तेमाल पर स्थानीय समाजिक व व्यापारिक संगठनों व निकायों ने पाबंदी लगा दी है। जिससे उनका पर्यावरण तेजी से सुधरा है।

आज भारत में ही नहीं दुनिया में हर ओर पानी के बढ़ते संकट पर चिंता व्यक्त की जा रही है। पर ठोस कदम उठाने वाले उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। वक्त ऐसा आ गया है कि हर शहर और गांव के लोग इन सवालों पर संगठित होकर आगे आए और प्रकृति से हो रहे खिलवाड़ को पूरी ताकत से रोकने का प्रयास करें। पहले कहा जाता था कि हम यह अच्छा कार्य अपनी आने वाली पीढि़यों के लिए कर रहे हैं। पर अब जिस तेजी से विनाश हो रहा है उससे साफ जाहिर है कि हम जो भी सही कदम उठाएंगे उसका परिणाम अपने ही जीवन काल में देख लेंगे। लेख को पढ़कर दो मिनट का मौन चिंतन और जीने का वही ढर्रा-यह तो श्मशान वैराग्य हुआ। मजा तो तब है जब हम अपनी जिंदगी में पानी का इस्तेमाल घटाएं और अपने हाथ पानी के किसी भी स्रोत को प्रदूषित न होने दें। ’मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर लोग मिलते गए और कारवां बनता गया।’

Sunday, July 6, 2008

अमरनाथ का सचः गृह मंत्रालय बेखबर

Rajasthan Patrika 06-07-2008
अमरनाथ में शिराइन बोर्ड को हुए भूमि आवंटन को लेकर कश्मीर की घाटी में जो तूफान मचा उसकी जड़ बहुत गहरी है। भूमि आवंटन का विरोध तो एक झलक है। इसके पीछे एक सोची समझी साजिश है जो धीरे-धीरे कश्मीर से भारत के अस्तित्व को खत्म कर देना चाहती है। इस साजिश की बात करने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि यह विवाद इतना बढ़ता ही नहीं अगर इसकी असलियत लोग जान पाते। शिराइन बोर्ड इस जमीन पर तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए यात्रा के दौरान मात्र दो महीने के लिए टीन के शैड और शौचालय बनाने जा रहा था। जबकि घाटी के मुसलमान बुद्धिजीवियों ने अफवाह फैलाई कि शिराइन बोर्ड इस जमीन पर इजराइलियों की तरह खुफिया अधिकारियों की आबादी बसाने जा रहा है। जहंा से मुसलमानों के खिलाफ रणनीतियां बनाई जाएंगी। बे पढ़ी लिखी जनता को भड़काना आसान होता है। घाटी में तूफान उठा और अब जम्मू भी इस आग की लपेट में झुलस रहा है। आने वाले दिनों में ये आग देश के दूसरे हिस्सों में भी फैल सकती है। अमरनाथ का यह इलाका मौसम के हिसाब से इतना आक्रामक है कि यहां गर्मियों के दो महीनों के अलावा रहना असंभव है। उस बर्फीले तूफान में कौन अपनी जान जोखिम में डालेगा। काॅलोनी बसाकर रहना तो सपने में भी नहीं सोचा जा सकता। फिर शिराइन बोर्ड कोई सरकार तो है नहीं जो अमरनाथ में जमीन कब्जा कर लेती या उस पर खुफिया अधिकारियों की काॅलोनी बना देती। इतनी सी बात अगर कांगे्रस, पीडीपी, पैंथर पार्टी और दूसरे दलों के नेता बयान देकर घाटी के लोगों को बता देते तो उनका सारा भ्रम दूर हो जाता। पर एक नहीं बोला। सबने इस गफलत का राजनैतिक लाभ उठाया। जिससे मामला इतना उलझ गया।

जय बाबा बर्फानी का नारा लगाने वाले तीर्थयात्री जब अमरनाथ की ओर बढ़ते हैं तो उनके लिए भोजन, टट्टू, टैंट, कुली, गाइड, गेस्ट हाऊस, बस व टैक्सी का इंतजाम करने वाले कश्मीर के मुसलमान ही होते हैं। जिन्हें इस तीर्थयात्रा पर आने वालों से मोटी कमाई होती है। अमरनाथ जाने वाले बाकी कश्मीर में भी घूमते हैं तो शिल्पकारों, मेवा और फल बेचने वालांे, शिकारे, होटल व गाइड सबको रोजगार मिलता है। यह बात कश्मीरी मुसलमान अच्छी तरह जानते हैं। चरम आतंकवाद के दौर में घाटी में आम लोगो की बेरोजगारी और बदहाली काफी बढ़ गयी थी। जबसे आतंकवाद का असर कम हुआ है सारे देश से पर्यटक कश्मीर जाने लगे हैं। इस हकीकत को जानने के बावजूद यह आंदोलन किया गया। बिना ये सोचे कि इसकी प्रतिक्रिया में देश के बाकी हिस्सों में मुसलमानों के खिलाफ गुस्सा भड़क सकता है। उन्हें हज की जो सहूलियतें दी जा रही हैं या अल्पसंख्यक होने के नाते जो फायदे दिये जा रहे है या राजेन्द्र सच्चर समिति की सिफारिशों को मानकर देश के मुसलमानों के हित में जो अविवेकपूर्ण नीतियों को लागू करने की जो तैयारियां हैं उससे देश में साम्प्रदायिक सद्भाव घटेगा। पर देश की चिंता कश्मीर के नेताओं को क्यों होने लगी ? तभी तो कश्मीर में पैदा हुए नए किस्म के आतंकवाद से स्थानीय नेतृत्व या तो पूरी तरह बेखबर है या उसकी मिली भगत है। आश्चर्य की बात है कि भारत सरकार के गृह मंत्रालय में बैठे अधिकारी और मंत्री तमाम खुफिया एजेंसियों के बावजूद कश्मीर की घाटी में जड़ जमा चुके नव आतंकवाद से अनजान बने बैठे है।

दरअसल बंदूक की लड़ाई में थककर चूर हो चुके घाटी के आतंकवादी अब दिमाग की लड़ाई लड़ रहे है। घाटी के बुद्धिजीवी, प्रफैशनल्स, अनेक मीडिया कर्मी व दूसरे लोग बाकायदा सोची समझी रणनीति के तहत कश्मीर की घाटी में इस नव आतंकवाद को स्थापित कर चुके हैं। इसका तरीका यही है कि गोली मत चलाओ, बम मत फेंको पर अपने दिमाग से ऐसे मुद्दे खड़े करो जिससे कश्मीर में भारत की संम्प्रभुता धीरे-धीरे स्वयं ही समाप्त हो जाए। 

अमरनाथ में भूमि आवंटन के विरुद्ध शोर मचा कर इस वर्ग ने कश्मीर के राज्यपाल की गरिमा को ठेस पहुंचाई है और उनकी हैसियत गिरा दी है। राज्यपाल केन्द्र का प्रतिनिधि होता है। इस तरह घाटी के लोगों ने केन्द्र की सत्ता को चुनौती दी। आज अमरनाथ में शिराइन बोर्ड से जमीन वापिस मांगी है। कल मांग उठेगी कि कश्मीर में जहां जहां भारतीय सेनाओं ने डेरा डाला हुआ है वह जमीन भी खाली करवाई जाए। फिर मांग उठेगी कि कश्मीर से अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों को दिल्ली की हुकूमत वापिस बुला ले। इस तरह क्रमशः भारत सरकार के और भारत के असर को कश्मीर से खत्म किया जा रहा है। खूनी लड़ाई से यह लड़ाई ज्यादा पेचीदी है। इस तरह कश्मीरी भारत सरकार को हाशिए पर खड़ा कर देना चाहते है। हमारी सरकार खासकर गृह मंत्रालय इतना बेखबर है कि घाटी में चल रहे इस षड़यंत्र को नहीं देख पा रहा है। वोटों की राजनीति के चक्कर में हर दल मुसलमानों को लुभाने की कोशिश करता है। संविधान में सबको समान हक की गारंटी मिलने के बावजूद मुसलमानों के साथ पक्षपात क्यों किया जाता है ? अगर हमारी सरकार वाकई धर्मनिरपेक्ष है तो फिर हज हाऊस बनाना, हवाई अड्डे पर उनके लिए विशेष टर्मिनल और हाजियों को यात्रा किराए में रियायत क्यों दी जाती है ? अमरनाथ की इस घटना के बाद अगर देश भर में मुसलमानों के विरुद्ध आंदोलन खड़ा हो तो क्या गलत है ? ये दूसरी बात है कि इस आंदोलन का सभी राजनैतिक दल चुनाव में फायदा उठाना चाहेंगे। पर उससे जनता और देश को कुछ नहीं मिलेगा सिवाय बर्बादी के। अमरनाथ में जो कुछ हुआ वह अक्षम्य है। गृह मंत्रालय को अपनी तंद्रा तोड़कर कश्मीर की घाटी में चल रहे बौद्धिक आतंकवाद से निपटना होगा। वरना हालात बद से बदतर हो जाएंगे। वह दिन दूर नहीं जब घाटी के लोग हिन्दुस्तान की हुकूमत को कश्मीर की सरहदों से दूर फेंक देगें। 60 वर्षों तक कश्मीर में खरबों रूपया खर्च करने के बाद शेष भारत हाथ मलता रह जाएगा।