Sunday, February 22, 2009

क्या संत करेंगे राजनीति की धुलाई ?

देश की राजनीति को सुधारने के लिए आजकल कुछ नामी संत सक्रिय हैं। जिनमें बाबा रामदेव प्रमुख हैं। वे अपनी राजनैतिक जमीन तलाशने में लगे हैं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। तीन दशक पहले महर्षि महेश योगी को भी राजनीति सुधारने का जुनून चढ़ा था। काफी रूपया भी खर्च किया पर कोई सफलता नहीं मिली तो वह मार्ग छोड़ दिया। दरअसल धन, यश और सत्ता का गहरा नाता है। महत्वाकांक्षी व्यक्ति तीनों चाहता है। एक भी कम हो तो उसकी तरफ दौड़ता है। बाबा के पास धन और यश दोनों हैं शायद इसलिए उन्हें अब सत्ता की तलब लग रही है। स्वामी रामदेव ने भारत स्वाभिमान ट्रस्ट की स्थापना भी कर डाली है। जिसका जीवन दर्शन एक 80 पेज की पुस्तिका में देश भर में भेजा जा रहा है। इस पुस्तिका को पढ़ने से स्वामी जी की विचार धारा और भी स्पष्ट होती है। हालांकि इसमें वही विचार हैं जो स्वामी जी रोजाना सुबह टेलीविजन पर व्यक्त करते हैं। पर इस तरह इन विचारों को एक ही जगह संकलित कर उन्हें पुस्तक रूप में छापकर स्वामी जी ने माओ की लाल किताब या गद्दाफी की हरी किताब या लेनिन की किताब जैसी पहल की है।

वे देश को वैकल्पिक राजनैतिक व सामाजिक व्यवस्था देना चाहते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं। सद्इच्छा से किया गया कोई भी प्रयास वंदनीय है। पर प्रश्न उठता है कि क्या केवल सद्इच्छा से ही देश की राजनीति को धोया-पांेछा जा सकता है ? अगर ऐसा होता तो महात्मा गांधी अपने सपनों का भारत बनवा लेते। सुभाष चन्द्र बोस भारत के पहले प्रधानमंत्री होते। करपात्री जी महाराज 70 के दशक में भारत के नेता होते। जयप्रकाश नारायण को हताशा में शरीर नहीं छोड़ना पड़ता। दरअसल सद्इच्छा और जमीनी हकीकत में बहुत दूरी होती है।

अपनी पुस्तक में आठ पेजों में रामदेव जी ने भ्रष्टाचार पर अपने विचार विस्तार से रखें हैं और भ्रष्टाचार को ही देश की अधिकतर समस्याओं की जड़ बताया है। रामदेव जी ही नहीं देश में तमाम सुप्रसिद्ध संत ऐसे हैं जो भ्रष्टाचार के मामले में युवाओं से अपेक्षा रखते हैं कि वे समझौता नहीं करेंगे।  पर अनुभव यह बताता है कि जब भी कोई युवा बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के खिलाफ शंखनाद करता है तो इनमें से एक भी संत उसकी मदद को सामने नहीं आता। सामने न भी आयें पर पीछे से भी मदद नहीं करते। अगर कोई योद्धा सीधा इनसे टकरा जाए और केवल नैतिक सहयोग ही मांगे तो भी ये सामाने आने की हिम्मत नहीं करते। कोई बयान तक जारी नहीं करते। कारण बड़ा साफ है। यश और धन आने के बाद कोई उसे खोना नहीं चाहता। चाहें वो संत के ही भेष में क्यों न हों। उसे डर लगता है कि अगर मैं ऐसे सीधे संघर्ष में उतरूंगा तो सत्ताधीश मेरा जीना मुश्किल कर देंगे। मेरा साम्राज्य खतरे में पड़ जाएगा। उसे यह भी पता होता है कि उसकी तरक्की में तमाम ऐसे लोगों का धन लगा है जिनके पास बेशुमार दौलत है और यह दौलत उन्होंने उन्हीं तरीकों से कमाई है जिनसे देश में भ्रष्टाचार पनपता है। अगर वह संत इस लड़ाई में कूदेगा तो उसके ऐसे ठोस समर्थक कन्नी काट लेंगे। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि ‘‘पर उपदेस कुसल बहुतेरे, जे आचरही ते नर न घनेरे’’

इसका अर्थ यह नहीं कि कोई प्रयास ही न किया जाए या कोई प्रयास कभी सफल ही नहीं होता। पर सच्चाई यह है कि प्रयास करने वाला इतना ठोस नहीं होता कि विपरीत परिस्थितियों को झेलकर अपनी जमीन पर टिका रहे। अगर टिका रहता है तो भी सफलता नहीं मिलती जैसा प्रायः क्रूसेडरों के साथ होता है तो फिर यही मानना चाहिए कि ईश्वर या प्रकृति बदलाव नहीं चाहती। अभी बदलाव का समय नहीं है।

अक्सर देखने में आता है कि शोहरत मिलते ही आदमी को यह गुमान हो जाता है कि वो देश में क्रान्ति ला देगा। जो लोग 1994 से 1997 तक देश के हालात पर नजर रखे थे उन्हें याद होगा कि तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी.एन. शेषन कैसे तूफान की तरह उठे थे और मध्यम वर्गीय जनता ने उन्हें हाथों हाथ कंधों पर बिठा लिया था। पर वे जल्दी ही गर्द की तरह बैठ गए। उस दौर में मैंने उनके साथ देश के हर कोने में सैकड़ों जनसभाएं संबोधित की थी। उनके द्वारा स्थापित देशभक्त ट्रस्ट के चार ट्रस्टियों में से मैं भी एक था। बाकी दो वे पति-पत्नी और चैथी एक फिल्म निर्माता महिला। इसलिए मुझे उनकी असफलता के कारणों की गहरी समझ है। जिसका उल्लेख यहाँ जरूरी नहीं है। पर यह सच है कि बदलाव की हर लड़ाई कुर्बानी मांगती है। जो अपना यश, धन और सुख त्यागने को तैयार हों वे ही बदलाव ला सकते हैं। हम भौतिक सुख छोड़ना न चाहें और बदलाव की बात करें तो सफलता नहीं मिलेगी। क्योंकि सत्ता का सुख भोग रहे निहित स्वार्थ उन्हें  भला क्यों सफल होने देंगे? क्योंकि ऐसी तथाकथित क्रांति से उन्हें अपने भौतिक सुखों के समाप्त होने का खतरा होगा। 

रामदेव जी ने टी.वी. देखने वाले देश के लोगों पर अच्छी पकड़ बनायी है। आयुर्वेदिक दवाओं का विशाल कारोबार खड़ा कर अपना आर्थिक पक्ष भी मजबूत किया है। संयासी होने के कारण उन पर कोई पारिवारिक दायित्व भी नहीं है। फिर भी मुझे लगता है कि उनकी ये मुहीम शायद बहुत दूर तक नहीं जाये। अगर वे कामयाब हो जाते हैं तो ये हम सब के लिए अपार सुख और शांति की बात होगी कि देश की राजनीति को मजे हुए संत मार्ग निर्देशन करें। ऐसा नहीं है कि संत अपने मिशन में कभी कामयाब नहीं हुए। मराठा सम्राट शिवाजी महान को प्रेरणा देने वाले उनके गुरू संत रामदास ही थे। चन्द्रगुप्त को ज्ञान देने वाले विष्णु पंडित या चाणाक्य किसी संत से कम न थे। तो जो मध्य युग या प्राचीन युग में हुआ वह अब भी हो सकता है। बशर्तें कि देश को सुधारने का संकल्प लेने वाले संत निष्काम हांे और हर त्याग के लिए तैयार हों। यह तो वक्त ही बताएगा कि बाबा रामदेव किस श्रेणी के संत हैं और कहां तक अपने राजनैतिक मिशन में सफल होते हैं। हमें तो ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह सद्मार्ग बताने वाले संत इस तपोभूमि पर भेजता रहे और हम ऐसे संतों के मार्ग निर्देशन में अपना जीवन और राष्ट्र का जीवन सुधारते रहें।

Sunday, February 15, 2009

सीबीआई के बस का नहीं

निठारीकांड के अभियुक्तों को अदालत ने सजा -ए- मौत सुना दी। मारे गए मासूमों के सीने की आग पर कुछ ठंडक पड़ी। अयुक्त अन्ततः फांसी के फंदे पर लटकेगें या नहीं यह तो भविष्य की कानूनी लड़ाई बताएगी पर एक बात साफ है कि सीबीआई की विश्वसनीयता पर एक बार फिर सवाल खड़ा किया गया है। यह सवाल खुद न्यायालय ने किया है। उसे सबूत छिपाने के आरोप में फटकार पड़ी है। 1995 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी सीबीआई को फटकार लगाते हुए कहा था कि ’’एक थानेदार तुमसे बेहतर काम कर लेता है।’’ राजनीतिक्यों के घोटालों के मामले में सीबीआई को अकसर फटकार पड़ती रहती है। यह कई बार सिद्ध हो चुका है कि सीबीआई घोटालों का कब्रगाह है। जहां हजारों घोटाले बिना जांच के दफन कर दिए गए हैं। पर इसके लिए सीबीआई के अधिकारी ही जिम्मेदार नहीं हैं। क्योंकि सरकार ने सीबीआई को पंगु बना कर रखा है। केन्द्रीय सत्ता में काबिज दल सीबीआई को अपना हथियार बनाकर विरोधियों की नकेल कसते रहते हैं। इसलिए सीबीआई को स्वायत्ता देना कोई नहीं चाहता।

दूसरी तरफ सीबीआई के जिम्मे इतना सारे मामले हैं कि मानवीय स्तर पर उनसे निपटना सीबीआई के बस की बात नहीं। क्योंकि उसके पास जितने अधिकारी और इंस्पेक्टर हैं वे सब पहले से ही काम के बोझ में दबे हुए हैं। इसलिए हजारों केस जांच के स्तर तक भी नहीं पहुंच पाते। सीबीआई को जरूरत है एक लंबी चैड़ी फौज की जो हर छोटे बड़े केस को सुलझाने में सक्षम हो।

आर्थिक मंदी के दौर में सरकारें अपने खर्चे घटा रही हैं। ऐसे में सीबीआई के लिए दर्जनों अफसर नए तैनात करना सरकार के बस की बात नहीं है। उधर देश में सैकड़ों ऐसे आईपीएस अधिकारी और उनसे नीचे के पुलिस अधिकारी हैं जो सेवा निवृत्त होकर घर पर खाली बैठंे हैं। उनका समय काटे नहीं कटता। इन्होंने पूरा जीवन पुलिस में रहकर जांच करने के की काम किए हैं। इनसे बेहतर समझ और अनुभव किसके पास होगा ? वैसे भी ये लोग सरकार से पेंशन पा रहे हैं। इसलिए इन सेवा निवृत्त अधिकारियों को जांच के काम में लगाया जा सकता है। इससे सीबीआई के ऊपर कोई अतिरिक्त आर्थिक भार भी नहीं पड़ेगा और उसका काम बांटने वाले दर्जनों सेवा निवृत्त अधिकारी उसके लिए उपलब्ध रहेंगे। जिससे जांच में तेजी आएगी।

ऐसे अधिकारियों को ढूढंना कोई मुश्किल काम नहीं है। इस विषय में मैंने एक बार केन्द्रीय सतर्कता आयोग के सदस्यों को भी प्रस्ताव भेजा था। उन्होंने इस संभावना पर सहमति जताई थी। पर लगता है कि उनकी इस सलाह को गृहमंत्रालय ने अभी तक स्वीकार नहीं किया है। इसलिए मामला अटका हुआ है। देश में अपराध बढ़ते जा रहे हैं। सीबीआई के पास शिकायतों के पुलंदे बढ़ते जा रहे हैं। सरकार नए अधिकारी नियुक्त करने में समर्थ नहीं है। एक बेचारी सीबीआई किस-किस मोर्चे पर दौड़े। ऐसे में दृढ़ निश्चय लेने वाले नेतृत्व की आवश्यकता होती है। सरकार को चाहिए कि इस दिशा में तेजी से पहल करे। उदारीकरण के दौर में जब सरकार अपने सार्वजनिक उपक्रमों और अन्य प्रशासनिक कार्यों तक में बाहर से सलाहकार नियुक्त कर रही है और उन्हें मोटी फीस भी दे रही है तो अपने ही सेवा निवृृत्त पुलिस अधिकारियों की मदद लेने में उसे कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।

दरअसल हमारी पूरी व्यवस्था अनिर्णय की स्थिति में रहती है। जबकि  ठोस परिणाम प्राप्त करने के लिए सही समय पर सही निर्णय लेना होता है। अविश्वास व संक्षय की स्थिति में निर्णय लेना संभव नही ंहोता। व्यवस्था में लगे लोगों का आत्मविश्वास तभी बढ़ता है जब उनके लिए निर्णयों का सम्मान हो। सीबीआई को निर्णय लेने की छूट नहीें है। सीबीआई की मौनीटरिंग करने वाले केन्द्रीय सतर्कता आयोग तक के दांत पहले ही तोड़ दिए गए हैं। उधर सरकार निर्णय लेगी नहीं । नतीजतन सीबीआई गलती करती रहेगी और डांट खाती रहेगी और सत्ता पक्ष के हाथों में कठपुतली की तरह नाचती रहेगी। जनता को इससे कोई राहत नहीं मिलेगी और निठारी जैसे कांड होते रहेंगे, सीबीआई इसी तरह अधकचरी जांच करके केसों को उलझाती रहेगी जैसा उसने आरूषि के मामले में भी किया। यह गंभीर समस्या है। जिससे अनदेखा करना सरकार को भारी पड़ेगा।

Sunday, February 8, 2009

चुनाव आयोग में घमासान

चुनाव आयुक्त नवीन चावला को लेकर चुनाव आयोग में घमासान मचा है। मुख्य चुनाव आयुक्त के गोपनीय पत्र ने भाजपा को इंका पर हमला करने का एक और शस्त्र दे दिया है। लोगों के मन में शंका है कि इस तरह आपस में उलझा चुनाव आयोग क्या आगामी लोकसभा चुनाव ठीक से करवा पायेगा? क्या नवीन चावला मुख्य चुनाव आयुक्त बनकर इंका को मदद नहीं पहुँचायेंगे? क्या चुनाव आयोग की छवि इस विवाद से धूमिल नहीं पड़ेगी? ये सभी प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और सब पर विचार करने की जरूरत है।

जहाँ तक चुनाव आयोग की चुनाव संचालन क्षमता का सवाल है, उसमें कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ने वाला। टी.एन.शेषन के पहले तो चुनाव आयोग का वजूद तक आम आदमी नहीं जानता था। शेषन ने चुनाव आयोग को काफी विस्तृत रूप दे दिया। पर अनुभव बताता है कि मतदाता इन बातों से प्रभावित नहीं होता। अगर चुनाव आयोग को मैनेज किया जा सकता तो श्रीमती इन्दिरा गाँधी 1977 का आम चुनाव कभी न हारतीं। ऐसा इसलिए है कि चुनाव करवाने के कायदे-कानून काफी स्पष्ट और पारदर्शी हैं। चुनाव लड़ने वाला हर दल सजग रहता है। अधिकारी भी अपने काम से काम रखना चाहते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अगर आज किसी एक दल को फायदा पहुँचायेंगे तो दूसरा दल जब सत्ता में आयेगा तो उनकी काफी दुर्गति हो सकती है। इसमें अपवाद होते हैं। लेकिन जिस तरह लालू यादव बिहार विधानसभा का चुनाव हारे, वसुन्धरा राजे राजस्थान में हारीं, जयललिता तमिलनाडु में हारीं उससे यह स्पष्ट है कि सरकारी मशीनरी सबसे ताकतवर मुख्यमंत्री के भी कब्जे में नहीं रहती।

चुनाव आयोग के पास यह ताकत नहीं है कि वो मनमोहन सिंह का कार्यकाल बढ़ा दे या चुनाव समय से आगे टाल दे या चुनाव को इस तरह करवाये कि उसकी पसन्द का दल सत्ता में आ जाये। जब ऐसी कोई ताकत चुनाव आयोग के पास नहीं है तो नवीन चावला मुख्य चुनाव आयुक्त बनकर भी क्या कर लेंगे? एक उदाहरण एस.वाई. कुरैशी का है जिन्हें इंका सरकार ने अपना आदमी समझकर आयोग में भेजा था। पर कर्नाटक के चुनाव में श्री कुरैशी ने इंका की अपेक्षाओं के विरूद्ध निर्णय दिया। क्यांेकि वे साफ आदमी हैं और चुनाव आयोग में जाने का मतलब ये नहीं कि उन्होंने अपना ईमान गिरवी रख दिया हो। इसलिए भाजपा का डर पूरी तरह से बेबुनियाद न भी हो तो भी कोई उसका खास बिगाड़ नहीं सकता। भाजपा के डर की वजह यह है कि नवीन चावला पूरी तरह से इंका के आदमी हैं। वे आपातकाल में संजय गाँधी के दाहिने हाथ हुआ करते थे। जनता सरकार ने उन्हें कालापानी भेज दिया। पर फिर 1980 में वे केन्द्र में लौट आये और तब से लगातार महत्वपूर्ण पदों पर तैनात रहे। श्री चावला की काबिलियत पर किसी को शक हो न हो, पर इससे कोई असहमत नहीं हो सकता कि उनका झुकाव इंका की तरफ हमेशा रहेगा। ऐसा व्यक्ति मुख्य चुनाव आयुक्त बनकर कई बार चुनावी नतीजों सम्बन्धि विवादों में कुछ खेल कर सकता है। पर उसकी भी ज्यादा सम्भावना नहीं है। क्योंकि चुनाव आयोग में दो सदस्य और भी होते हैं। फिर ऐसे फैसले चुनाव अधिकारी यानि जिलाधिकारी पर ज्यादा निर्भर होते हैं। इसलिए ऐसा कुछ भी नहीं होने जा रहा है जिसके कारण इंका को तगड़ा लाभ और शेष दलों को महत्वपूर्ण नुकसान हो जाए।

अलबत्ता ये नैतिक प्रश्न जरूर है। चुनाव आयोग के सदस्य का पद संवैधानिक पद है। इस पद पर बैठने वाले में इतनी गरिमा अवश्य होनी चाहिए कि देशवासी उसका सम्मान करें। अगर सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के आचरण पर उंगली उठती है तो अपेक्षा की जाती है कि वह न्यायाधीश उस मुकदमें से हट जायेगा। या फिर अपने पद से इस्तीफा दे देगा ताकि वादी और प्रतिवादियों की आस्था न्याय व्यवस्था में बनी रहे। पर अनेकों उदाहरण हैं जब इस अलिखित और अघोषित स्वाभाविक नियम की अवहेलना की जाती है। सर्वोच्च न्यायालय के कई न्यायाधीशों के अनैतिक आचरण के मामले समय-समय पर कालचक्र ने प्रकाशित किए। पर उन्होंने इस्तीफे नहीं दिए। आजकल भी कोलकोता उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आ चुके हैं। पर न तो वे इस्तीफा दे रहे हैं और न ही संसद उन पर महाभियोग चला रही है। कुछ ऐसी ही बात श्री चावला पर भी लागू होती है। कानूनन उनको हटाया नहीं जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन याचिका का जो भी परिणाम आये, नतीजा काफी विवादास्पद रहेगा। अगर अपने विरूद्ध फैसला आने के बाबजूद श्री चावला अपने पद पर बने रहने के लिए अड़े रहे तो उन्हें हटाना आसान नहीं होगा। पर नैतिकता का तकाजा यही होता कि वे इस विवाद के उठने से पहले ही इतने महत्वपूर्ण और संवेदनशील पद से इस्तीफा दे देते।

श्री चावला अकेले अपवाद नहीं हैं। एन.डी.ए. की सरकार में अनेक नेता ऐसे थे जिन्हें उनके आपराधिक रिकाॅर्ड के कारण सत्ता में नहीं होना चाहिए था। पर न सिर्फ उन्होंने सत्ता हासिल की बल्कि सारे कानूनों को धता बताकर और जनता की भावनाओं की उपेक्षा करते हुए सत्ता में बने रहे। दरअसल अब नैतिकता देश में कोई मुद्दा बचा ही नहीें। इसलिए नैतिकता के सवाल पर इस्तीफा देने के दिन लद गए। नवीन चावला इन्हीं बदले दिनों का सहारा लेकर अगर सारी टीका-टिप्पणी से कान और आँख बंद करलें तो उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पायेगा। हाँ इस सब विवाद से कुछ समय के लिए चुनाव आयोग चर्चा में जरूर रहेगा और चुनाव में हारे हुए प्रत्याशी इस विवाद का सहारा जरूर लेंगे। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि चुनाव आयोग के मौजूदा घमासान से चुनावों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। पर चुनाव आयोग की विश्वसनीयता और छवि पर देश के मीडिया में टिप्पणियाँ जरूर होंगी। अब ये तो श्री चावला और भारत सरकार को सोचना है कि उनके लिए क्या प्राथमिकता है? चावला की स्वामीभक्ति या चुनाव आयोग की छवि?

Sunday, February 1, 2009

लोकसभा चुनाव में नौजवानों की बहार

काँग्रेस कार्यसमिति में राहुल गाँधी ने आगामी लोकसभा चुनाव में 30 फीसदी टिकट युवाओं को देने की जोरदार वकालत की है। इंका के बड़े नेताओं ने भी इसका समर्थन किया। देश की आबादी में युवा मतदाताओं की बहुतायत होने के बावजूद संसद में उन्हें पूरा प्रतिनिधित्व नहीं है। मुम्बई पर हुये आतंकी हमले के बाद जिस तरह मुम्बई की जनता ने राजनेताओं पर टिप्पणियाँ कीं, उससे यह साफ जाहिर हो गया कि देश की जनता में  पुराने और  थके हुए  नेताओं को ले कर काफी निराशा है। इसलिए भी हर दल नये और साफ चेहरे लाने की सम्भावनाओं को टटोल रहा है। 

हर चुनाव में एक नया शगूफा छोड़ना होता है। जनता को सपने दिखाने होते हैं। सपनों के जाल में मतदाताओं को फंसाना होता है। तभी तो होती है चुनाव की वैतरिणी पार। इंका में यह प्रथा काफी पुरानी रही है। पं0 मोतीलाल नेहरू के समय में पं0 जवाहरलाल नेहरू को युवा हृदय सम्राट बनाकर पेश किया गया। नेहरू के बाद इंदिरा गाँधी को भी युवा नेता बनाकर काँग्रेस ने चुनाव में उतारा। ये बात दूसरी है कि पुराने काँगे्रसी तब अलग हो गये। आपातकाल से पहले संजय गाँधी को युवा हृदय सम्राट बनाया गया। उनकी वायु दुर्घटना में अकाल मृत्यु के बाद राजीव गाँधी युवा भारत की उम्मीद बनाकर प्रस्तुत किये गये और अब यही तैयारी राहुल गाँधी के लिए है। लगता है अब राहुल गाँधी की ताजपोशी का समय आ रहा है। राहुल की शख्सियत और हाल के महीनों में दलितों और गरीबों के बीच उनकी बहुप्रचारित यात्राएँ उन्हें नयी जिम्मेदारी के लिए प्रस्तुत कर रही हैं। यदि उनकी चलती है और इंका युवाओं को बड़े पैमाने पर चुनावी मैदान पर उतारती है तो जाहिरन अन्य दलों में भी खलबली मचेगी। फिर हर दल नये चेहरे ढूँढेगा। तो क्या ये माना जाये कि देश योग्य युवा हाथों में चला जायेगा? यह इतना आसान नहीं। 

केवल युवा होना अपने आप में कोई गुण नहीं। ज्ञानहीन, संस्कारहीन, देश की जमीन से जुड़े होने का अनुभवहीन या फिर अनैतिक आचरण का आदी अगर कोई युवा अपने धनबल और बाहुबल से चुनाव में टिकट हासिल भी कर लेता है तो उससे देश की जनता को कुछ नहीं मिलने वाला। संसद में आपराधिक पृष्ठभूमि के जितने लोग बैठे हैं, उनमें से अनेक युवा ही तो हैं। इसलि एक दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या युवाओं के नाम पर पार्टी के समर्पित, योग्य व विचारवान युवाओं को दल अपना उम्मीदवार बनायेंगे या युवाओं के नाम पर केवल बड़े पैसे वाले और ताकत वाले नेताओं के साहबजादों को ही टिकट बटेंगे? अब तक तो यही देखने में आ रहा है कि युवाओं के नाम पर खानदानी विरासत ही आगे बढ़ायी जाती है। चाहे उससे दल की छवि खराब ही क्यों न हो जाये। पर यदि व्यक्ति योग्य हो तो खानदानी विरासत आगे बढ़ाने में किसी को क्या गुरेज होगा? अक्सर ऐसा होता नहीं है। राजतंत्र की तरह ही लोकतंत्र में भी गद्दी का हकदार नेताओं के पुत्र ही बनते हैं। जब ओमप्रकाश चैटाला और रणजीत सिंह जैसे या राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे जैसे दो भाई महत्वाकांक्षी हो जाये  तो गद्दी के लिए तलवारें म्यान से बाहर खींच ली जाती हैं। जैसा मध्ययुगीन शासकों के परिवारों में हुआ करता था। फिर ये कैसा लोकतंत्र हुआ? मशहूर फ्रांसीसी समाजशास्त्री पैरेटो का ‘‘सर्कुलेशन आॅफ इलीट’’ का सि़द्धांत विश्वप्रसिद्ध है। वे कहते हैं कि चाहे कोई भी तंत्र हो, सत्ता हमेशा कुलीनों के हाथ में रहती है। एक समूह के कुलीन जब सत्ता में काबिज होते हैं तो वे वहाँ टिके रहना चाहते हैं। पर कुलीनों का दूसरा समूह जो सत्ता से बाहर रह जाता है वह सत्ता हासिल करने की जुगाड़ में लगा रहता है। मौका मिलते ही दूसरा समूह सत्तानशीं हो जाता है और पहला समूह दूसरे की भूिमका में आ जाता है। इस तरह सत्ता का हस्तांतरण कुलीनों के बीच होता रहता है। आम जनता केवल दर्शक की भूमिका में रहती है। जब कभी किन्हीं खास हालातों में जगजीवन राम, लालू यादव या मायावती जैसे दलितों के नेता सत्ता पर काबिज भी होते हैं तो वे भी उसी कुलीन क्लब के सदस्य बना लिये जाते हैं। फिर उनका अपनी बिरादरी के आम आदमी से कोई संवाद नहीं रहता। यह क्रम इसी तरह चलता रहता है। इसलिए बुनियादी रूप से कुछ नहीं बदलता।

जब राजीव गाँधी को 1984 में देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलायी गयी तो उन्हें राजनीति का अ, , स नहीं पता था। उनकी राजनीति में रूचि भी नहीं थी। ‘‘पर उस नाजुक दौर में देश को बचाने के लिए वे आगे आये’’ ऐसा इंका वालों का दावा था। राजनैतिक समझ न होने के कारण राजीव गाँधी ने शुरू के वर्ष में ऐसी दूरगामी प्रभाव वाली योजनाएँ घोषित कर दीं जिनसे देश में क्रांति आ सकती थी। पर इससे पहले कि वे कुछ कर पाते, निहित स्वार्थ उन पर हावी हो गये और उन्हें बोफोर्स घोटाले में इस तरह उलझा दिया गया कि वे बहुत कुछ नहीं कर पाये और अंततः अपनी जान गंवा बैठे।

क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, आतंकवाद व भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी देश की राजनीति के इस माहौल में राहुल गाँधी क्या कर पाते हैं, ये जाँचने का समय तो उनके चुनाव जीतने और गद्दीनशीं होने के बाद ही आयेगा? पर देशवासी खासकर मतदाता यह जरूर जानना चाहेंगे कि देश की बुनियादी समस्याओं के हल का क्या माॅडल उनके पास है? अगर राहुल गाँधी अपने पिता की गलतियों से सबक लेकर नपा-तुला और ठोस कार्यक्रम देश के आगे रखते हैं तो मतदाता उनकी तरफ आकर्षित होगा। वर्ना चुनावी विजय तो उन्हें शाहरूख खान और गोविन्दा जैसे लटकों-झटकों से भी मिल सकती है। ये फिल्मी कलाकार जब चुनाव में उतरते हैं तो युवा मतदाता आगा-पीछा देखे बिना इन पर लट्टू हो जाते हैं और इन्हें आसानी से जिता देते हैं। ये बात दीगर है कि जीतने के बाद फिल्मी सितारे मतदाताओं को भारी निराश करते हैं। राहुल गाँधी को भी फिल्मी सितारे की तरह ग्लैमराइज करके एक चुनाव तो जीता जा सकता है पर राजनीति की लम्बी पारी नहीं खेली जा सकती। जबकि राहुल गाँधी जाहिरन राजनीति में लम्बी पारी खेलने के मकसद से ही उतरना चाहेंगे। 

देश की हर समस्या की जड़ में है भारी भ्रष्टाचार। जब राजनेताओं के नौनिहाल राजनीति में आते हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वे भ्रष्टाचार के मामले में अपने से पहली पीढ़ी के मुकाबले कम भ्रष्ट होंगे। क्यांेकि उनकी पहली पीढ़ी ने राजनीति में जमने के लिए जमीन से संघर्ष शुरू किया होता है। अनेक उतार-चढ़ाव और खट्टे-मीठे अनुभव बटोरे होते हैं। इसलिए वे कई बार मजबूरन भ्रष्ट हो जाते हैं। पर यह पीढ़ी धन-सम्पदा , चमचे-चाटुकार और राजनैतिक विरासत के साथ चुनाव में उतरेगी। इसलिए इनके मन में असुरक्षा की भावना नहीं होनी चाहिए। इन्हें सोचना चाहिए कि जो कुछ कोई युवा संघर्ष करके जीवन में हासिल करता है, वह इन्हें घर बैठे जन्म घुट्टी में मिल चुका है। जिसका स्रोत कोई पारदर्शी नहीं रहा है। यह इनके पूर्वजों की गाढ़े खून-पसीने की कमाई भी नहीं है। यह तो इस देश की आम जनता का हक छीनकर इकट्ठी की गई दौलत है। पर बाप के अपराध के लिए बेटे को गुनहगार नहीं ठहराया जा सकता। फिर भी यह तो तय है कि इस दौलत पर इस देश की जनता का नैतिक हक है। इसलिए अगर राजनेताओं के सपूत युवा पीढ़ी के नाम पर राजनीति में उतरते हैं तो उन्हें कम से कम जनता का इतना कर्ज तो अदा करना ही चाहिए कि अब और भ्रष्टाचार न करें और इस देश की बदहाल जनता के आँसु पोंछने के लिए ईमानदाराना कोशिश करें। इससे उनकी जनता के बीच बढि़या छवि तो बनेगी ही, उनके पाँव भी राजनीति में मजबूत होंगे।

Sunday, January 25, 2009

कैसे हो भाजपा का कल्याण?

Rajasthan patrika 25-01-2009
कल्याण सिंह फिर रूठ गये। इससे पहले भैरोंसिंह शेखावत प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी प्रस्तुत कर चुके हैं। नरेन्द्र मोदी ने उद्योग जगत से खुद को भावी प्रधानमंत्री का दावेदार घोषित करवा दिया। जिन्ना वाले बयान पर आडवाणी जी के खिलाफ संघ, विहिप और भाजपा का नेतृत्व पहले ही काफी आग उगल चुका है। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी गाहे-बगाहे खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताते रहते हैं। फिर अपना बयान वापिस भी ले लेते हैं। उमा भारती और गोविन्दाचार्य जैसे आडवाणी जीे के खासुलखास रहे सिपहसलार कब से उनसे खफा हैं। अटल जी और आडवाणी जी के सम्बंधों के बारे में भी विरोधाभासी बयान आते रहते हैं। जिन दिनों गोविन्दाचार्य आडवाणी जी के निकट थे, उन दिनों उन्होंने अटल जी को पार्टी का मुखौटा बताकर बहुत बड़ा विवाद खड़ा कर दिया था। पर इससे ये संकेत तो साफ गया कि आडवाणी जी की टीम अटल जी को दल का असली नेता नहीं मानती। अब इसमें गलती किसकी मानी जाए?

इन सब लोगों की या आडवाणी जी की? कैसी गलती? क्या वो इसलिए गलत हैं कि वे अपने मन में प्रधानमंत्री बनने की लालसा पाले हुए हैं या फिर इसलिए कि उनके नेतृत्व में उनके ही सहयोगियों का विश्वास नहीं। दरअसल आडवाणी जी के व्यक्तित्व को लेकर भाजपा में ऊपर से नीचे तक काफी द्वन्द है। मीडिया का सहारा लेकर और सोची समझी रणनीति के तहत रामरथ यात्रा के दौरान उनकी जो आक्रामक हिन्दू छवि प्रस्तुत की गयी थी उसने उन्हें कार्यकर्ताओं का हीरो बना दिया था। सबको लगता था कि अगर राम राज्य आयेगा तो आडवाणी जी के नेतृत्व में ही आयेगा। राम राज्य तो नहीं आया अलबत्ता एन.डी.ए. राज जरूर आया और इस राज में आडवाणी जी उपप्रधानमंत्री व गृहमंत्री थे। दोनों ही पद काफी ताकतवर थे। पर वे ऐसा कुछ भी नहीं कर पाये जिससे उनके दूसरा लौह पुरूष होने का प्रमाण मिलता। इससे उनके चाहने वालों को बहुत निराशा हुई। फिर रामजन्म भूमि से लेकर जिन्ना प्रकरण तक जिस तरह आडवाणी जी के विरोधाभासी बयान आते रहे, उससे उनके प्रति रहा बचा मोह भी भंग होता गया। आज हालत ये है कि भाजपा के पास कोई राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं है। संगठन में वो अनुशासन नहीं बचा जिसकी दुहाई नब्बे के दशक में दी जाती थी। मजबूरी में उनके घोर विरोधियों को भी आडवाणी जी को एन.डी.ए. की सम्भावित सरकार का नेता मानना पड़ रहा है। पर ये सब मानते हैं कि मौजूदा हालातों में आडवाणी जी का वो करिश्मा नहीं बचा जो उन्हें चुनाव की वैतरणी पार करा सके। इसलिए सबके मन में बैचेनी है।   

उधर अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने के लिए आडवाणी जी ने जिन्ना प्रकरण को जानबूझकर खड़ा किया। जिससे उन्हें सहयोगी दलों का समर्थन मिल सके। वैसे भी उनका वह बयान उनकी अपनी सोच का परिचायक था। दुनिया में बनी छवि के विपरीत आडवाणी जी धर्मान्ध व्यक्ति नहीं हैं। अगर ये कहा जाये कि उनकी धर्म में कोई विशेष आस्था नहीं है तो शायद बहुत गलत नहीं होगा। आखिर ओढ़े हुये लबादे से कोई कब तक अपना मन छिपा सकता है? आडवाणी जी जानते हैं कि इस देश में धर्मान्ध राजनीति करने वाले शीर्ष तक नहीं पहुँचते। इसलिए वे जानबूझकर ऐसे विवादों को पनपने देते हैं जिनसे उनकी रामजन्म भूमि आन्दोलन वाली छवि समाप्त हो जाए। अलबत्ता वे संघ को भी खुश रखना चाहते हैं ताकि उनका कार्यकर्ता उनसे जुड़ा रहे और चुनाव में काम आता रहे। आडवाणी ही क्यों, नरेन्द्र मोदी तक बदल चुके हैं। अमरीका वाले लाख गोधरा के मोदी को याद कर गाली देते रहें। मोदी खुद अब धर्म निरपेक्ष छवि बनाने में लगे हैं। पिछले दिनों गुजरात में विहिप के कार्यकर्ताओं पर उनके राज्यकाल में जो लाठियाँ भँजी, उससे जाहिरन संघ परिवार बहुत नाराज हुआ। पर मोदी ने भी यह एक सोची समझी रणनीति के तहत किया।

जहाँ तक नेतृत्व का सवाल है, इसमें शक नहीं कि आडवाणी जी अपने साथियों का प्रेम और विश्वास जीतने में असफल रहे हैं। वर्ना क्या वजह है कि शारीरिक रूप से चलने-फिरने में असमर्थ हो चुके अटल जी को उनके सहयोगी बेहिचक अपना नेता मानने को आज भी तैयार हैं। पर आडवाणी जी को वे मन से अपना नेता नहीं मानते। उन्हें लगता है कि आडवाणी जी बहुत ज्यादा आत्म केन्द्रित या परिवार केन्द्रित हैं। इसलिए वे आडवाणी जीे के नेतृत्व में सुरक्षित महसूस नहीं करते। लोकतंत्र में किसी भी व्यक्ति के मन में प्रधानमंत्री पद की महत्वकांक्षा पैदा हो सकती है। फिर 70 वर्ष से राजनीति में सक्रिय आडवाणी जी की ये महत्वकांक्षा गलत नहीं है। पर उन्हें आत्म विश्लेषण करना चाहिए कि क्या कारण हैं कि नये-नये लोगों के जुड़ने के बजाय एक-एक करके सब पुराने बड़े नेता और उनके सहयोगी उनसे कन्नी काट चुके हैं। अब उनके पास ज्यादा वक्त नहीं है। इस बार प्रधानमंत्री नहीं बने तो फिर पाँच साल बाद तो और भी देर हो जायेगी। इसलिए उनके हक में यही होगा कि वे लोगों को टूटने न दें बल्कि जो अलग हो गए हैं, उन्हें भी फिर से जोड़ लें। कल्याण सिंह का अलग होना यह बताता है कि चुनाव तक भाजपा और भी बड़े झटके झेल सकती है। इसलिए आडवाणी जी को अब भी कोशिश करनी चाहिए कि उनके व्यक्तित्व में ऐसा निखार आये कि लोग उनसे बचें नहीं, टूटे नहीं बल्कि उनके साथ जुड़कर दल का एजेण्डा आगे बढ़ायें। अगर वे ऐसा नहीं कर पाते हैं तो उनकी आगे की राह आसान नहीं होगी। फिर भाजपा का भी कोई ज्यादा कल्याण होने वाला नहीं है।

Sunday, January 18, 2009

उद्योग जगत के प्रधानमंत्री

Rajasthan patrika 18-01-2009
अनिल अंबानी, मुकेश अंबानी व सुनील भारती मित्तल जैसे उद्योगपतियों ने बाइब्रेंट गुजरातमहोत्सव में गुजरात के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार बताकर एक विवाद खड़ा कर दिया है। खुद भाजपा को सफाई देनी पड़ी कि वह उनके मत से सहमत नहीं हैं और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का निर्णय दल करेगा जिसने फिलहाल लालकृष्ण आडवाणी को एन.डी.ए. सरकार का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित कर रखा है। प्रश्न यह नहीं है कि औद्योगिक जगत का मन्तव्य सही है या गलत। नरेन्द्र मोदी ने गुजरात को जो आर्थिक प्रगति की राह दिखायी है, उससे नरेन्द्र मोदी के चाहने वालों की तादाद बहुत बढ़ी है। खासकर औद्योगिक जगत बहुत उत्साहित है। पर इस तरह के वक्तव्य का औचित्य समझ में नहीं आता। क्या इस देश में उद्योगपति ही यह तय करते हैं कि कौन प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे? लोकतंत्र में जनता के वोटों से सरकार बनती है। वोटों की संख्या अगर गिनी जाए तो उद्योगपतियों के वोट की कोई अहमियत नहीं होती। सच तो यह है कि पिछले लम्बे अरसे से कुलीन लोग तो मतदान केन्द्र तक तो जाते ही नहीं थे। इस साल विधानसभा के चुनावों में चुनाव आयोग ने बहुत बढि़या मुहिम चलायी पप्पू साला वोट नहीं डालताजिसके फलस्वरूप बड़ी तादाद में कुलीन वोट डालने निकले। पर फिर भी उनके वोटों से कोई सरकार या प्रधानमंत्री नहीं बनने जा रहा।
उनका यह बयान इसलिए भी अटपटा है कि भारत का औद्य़ोगिक जगत राजनीति के मामले में बहुत लचर है। आज नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा गुजरात के संदर्भ में की जा रही है। कल किसी दूसरे राज्य में कोई दूसरा मुख्यमंत्री ऐसा करेगा तो उसकी भी शान में कसीदे गढ़े जायेंगे। पर अगर उस मुख्यमंत्री का विरोधी सत्ता में आ जाए तो उद्योग जगत को पलटने में देर नहीं लगेगी। सत्तर के दशक में जब इन्दिरा गाँधी को छोड़कर मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पुराने काँग्रेसी अलग हुए तो उद्योग जगत ने सिंडीकेट काँग्रेस के समर्थन में ऐसे ही कसीदे गढ़े थे। तब उन्हें लगा कि मोम की गुडि़याराजनीति के इन महारथियों के आगे टिक नहीं पायेगी। पर जब आम चुनाव में इन्दिरा गाँधी गरीबी हटाओका नारा देकर सत्ता में फिर लौट आयीं तो रातों-रात सबके बयान पलट गये। ऐसा नहीं है कि औद्योगिक जगत राजनीति में दखल न दे। लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार है। फिर उद्योगपतियों को क्यों न हो? पर उद्योगपतियों में फिर इतनी तो ईमानदारी होनी चाहिए कि जिस विचारधारा से जुड़े उसके साथ खड़े रहें। जैसा अमरीका में होता है। जो उद्योगपति रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक होते हैं वे उसके ही समर्थक रहते हैं। जो डेमोक्रेट पार्टी के होते हैं, वे उसी के साथ जुड़े रहते हैं। भारत के उद्योगपतियों की तरह नहीं कि हमेशा जीते हुए दल के साथ दिखना चाहते हैं। ये तो राजनैतिक समझ का उदाहरण नहीं है। इसे साफ शब्दों में अवसरवादिता ही कहा जायेगा।

दरअसल देश के ज्यादातर राज्यों के कानून और व्यवस्था इतनी बिगड़ चुकी है कि उद्योग और व्यापार जगत को बहुत दिक्कत आ रही है। इसलिए जो जरा भी हटकर प्रशासन करता है या बिना देरी के तेजी से निर्णय लेता है, उससे माहौल फौरन बदल जाता है। तब हर किसी को लगता है कि यही मसीहा हमारे दुख दूर कर सकता है। दुनिया की पहली लखटकिया कार नैनो को ही लें। बंगाल रतन टाटा को राहत नहीं दे सका। नरेन्द्र मोदी ने चटपट टाटा की समस्या का हल निकाल लिया। फिर टाटा मोदी से खुश क्यों न हों? दरअसल उद्योगपति हों या आम आदमी सरकार से कोई आसमान के सितारे नहीं माँगा करते। बहुत बुनियादी चीजें माँगते हैं जैसे बिजली, पानी, सफाई, कानून और व्यवस्था। अगर इतनी बुनियादी चीजें भी कोई राज्य या केन्द्र सरकार न दे पाये तो फिर सरकार होने का क्या मायना?

नरेन्द्र मोदी ने इन बुनियादी जरूरतों पर संजीदगी से ध्यान दिया है। इसलिए वे मध्यम और उच्च वर्ग के लोगों का ध्यान आकर्षित करने में सफल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हर वर्ग उनसे संतुष्ट है। गुजरात के देहातों में सामाजिक कार्य करने वाले जागरूक और चिन्तनशील लोगों का मानना है कि नरेन्द्र मोदी की विकास की तेज रफ्तार गुजरात के पर्यावरण व प्राकृतिक संसाधनों को काफी तेजी से खराब कर रही है। इसलिए वे नरेन्द्र मोदी के विकास के दावों से सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण दोहन गुजरात का जो नुकसान कर रहा है उसको विकास की तीव्र गति के आवरण से ढंका नहीं जा सकता। उनकी नजरों में गुजरात अमरीका की तरह सतही विकास कर रहा है। जबकि उसकी बुनियाद काफी खोखली है। 
उनका एक सवाल यह भी है कि नरेन्द्र मोदी उनकी नजर में प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार इसलिए हैं क्योंकि अपने राज्य में उद्योगपतियों का मुनाफा तेजी से बढ़ाया है। इसका मतलब साफ है कि जो उद्योगपति नरेन्द्र मोदी को यह तमगा दे रहे हैं, वे नरेन्द्र मोदी की प्रशासनिक क्षमता के कायल हों या न हों पर इसमें संदेह नहीं कि उनका वक्तव्य निजी लाभ के आंकलन पर आधारित है। चूंकि नरेन्द्र मोदी से उन्हें फायदा हो रहा है, इसलिए वे उनकी नजर में प्रधानमंत्री पद के सबसे योग्य दावेदार हैं। यानि औद्योगिक जगत को पूरे समाज के लाभ से कोई सराकार नहीं है। सारा मामला अपने फायदे का है। फिर उनकी टिप्पणियों का क्या महत्व जब वे खुद ही पारदर्शी सरकारें नहीं चाहते?
मुम्बई हमले के बाद से मुम्बई के बड़े औद्योगिक घराने काफी विचलित हैं। अब तक आतंकी हमलों में गरीब आम आदमी मरता रहा है। इसलिए औद्योगिक जगत को कोई विशेष चिंता नहीं हुयी पर मुम्बई हमले के बाद उन्हें अपने वजूद का डर सताने लगा है। इसलिए वे एक ऐसे नेता की तलाश में हैं जो उनके मन से यह डर निकाल सके। आज की तारीख में उन्हें नरेन्द्र मोदी ही ऐसा उम्मीदवार दिखायी देता है जो ठोस और कड़े निर्णय बिना देरी के लेकर राहत दे सकता है। इसलिए वे इतने स्पष्ट बयान दे रहे हैं। बयान ही नहीं दे रहे, कोशिश भी कर रहे हैं कि एन.डी.ए. में नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी को सुनिश्चित किया जा सके। आने वाले चुनावों में सारी दुनिया की निगाह नरेन्द्र मोदी पर होगी। देखना है वे क्या निर्णय लेते हैं? चुनाव लड़कर प्रधानमंत्री की दावेदारी पेश करते हैं या आडवाणी जी के लिए मंच खाली छोड़ देते हैं।

Sunday, January 11, 2009

उमर अबदुल्ला से बंधी युवा नेताओं को आशा

Rajasthan Patrika 11-01-2009
मात्र 38 वर्ष के उमर अबदुल्ला ने भारत के सबसे ज्यादा संवेदनशील राज्य की कमान संभाल ली है। हालाँकि कश्मीर में उपराज्यपाल का पद होने के कारण भारत सरकार के गृहमंत्रालय का भी काफी दखल रहता है। साथ ही आतंकवाद और पाकिस्तान व चीन की सीमा के चलते फौज का भी खासा जमावाड़ा है। ऐसे में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री को सारी मुसीबतें अकेले नहीं झेलनी होतीं। एक-दूसरे की मदद से रियासत चलती है। पर जो कश्मीर की खुसूसियत वही उमर के लिए चुनौती भी। उनके दादा के जमाने से  कश्मीर को मुख्यधारा में लाने का केन्द्र का प्रयास कभी परवान नहीं चढ़ा। गत 20 वर्षों में तो हालात बद से बदतर हुए हैं। सेना को स्थानीय जनता पसन्द नहीं करती। आतंकवादी अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। आतंकवाद एक उद्योग की तरह चल रहा है। शेष भारत से बुलाकर कश्मीर में तैनात की गयी फौज और सरकारी अमला स्थानीय लोगों के व्यवहार से उत्तेजित होता रहता है। दरअसल कश्मीर की जनता और शेष भारत के बीच कुछ सियासतदानों ने ऐसी खाई पैदा कर दी जिसे आसानी से पाटा नहीं जा सका।  पिछली सरकार के मुख्यमंत्री की वकील बेटी महबूबा ने भी इस खाई को पाटने का नहीं चैड़ा करने का काम किया। पर उमर की शख्सियत बिल्कुल फर्क है।

पिता फारूक अब्दुल्ला और दादा शेख अब्दुल्ला भले ही कश्मीर के हों पर उमर की माँ विलायती हैं और बीबी हिन्दू। उनकी बहन भी एक हिन्दू परिवार में सचिन पायलट से ब्याही हैं। खुद उमर प्रगतिशील विचारों के ऊर्जावान युवा हैं। संसद में और अपने मंत्रीपद के समय उनका व्यक्तित्व एक दकियानूसी फिरकापरस्त का नहीं बल्कि आगे बढ़कर देखने वाले नौजवान नेता का उभर कर आया था। इसलिए उमर से उम्मीद की जा सकती है कि वे कश्मीर के नौजवानों से रास्ता कायम करें। उन्हें मुद्दों और हालात को खुले नजरिये से देखने की प्रेरणा दें। उनको भविष्य का सपना और कश्मीर के विकास का माॅडल दिखायें। कश्मीर के विकास के लिए उन्हें सक्रिय करें। अगर उमर ये कर पाते हैं तो न सिर्फ घाटी में हो रही तबाही रूकेगी बल्कि लाखों दिशाहीन नौजवानों को जीवन का मकसद मिलेगा। लाखों घर बरबाद होने से बचेंगे। अरबों रूपया जो आज आतंकवाद से जूझने में बर्बाद हो रहा है, वो कश्मीर के विकास पर खर्च होगा। पर ये रास्ता आसान नहीं है।

छोटे-छोटे गुटों के नेता बनकर आतंकवाद फैलाने वाले उमर के रास्ते में रोड़ा बनेंगे। वे कश्मीर की जनता को भड़कायेंगे। उन्हें बतायंेगे कि उमर उनका सही नुमाइंदा नहीं है। वे उमर के पिता की राजनैतिक विफलताओं का ठीकरा उमर पर फोड़ने की कोशिश करेंगे। बात ये भी उठेगी कि उमर एक रईस खानदान के चिराग हैं इसलिए उनकी बात में जमीनी असलियत और आम नौजवान की जिन्दगी का दर्द और तजुर्बा शामिल नहीं है। इसलिए युवा उनके बहकावे में न आयें।

पर गालिब का एक शेर है, ‘‘इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं, जी खुश हुआ है राह को पुरखार देखकर।’’ मैं अपने पैर के फोड़ों से घबरा गया था पर अब सामने रास्ता काँटों से भरा देख मैं खुश हूँ क्योंकि ये काँटें मेरे फोड़े फोड़ देंगे। चुनौती न हों तो जिन्दगी में मजा भी नहीं होता। उमर को कोई बच्चे पालने की चिन्ता नहीं है। बहन-बेटी का ब्याह भी नहीं करना। राजनैतिक पहचान बनाने की जद्दोजहद भी नहीं झेलनी। सब कुछ पका पकाया मिला है। इतनी आसान जिन्दगी जीने के बाद अगर कुछ मुश्किलें सामने हैं तो उनका स्वागत किया जाना चाहिए। उमर को चाहिए कि पूरी ईमानदारी और तहेदिल से कश्मीर के आवाम का दिल जीतने की कोशिश करें। उन्हें यकीन दिलायें कि उनकी हुकूमत कश्मीर की बेहतरी चाहती है। अगर उमर ऐसा कर सकें तो वे अपने दादा और पिता को बहुत पीछे छोड़ देंगे। फिर उनकी हैसियत कश्मीर के मुख्यमंत्री की ही नहीं रहेगी बल्कि एक राष्ट्रीय नेता की बनेगी जिसे घर बैठे अन्तर्राष्ट्रीय शोहरत भी मिलेगी। क्योंकि कश्मीर पर पूरी दुनिया की निगाह है। 

कई बार सद् इच्छा से भी सोची गयी बात लोगों को शेखचिल्ली के सपने जैसी लगती है। कश्मीर मामलों के जानकार ये कहेंगे कि वहाँ के मुद्दे और हालात इतने जटिल हैं कि उमर के बस का नहीं उनसे निपटना। पर कई बार ज़ज्बात हालात बदल देते हैं। अगर जवानी का गर्म खून हो और कुछ कर गुजरने का इरादा तो असम्भव भी सम्भव हो जाता है। मेरी उम्र 1993 में कुल 37 साल थी जब मैंने देश के 115 सबसे ताकतवर राजनेताओं और आलाअफसरों से जुड़े जैन हवाला कांड को उजागर किया। तब दूसरों की छोड़ मेरे वकील रामजेठमलानी तक कहते थे कि कुछ नहीं होगा। तुम किसी को नहीं पकड़वा पाओगे। वे सही थे क्यांेकि भारत के इतिहास में इससे पहले किसी बड़े नेता को भ्रष्टाचार के मामले में चार्जशीट नहीं किया गया था। बहुत मुश्किल झेलीं। खतरों का सामना किया। बार-बार अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा। किसी ने साथ नहीं दिया। पर डटा रहा तो 1996 में इस देश में एक नया इतिहास रचा गया जब दर्जनों केन्द्रीय मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों व विपक्ष के नेताओं को चार्जशीट किया गया और उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी। मैं तो एक आम हिन्दुस्तानी परिवार का साधारण नौजवान था। मेरे दादा शेख अबदुल्ला की तरह शेरे कश्मीर नहीं थे। पर उमर को तो विरासत में सबकुछ मिला है। फिर भी अगर जवानी का खून कुछ नया नहीं करवा पाया तो देश के युवाओं को कोई पे्ररणा नहीं मिलेगी। जिस देश की 75 फीसदी आबादी नौजवानों की हो। जहाँ लोग बूढ़े, थके हुए, घिसे हुए, पुराने नेताओं से आजिज आकर नये नेतृत्व की तरफ देख रहे हों, वहाँ एक 38 साल के नौजवान को इतना बढि़या मौका मिले और वो कुछ कर दिखाये तो देश में युवा पीढ़ी का नेतृत्व कायम हो सकता है। आसाम में असम गण संग्राम परिषद् के आन्दोलन के बाद भी युवा नेतृत्व उभरा था। पर टिक नहीं सका, फिसल गया। सपना टूट गया। फिर वही चेहरे हावी हो गए जिनसे जनता थक चुकी थी। उमर को इस बात का खास ध्यान रखना है। राहुल गाँधी, सचिन पायलट, जतिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अखिलेश यादव व सुप्रिया सुले जैसे कितने ही युवा नेता अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। उमर सफल हुए तो बाकी का रास्ता भी खुलेगा और अगर उमर नाकाम रहे तो इनका भविष्य भी धूमिल पड़ेगा। इसलिए बेचारे उमर अबदुल्ला के कंधों पर काफी भार है। देखना है वो इसे कैसे ढोते हैं?