Sunday, September 26, 2010

प्लेसमेंट एजेंसियों पर शिकंजा कसे

पिछले हफ्ते कोलकाता के एक अंग्रेजी दैनिक में खबर छपी की एक 27 वर्षीय महिला मध्यप्रदेश में एक परिवार में मई 2010 में नौकरी करने गई थी, तीन महीने से लापता है. उसके बूढ़े पिता और बच्चे उसके लौटने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं. उन्होंने 20 सितम्बर को कोलकाता के थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दी है. यह खबर पढ़ कर वह परिवार जिसने उसे नौकरी पर रख था घबरा गया. क्योंकि नौकरी पर आने के दूसरे ही दिन यह बंगाली महिला ज़िद करने लगी कि उसे वापिस कोलकाता जाना है. प्लेसमेंट एजेंसी से फोन पर उसकी बात करवा कर, जैसे वह आई थी वैसे ही उसे ट्रेन का टिकट दिलाकर ट्रेन में बिठा दिया गया. पर वह कोलकाता नहीं पहुंची तो इसकी खबर नौकरी देने वाले को कैसे हो? क्यों नहीं तीन महीने से उसके परिवार या प्लेसमेंट एजेंसी ने खोज खबर ली ? चिंता में उन्होंने अपने बाकी स्टाफ से पूछा कि वो जाते समय क्या कह कर गई थी ? तो इस पर सिक्यूरटी गार्ड ने बताया कि कह रही थी कि, दक्षिण दिल्ली के कोटला क्षेत्र में एक प्लेसमेंट एजेंसी है मैं वहाँ जाउंगी और दिल्ली में रहूंगी.

खोज करने पर वह एजेंसी मिल गई और पता चला कि यह महिला तीन महीने से इसी एजेंसी के माध्यम से दिल्ली में नौकरी कर रही है. दिल्ली पुलिस की दबिश के बाद उस एजेंसी ने दो घंटे में उस महिला को वहां प्रस्तुत कर दिया. दिल्ली पुलिस ने कोलकाता पुलिस को सूचना दी और उसे दिल्ली के नारी निकेतन में भेज दिया.

सामान्य सी दिखने वाली यह कहानी बड़ी गहरी साजिश की ओर इशारा करती है. जिसकी गहराई से पड़ताल होनी चाहिए. सिने स्टार शाइनी आहूजा कि नौकरानी ने पहले बलात्कार का आरोप लगाया, उसे जेल भिजवाकर फिर अब कहती है कि उसने झूठा आरोप लगाया था. जानकारी मिली है कि प्लेसमेंट एजेंसियां इसी तरह का ताना-बाना बुनकर संपन्न परिवारों को फंसा लेती हैं फिर उन्हें कानून का डर दिखा कर उनसे मोटा पैसे ऐंठती हैं. तीन तरह के आरोप लगते हैं नाबालिग लड़की से छेड़-छाड़ के, गर्भधान कर देने के या गायब कर देने के. आरोप लगते ही और मामला पुलिस में जाते ही नौकरी देने वाला घबरा जाता है. घबराहट में वो इनके जाल में फंस जाता है.

उपरोक्त मामले में तो परिवार के ऊँचे संपर्क पुलिस में होने के कारण वे बच गए और महिला बरामद हो गई पर ज़्यादातर लोग इस गिरफ्त आसानी से नहीं छूट पाते. यह गंभीर समस्या बनती जा रही है. एक तरफ बंगाल, झारखण्ड, उड़ीसा, केरल, बिहार, मध्यप्रदेश के गरीब परिवार नौकरी की तलाश में संपन्न राज्यों की तरफ मुंह करते है और दूसरी तरफ कामकाजी व्यस्त जीवन जीने वाले परिवार या संपन्न परिवार घरेलू काम के लिए ऐसी महिलाओं को ढूँढ़ते हैं जो विश्वसनीय हों. प्लेसमेंट एजेंसियां इसी दूरी को पाटती हैं. कायदे से उन्हें अपनी व्यवस्था पारदर्शी और विश्वसनीय बनानी चाहिए. पर जैसा उपरोक्त मामले में हुआ. क्या कोटला की एजेंसी ने इस महिला को रखने से पहले उसकी तहकीकात की ? क्या उसके परिवार से रजामंदी ली ? यदि हाँ तो उसका परिवार कैसे कह सकता है कि वो गायब हो गई ? अगर यह रजामंदी लिए बिना ही उसे रख लिया तो क्या यह नए मालिक के साथ धोखाधड़ी नहीं है कि किसी महिला का अतीत और अता पता जाने बिना उसे किसी के घर में नौकरी पर रखवा दिया. कल कोई ऊंच-नीच हो जाये और यह महिला कोई अपराध करके भाग जाए तो उसे कहाँ से ढूंढेगे ? इसका कोई जवाब एजेंसी के पास नहीं है.

जांच का विषय है कि ऐसी एजेंसियां आपस में एक नेटवर्क से जुडी रहती हैं और फिर मिलकर ब्लैकमेलिंग का यह खेल खेला जाता हैं. कहीं प्लेसमेंट की आड़ में इन महिलाओं को वैश्यावृत्ति के धंधे में तो नहीं डाला जाता ? यह सब जांच का विषय होना चाहिए. ऐसे लोग जिन्हें अपने घरेलू नौकर के झूठे आरोपों को झेल कर ब्लैक मेल का शिकार होना पड़ा हो, अगर इस अखबार के नाम पत्र लिखते हैं तो यह जांच करना और आसान हो जायेगा.

पर तस्वीर का दूसरा पहलू भी है. ऐसी गरीब लाचार महिलाओं को नौकरी देने वाले अक्सर उनका शोषण भी करते हैं. उन्हें यातना या शारीरिक कष्ट देते हैं. उनसे वासना तृप्ति करते हैं. उनको छुट्टी नहीं देते. उनका वेतन मार लेते हैं. इसीलिए ऐसी महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए हर शहर में जागरूक महिलाओं को एक साझा मंच बनाना चाहिए. हर शहर में तमाम ऐसी संपन्न पढ़ी-लिखी महिलाएं रहती हैं जिनके पास दिन भर करने को कुछ खास नहीं होता. ताश के पत्ते या किट्टी पार्टी में दिन गुज़र जाता है. दूसरी तरफ इन्हें अपने ही बच्चे पालने कि फुर्सत नहीं होती. बच्चे आयाओं के सहारे पलते हैं. ऐसे में आयाएं संपन्न परिवारों का अहम हिस्सा बन चुकी हैं. इनकी मांग हमेशा पूर्ती से ज्यादा रहती हैं. इसलिए भी अगर संपन्न महिलाएं एक संस्था बना कर इस समस्या से निपटती हैं तो उनका और उनके परिवार का काम अच्छी तरह चलेगा. हर बात के लिए सरकार कि ओर मुह ताकना कोइ अकलमंदी नहीं है. जब तक समाज में आर्थिक विषमता हैं घरेलू नौकरों की ज़रूरत बनी रहेगी. ऐसे में इस समस्या का हल समाज को ढूँढना चाहिए वरना एक तरफ गरीबों का शोषण होगा और दूसरी तरफ संपन्न लोग नाहक ब्लैकमेल का शिकार होंगे.

Sunday, September 19, 2010

क्या हर तीसरा भारतीय भ्रष्ट है?

हाल ही में सेवानिवृत्त हुये मुख्य सतर्कता आयुक्त प्रत्यूश सिन्हा ने यह कहकर कि भारत में रहने वाला हर तीसरा भारतीय भ्रष्ट है, खासा विवाद खड़ा कर दिया है। केन्द्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोईली ने इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। श्री सिन्हा का आशय शायद उन लोगों से था जो सत्ता से जुड़े हैं। वरना अगर पूरे भारत की बात की जाए तो भ्रष्टाचार के बारे में कुछ और ही समझ बनती है।

भ्रष्ट कौन है? जो अनैतिक साधनों से धन कमाता है। देश की 70 फीसदी आबादी कृषि पर आधारित है। किसान छोटा हो या बड़ा या फिर भूमिहीन कृषि मजदूर। रात-दिन खेत में कड़ी मेहनत करता है, तपती धूप, जमाने वाली सर्दी झेल कर भी अनाज उपजाता है। वर्षा में अपना खेत, अनाज, पशु यहां तक कि अपने घर की रक्षा में महीनों जाग-जाग कर रात काट देता है। कहीं बाढ़ में उसका यह छोटा सा संसार ही न बह जाए। इतना ही नहीं खाद, पानी और बीज के लिए बैंक या महाजन के कर्जे में डूबा रहता है। इस सबके बाद जो फसल पैदा होती है, उसे जब मंडी में बेचने जाता है तो यह गारंटी नहीं कि उसे आढ़तिया अनाज के पूरे दाम दे दे। अब बताइये इस बेचारे किसान को भ्रष्ट होने का अवसर कहां मिलता है?

इसी तरह खदानों में काम करने वाले मजदूर हों या भवन निर्माण में काम करने वाले मजदूर, कारखानों में काम करने वाले मजदूर हों या छोटे और मजले दुकानदारों के यहां काम करने वाले मजदूर, यह सब रात-दिन कड़ी मेहनत करते हैं। इनके मालिक कोई ठेकेदार या ऐसे लोग होते हैं जो इनसे काम तो पूरा लेते हैं लेकिन पैसे खींच कर देते हैं। श्रमिकों की सुरक्षा के नियमों की अवहेलना करके इनकी जान जोखिम में डालकर इनसे काम करवाते हैं। एक राज्य के मजदूरों को दूसरे राज्य में ले जाकर काम करवाते हैं, ताकि अगर वो दुर्घटना में मर जाए तो उसकी लाश को ठिकाने लगा दे या उसके घर भिजवा दे। पर स्थानीय जनता में कोई आक्रोष न पनपने दें। इन अमानवीय दशाओं में काम करने वाले करोड़ों मजदूरों को भ्रष्ट होने का मौका कहां मिलता है?

देश की आधी आबादी महिलाओं की है। जिनमें से बहुत थोड़ी महिलायें सरकारी नौकरी में है। ज्यादातर अपने घर, खेत-खलियान या कुटीर उद्योग में लगी हैं। यह सब महिलायें सूर्याेदय से लेकर देर रात तक अपने परिवार की धुरी की तरह निरंतर काम में लगी रहतीं हैं और घर की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। यह सब करने वाली इन महिलाओं को भ्रष्ट होने की गुंजाइश कहां है?

इसी तरह देश के वनों में रहने वाले जन-जातीय समुदाय न्यूनतम साधनों में गुजारा करते हैं और वन संपदा की रक्षा करते हुए उसके उत्पादनो पर ही निर्भर रहते हैं। इन वनवासियों के नैसर्गिक अधिकारों की अवहेलना करके जंगल का माफिया जंगल काटता है और खदान का माफिया खनन करता है। पर इन वनवासियों की थाने से कचहरी और संसद तक कहीं नहीं सुनी जाती। तो इन बेचारों को भ्रष्ट होने का कहां मौका है?

इसी तरह फौज के सिपाहियों या सरकारी महकमों में भी काम करने वाले वो सब लोग जिनसे कसकर काम लिया जाता है और जिन्हें अपने विवके से आर्थिक निर्णय लेने की कोई छूट नहीं है, कैसे भ्रष्ट हो सकते हैं?

साफ जहिर है कि भारत की 90 फीसदी आबादी भ्रष्ट नहीं है। दरअसल भ्रष्ट वही हो सकता है या होता है जिसे अपने विवेक से आर्थिक निर्णय या नीतिगत निर्णय लेने का अधिकार मिला हुआ है। जैसे सरकार, सार्वजनिक क्षेत्र, सेवा क्षेत्र या निजी क्षेत्र में काम करने वाले अधिकारी। जो लेागों को नियुक्ति देने से लेकर बड़ी-बड़ी खरीद, ठेके आवंटित करना, विकास की नीति बनाना, विकास के लिए किसी क्षेत्र को चुनना और उसे विकसित करना या अंतर्राष्ट्रीय व्यापार जैसे क्षेत्रों में निर्णय लेते है। चूंकि इनके निर्णय से किसी को फायदा और किसी को घाटा हो सकता है, इसलिए इन्हें भ्रष्ट होने का हर क्षण अवसर मिलता रहता है। जिन्हें लाभ होने की संभावना होती है वह अपने लाभ का एक हिस्सा इन्हें रिश्वत के रूप में एडवांस देकर इनसे अपने हक में निर्णय करवाने की फिराक में रहते हैं।

अब यहां आदमी के संस्कार, उसकी चेतना, उसके परिवेश और उसकी पारिवारिक आवश्यकताओं के सम्मलित दबाव का परिणाम होता है कि वह भ्रष्ट मानसिकता से निर्णय ले या सदाचार से। ऐसे लोगों की संख्या पूरे भारत की आबादी की 2 फीसदी से ज्यादा नहीं होगी। इन 2 फीसदी में ही हर तीसरा भारतीय भ्रष्ट हो सकता है और है भी। इसलिए श्री सिन्हा का यह दुखभरा बयान सही ठहराया जा सकता है। जो उन्होंने अपने लंबे प्रशासनिक जीवन के अनुभवन के बाद इस हताशा में दिया कि केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त होते हुए भी वे ऐसे भ्रष्ट लोगों का कुछ खास बिगाड़ नहीं सके। शायद बयान देते समय वे यह तथ्य स्पष्ट करना भूल गये अथवा उनके बायान को सही संदर्भ में प्रस्तुत नहीं किया गया।

Sunday, September 12, 2010

मनमोहन सिंह का लेखा-जोखा

पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री डा¡. मनमोहन सिंह ने अपनी सालाना रस्म अदायगी के तहत संपादकों से बात करते हुए अपना मन खोला। डा¡. सिंह की पहली चिंता कश्मीर के हालात को लेकर है। साथ ही उनकी इच्छा है कि अपनी जन्मभूमि पाकिस्तान से भारत के संबंधों का सुधार हो। पर इसके अलावा भी अगर उनकी सरकार के काम का लेखा जोखा किया जाए तो कोई बहुत प्रभावशाली रिपोर्टकार्ड नहीं बनता। राष्ट्रकुल खेलों में 70 हजार करोड़ रूपये का चूना लग चुका है। इसमें भारी भ्रष्टाचार हुआ है। जिसकी जांच अब खेलों के बाद केन्द्रीय सतर्कता आयोग करेगा। इधर अप्रत्याशित वर्षा ने न सिर्फ खेल के इंतजाम में पलीता लगा दिया है बल्कि कि देशभर में मुश्किल पैदा कर दी है। हालाकि जल प्रबंधन के मामले में डा¡. सिंह को दोषी करार नहीं दिया जा सकता क्योंकि यह बदहाली तो आजादी के बाद बनी हर सरकार की लापरवाही और भ्रष्टाचार का परिणाम है। जो हम एक तरफ तो जल संकट के लिए हाय तोबा मचाते हैं और दूसरी तरफ नदी परियोजनाओं पर खरबों रूपया खर्च करके भी वर्षा के जल का संचय नहीं कर पाते।

अपने ही दल के केन्द्रीय मंत्रीमंडल के मंत्रियों के बीच पारस्परिक छीटाकशी ने डा¡. सिंह बार-बार असहज स्थिति में डाला है। हालाँकि वाजपेयी सरकार के मंत्रिमंडल में हुए झगडों के मुकाबले यह कहीं बेहतर स्थिति हैण् पर दूसरी तरफ डा सिंह की सरकार की आर्थिक विकास की दर अपेक्षित 9 फीसदी के निकट ही रही है। जो डा¡. सिंह के लिए संतोष की बात होगी। हालाकि कई क्षेत्रों में अपेक्षित विकास का कोई संकेत नहीं मिल रहा। मसलन केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ का हर दिन 20 किमी0 राजमार्ग बनाने का दावा अधर में लटका है। क्योंकि उन्हें भारत के योजना आयोग व पर्यावरण मंत्रालय से अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा।

शिक्षा के क्षेत्र में भी मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने घोषणायें और कार्यक्रम तो बहुत से चालू किये हैं पर जमीनी हकीकत अभी नहीं बदली है। शिक्षा के अधिकार को मूल भूत अधिकार बनाने के बावजूद राज्य सरकारें ऐसी योजनाओं पर काम करने को तब तक तैयार नहीं है जब तब उन्हें केन्द्र पैसा न दे।

हालाकि प्रधानमंत्री ने अपने गृहमंत्री की पीठ थपथपाई है पर जनता का आंकलन यही है कि नक्सलवाद की समस्या को हल करने में पी चिदाम्बरम को कोई सफलता नहीं मिल पाई है। आये दिन नक्सलवादी युवा पुलिसकर्मियों की हत्या करके पुलिस फोर्स का मनोबल गिरा रहे हैं। हालाँकि आतंकवाद के मामले में डा सिंह की सरकार का रिकोर्ड बेहतर रहा है जबकि वाजपेयी सरकार के दौरान आतंकवादियों ने रघुनाथ मंदिर जम्मूए अक्षरधाम मंदिर गांधी नगर ही नहीं भारत की संसद तक पर खतरनाक हमले किये थेण्

डा¡. सिंह की भलमनसाहत के कायल लोग हैरान है कि वे कुछ जादुई करिश्मा क्यों नहीं दिखा पा रहे हैं। पर ऐसा नहीं है कि वे कुछ कर ही न पाये हों। हम उनकी आर्थिक या परमाणु नीति के समर्थक हों या न हों यह सच है कि 90 के दशक में अल्पमत की इंका सरकार के वित्तमंत्री के रूप में उन्होंने बड़ी होशियारी से भारत में आर्थिक उदारीकरण का रास्ता साफ किया था। इसी तरह अमरीका से परमाणु संधि के मामले में उन्होंने पूरी कड़ाई दिखाते हुए और वामपंथियों के भारी विरोध के बावजूद जो चाहा सो करवा लिया। फिर क्या वजह है कि वे अपने कार्यकाल में ठोस उपलब्धियां नहीं दिखा पा रहे हैं?

यह सब जानते हैं कि मौजूदा यूपीए सरकार की कमान दरअसल 10 जनपथ के हाथ है। पर हकीकत यह है कि हर मामले में सोनिया गांधी दखल नहीं देती। बहुत सारे ऐसे मामले हैं जिन्हें प्रधानमंत्री अपनी पहल पर देखते हैं। जिसमें उन्हें उनके द्वारा चुने गये सलाहकारों की टीम मदद करती है। ऐसी सभी क्षेत्रों में उनसे अपेक्षित कार्यकुशलता का प्रमाण न मिलना लोगों के मन में २kaका पैदा करता है।

आर्थिक उदारीकरण तो इन्होंने कर दिया पर भारत सरकार में व्याप्त लालफीताशाही में कोई कमी नहीं आई। डा¡. सिंह नेता न होकर एक सीईओ की तरह हैं, इसलिए उन्हें लालफीताशाही को खत्म करने की ठोस पहल करनी चाहिए। इसी तरह भ्रष्टाचार के मामले में वैसे तो कोई भी सरकार अपवाद नहीं रही, चाहे वह अटल बिहारी वाजपेयी की ही सरकार क्यों न हों, पर डा¡. सिंह की सरकार के मामले में जो भी विवाद सामने आये हैं उनसे निपटने में उन्होंने अपनी छवि के अनुरूप मुस्तैदी नहीं दिखाई, ऐसा क्यों?

जबसे डा¡. सिंह दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं लोग अक्सर सवाल पूछते हैं कि क्या उन्हें उनके कार्यकाल के बीच में ही हटाकर राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बना दिया जायेगा? इसका जवाब प्रधानमंत्री यह कह कर देते हैं कि वे युवाओं के आगे आने को खुद बढ़ावा देना चाहते हैं। राहुल गांधी भी इसका जवाब टाल जाते हैं। वे कहते हैं कि देश में एक प्रधानमंत्री है जो अच्छा काम करते हैं। अंदर की बात जानने वाले कुछ और ही कहते हैं। उनका कहना है कि राहुल गांधी इस सरकार की नैया मझधार में खेने को तैयार नहीं है। उन्हs डर है कि ऐसा करने से अगले लोकसभा चुनाव में उन्हें इस सरकार की नाकामयाबियों का बोझ ढोना पड़ेगा। जो उनकी अपेक्षित सफलता में पंक्चर कर सकता है। इसलिए वे अपना पूरा ध्यान पार्टी का युवा जनाधार बढ़ाने में लगा रहे हैं। ताकि एक लहर बना कर बड़ी सफलता के साथ चुनाव में जीते और अगली सरकार के प्रधानमंत्री का पद संभाले। इस दृष्टि से डा¡. सिंह के पास “ksष पूरा कार्यकाल है। यह बात वह भी जानते हैं। इसलिए उन्हें अपनी सरकार का आत्मविश्लेषण कर इसके तौर तरीके में ठोस सुधार करना चाहिए। अपने मंत्रियों को भी अपने-अपने मंत्रालय के लक्ष्य निधारित कर हर सप्ताह अपना रिपोर्ट कार्ड पेश करना चाहिए।

Sunday, September 5, 2010

श्रीनगर घाटी ही पूरा कश्मीर नहीं

पिछले हफ्ते कश्मीर पर लिखे हुए लेख की काफी प्रतिक्रियाऐं आयीं। चूंकि यह लेख देश के विभिन्न प्रांतों में विभिन्न भाषाओं में छपता है, इसलिए कश्मीर में लोकप्रिय उर्दू अखबार में इसे कश्मीर के बाशिन्दों ने दिलचस्पी से पढ़ा और इसमें कश्मीर समस्या के हल के लिए सुझाए गये रास्तों से इत्तेफाक जताया। पर उन्हें नाराजगी इस बात से थी कि सारा मीडिया कश्मीर के बारे में जो कुछ लिख रहा है या टीवी पर दिखा रहा है, वह केवल श्रीनगर घाटी के लोगों के बयानों और कारनामों पर आधारित है। उनका कहना था कि आप सब मीडिया वाले श्रीनगर के आगे नहीं जाते हो, इसलिए आपको आसपास के कस्बों, पहाड़ों और जंगलों में बसने वाले कश्मीरियों के ज़ज्बात का पता नहीं है। यह सही और रोचक और तथ्य था, जिसके लिए हम मीडियाकर्मी वाकई दोषी हैं। मैंने अनेक सम्पर्कों के माध्यम से कश्मीर के अलग-अलग हिस्सों में कुछ लोगों को फोन करके जब उनके ज़ज्बात जानने चाहे तो एक अलग ही तस्वीर नज़र आई।

कश्मीर में बड़ी तादाद गूजरों की है। ये गूजर श्रीनगर के आसपास के इलाकों से लेकर दूर तक पहाड़ों में रहते हैं और भेड़-बकरी चराते हैं। ऊन और दूध का कारोबार इनसे ही चलता है। कश्मीर में रहने वाले कश्मीरी गूजर और जम्मू के क्षेत्र में रहने वाले डोगरे गूजर कहलाते हैं। इनकी तादाद काफी ज्यादा है, लगभग 30 लाख। दोनों ही इलाकों के गूजर इस्लाम को मानने वाले हैं। पर रोचक बात यह है कि घाटी के अलगाववादी नेता हों या अन्य मुसलमान नेता, गूजरों को मुसलमान नहीं मानते। पिछले दिनों सैयद अली शाह गिलानी ने एक बयान भी इनके खिलाफ दिया था जिससे गूजर भड़क गये। बाद में गिलानी को यह कहकर सफाई देनी पड़ी कि मीडिया ने उनके बयान को गलत पेश किया। हकीकत यही है कि घाटी के मुसलमान गूजरों को हमनिवाला नहीं मानते। 1990 से आज तक आतंकवादियों द्वारा कश्मीर में जितने भी मुसलमानों की हत्या हुईं हैं, उनमें से अधिकतर गूजर रहे हैं। जम्मू और कश्मीर क्षेत्र के गूजर न तो आज़ादी के पक्ष में हैं और न ही पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाते हैं। वे भारत के साथ अमन और चैन के साथ रहने के हामी हैं। कड़क जाड़े में जब बर्फ की मोटी तह कश्मीर के पहाड़ों को ढक लेती है, तब ये गूजर नीचे मैदानों में चले आते हैं ताकि मवेशियों को चारा खिला सकें। इनका मैदान से छः महीने साल का नाता है। अलगाववादियों के जितने संगठन आज जम्मू कश्मीर में सक्रिय हैं और जिनके बयान आये दिन मीडिया में छाये रहते हैं, उन संगठनों में एक भी गूजर नेता नहीं है। इसी तरह कण्डी बैल्ट के जो लोग हैं, वो पहाड़ी बोलते हैं, कश्मीरी नहीं। उनका भी घाटी के अलगाववादियों से कोई नाता नहीं है। उरी, तंगधार और गुरेज़ जैसे इलाकों के रहने वाले मुसलमान घाटी के मुसलमानों से इफाक नहीं रखते। इन्हें भी भारत के साथ रहना ठीक लगता है।

यह तो जगजाहिर है कि उत्तरी कश्मीर का लेह लद्दाख का इलाका बुद्ध धर्मावलंबियों से भरा हुआ है और जम्मू का इलाका डोगरे ठाकुरों, ब्राह्मणों व अन्य जाति के हिन्दुओं से। ज़ाहिरन यह सब भी कश्मीर को भारत का अंग मानते हैं और भारत के साथ ही मिलकर रहना चाहते हैं। इन लोगों का कहना है कि अगर ईमानदारी से और पूरी मेहनत से सर्वेक्षण किया जाए तो यह साफ हो जायेगा कि अलगाववादी मानसिकता के लोग केवल श्रीनगर घाटी में हैं और मुट्ठीभर हैं। इनका दावा है कि आतंकवाद के नाम पर गुण्डे और मवालियों के सहारे जनता के मन में डर पैदा करके यह लोग पूरी दुनिया के मीडिया पर छाये हुए हैं। सब जगह इनके ही बयान छापे और दिखाये जाते हैं। इसलिए एक ऐसी तस्वीर सामने आती है मानो पूरा जम्मू-कश्मीर भारत के खिलाफ बगावत करने को तैयार है। जबकि असलियत बिल्कुल उल्टी है। ये सब लोग प्रशासनिक भ्रष्टाचार से नाराज हैं। कश्मीर की राजनीति में लगातार हावी रहे अब्दुल्ला परिवार और मुफ्ती परिवार को भी पसन्द नहीं करते और स्थानीय राजनीति को बढ़ावा देने के पक्षधर हैं। पर ये अलगाववादियों और आतंकवादियों के साथ कतई नहीं हैं।

कश्मीर के राजौरी क्षेत्र से राजस्थान आकर वहाँ के दौसा संसदीय क्षेत्र में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने वाले गूजर नेता कमर रब्बानी को इस चुनाव में तीन लाख वोट मिले। श्री रब्बानी का कहना है कि, ‘‘दौसा के गूजर, चाहे हिन्दु हों या मुसलमान, हमें अपना मानते हैं। इसीलिए मुझ जैसे कश्मीरी को उन्होंने तीन लाख वोट दिए। हम बाकी हिन्दुस्तान के गूजरों के साथ हैं, घाटी के अलगाववादियों के साथ नहीं।’’

कश्मीर के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से बात करने पर एक सुझाव यह भी सामने आया कि अगर केन्द्र सरकार कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू कर दे और छः महीने बढि़या शासन करने के बाद फिर चुनाव करवाए तब उसे ज़मीनी हकीकत का पता चलेगा। हाँ उसे इस लोभ से बचना होगा कि वो अपना हाथ नेशनल कांफ्रेस या पी.डी.पी. जैसे किसी भी दल की पीठ पर न रखे। घाटी के हर इलाके के लोगों को अपनी मर्जी का और अपने इलाके का नेता चुनने की खुली आज़ादी हो। वोट बेखौफ डालने का इंतजाम हो। तो कश्मीर में एक अलग ही निज़ाम कायम होगा।

Sunday, August 29, 2010

क्या हो कश्मीर का हल ?

हाल ही में जो भी कश्मीर की घाटी से होकर लौटा है, उसका कहना है कि हालात बहुत नाज़ुक हैं। उमर अब्दुल्ला की मौजूदा सरकार उनसे निपटने में अक्षम है। लगातार पुलिस और सेना की मौजूदगी से घाटी के लोग आजि़ज आ गये हैं। उन्हें लगता है कि भारत की लोकतांत्रिक, सम्प्रभुता सम्पन्न सरकार ने उनके साथ किया गया अपना वायदा नहीं निभाया। कश्मीर 15 अगस्त 1947 को भारत का अंग नहीं था। कई महीने बाद कबीलाई हमलों से घबराकर कश्मीर के राजा हरी सिंह ने भारत के साथ एक समझौता किया जिसके तहत कश्मीर को विशेष दर्जा देते हुए भारतीय गणराज्य में शामिल कर लिया गया। इस समझौते के तहत कश्मीर को गृह, विदेश, संचार और रक्षा जैसे मामले छोड़कर बाकी में स्वायता दे दी गयी थी। पर बाद के वर्षों में धीरे-धीरे उसकी यह स्वायता समाप्त कर दी गयी। जिससे घाटी की राजनीति में एक ऐसी अस्थिरता पैदा हुई जो आज तक थम नहीं पायी।

उल्लेखनीय है कि कश्मीर के संदर्भ में संविधान की धारा 370 समाप्त करने की जो मांग जनसंघ या बाद में भाजपा उठाती रही है, उसने हमेशा घाटी के लोगों को उत्तेजित किया है। यह उस समझौते के खिलाफ है जो विलय के समय किया गया था। कानून का सम्मान करने वाले राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी में ऐसे समझौतों को तोड़ा नहीं करते। वैसे भी धारा 370 समाप्त करने की बजाय अगर विलय के समझौते की शर्तों को पूरा सम्मान दिया जाये तो भी कश्मीर भारत का ही अंग रहता है। जिसका अर्थ यह हुआ कि पाकिस्तान का कश्मीर पर कोई भी कानूनी हक न कभी था, न आज है और न होगा। कश्मीर के जिस हिस्से को पाकिस्तान ने फिलहाल दबा रखा है, उसे पाकिस्तान का हिस्सा नहीं माना जाता, बल्कि पाक अधिकृत कश्मीरमाना जाता है। पाकिस्तान, कश्मीर, भारत और पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) ब्रिटिश संसद के जिस कानून से बने थे, उस कानून की अगर अवमानना करके पाकिस्तान कश्मीर पर किसी भी तरह का दावा कहीं भी पेश करता है तो इसका मतलब यह हुआ कि उस कानून में पाकिस्तान की आस्था नहीं है। इसका मतलब यह भी हुआ कि दक्षिणी एशिया के इन देशों की आजादी के लिए जो कानून बना था, वो पाकिस्तान को स्वीकार्य नहीं है। उल्लेखनीय है कि ऐसा करने पर पाकिस्तान का वज़ूद ही समाप्त हो जाता है। क्योंकि यह कानून ही है जिसने पाकिस्तान को एक स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा दिया, वरना तो वह भारत का अंग था।

पूर्व केन्द्रीय मंत्री कमल मोरारका का कहना है कि भाजपा जैसे भारत के कुछ राजनैतिक दल गलत मुद्दे उछाल कर कश्मीर के मामले में भारत का पक्ष कमजोर करते रहे हैं। दूसरी तरफ घाटी के कांग्रेसी नेता अपने स्वार्थों के लिए दिल्ली दरबार को बरगला कर अपनी रोटियाँ सेंकते रहे हैं। इनका मानना है कि अगर घाटी से कांग्रेस व भाजपा जैसे दल अपनी सियासती शतरंज के मोहरे उठा लें और घाटी के लोगों को अपने ही राजनैतिक दलों के बीच चुनाव करने के लिए छोड़ दें, तो वे ज्यादा आज़ाद महसूस करेंगे। क्योंकि तब उनकी राजनीति शेष भारत की राजनीति से प्रभावित नहीं होगी। इससे मनोवैज्ञानिक रूप से भी अपने राज्य के विशेष दर्जे की हैसियत का अहसास होता रहेगा। इसके साथ ही भारत के सभी राजनैतिक दल यह करें कि पूरी दुनिया के हर मंच पर एकजुट होकर एक ही आवाज उठाऐं कि कश्मीर व भारत के बीच हुए द्विपक्षीय समक्षौते का पूरी दुनिया सम्मान करे और पाकिस्तान को मजबूर करे कि वह कश्मीर का जबरन कब्जाया हिस्सा खाली करके वहाँ से निकल जाये। उल्लेखनीय है कि जहाँ भारत ने कश्मीर के साथ 1948 में हुए करार का सम्मान करते हुए आज तक कश्मीर में भारतीयों को अचल सम्पत्ति खरीदने की इज़ाज़त नहीं दी, जबकि कश्मीरियों को भारत में कहीं भी सम्पत्ति खरीदने की इज़ाज़त है, वहीं पाकिस्तान ने अधिकृत कश्मीर में जबरन सम्पत्तियाँ खरीदवाकर पंजाबियों को भारी मात्रा में बसा दिया है और स्थानीय जनता को डरा-धमकाकर कश्मीर के उस हिस्से का सामाजिक तानाबाना ही तार-तार कर दिया है। साफ ज़ाहिर है कि कश्मीर के आवाम के साथ झूठी हमदर्दी दिखाने वाला पाकिस्तान ही उनका असली दुश्मन है। इसलिए कश्मीर से उसे निकाले जाने के लिए पूरी दुनिया में दबाव बनाना चाहिए। अगर वह न माने तो न सिर्फ पाकिस्तान की सार्वजनिक भत्र्सना की जाये बल्कि उसको संयुक्त राष्ट्र से निकालने की भी धमकी दी जाये और उसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर कड़े प्रतिबंध लगाये जायें। आर्थिक तंगी, आतंकवाद, भ्रष्ट सेना, नाकारा सिविल प्रशासन और क्षेत्रीय गुटवाद से ग्रस्त पाकिस्तान की औकात नहीं है कि वो ऐसे दबावों को झेल पाये। जो पाकिस्तान अपने देश की दो करोड़ बाढ़ग्रस्त जनता को रसद तक नहीं पहुँचा सकता, वो ऐसे प्रतिबंधों के आगे कितने दिन ठहर पायेगा ?

इस तरह कश्मीर से पाकिस्तान का हटना और भारत के मुख्य राजनैतिक दलों का घाटी की राजनीति से अपने को समेटना, घाटी के लोगों में एक नये उत्साह का संचार करेगा और तब वे अपने क्षेत्र के विकास और राजनैतिक व्यवस्था के बारे में खुद निर्णय लेने में सक्षम होंगे। यह सही है कि घाटी के कट्टरपंथियों के चलते वहाँ से हिन्दुओं का जो जबरन पलायन हुआ उसको लेकर यह आशंका उठ सकती है कि ऐसी स्थिति में जम्मू कश्मीर रियासत के अल्पसंख्यकों का क्या हाल होगा जिनमें हिन्दु, बौद्ध, सिक्ख और ईसाई शामिल हैं। तो उसके बारे में रियासत की सरकार पर मानवाधिकार के दायरे में काम करने के लिए दबाव बनाया जा सकता है। यह दबाव जम्मू और लद्दाख की जनता भी बनायेगी, मीडिया भी और शेष भारत के लोग भी।

यह ऐसी सोच है जो देश में बहुत से लोगों को नाराज कर सकती है। वे इन विचारों को भारत विरोधी भी मान सकते हैं। पर कश्मीर के आज जो हालात हैं, उनसे निपटने का दूसरा क्या उपाय है? वैसे भी कश्मीर के वरिष्ठ नेता फारूख अब्दुल्ला का ताज़ा बयान भी यही कहता है कि कश्मीर का भविष्य और नियति भारत के साथ सुरक्षित है। हमें ‘‘आजादी नहीं स्वायता’’ चाहिए। हाँ एक उपाय और है कि फौज और पुलिस को गोली चलाने की खुली छूट दे दी जाये और हर सिर उठाने वाले का सिर कुचल कर दिया जाये। पर ऐसा तानाशाह सरकारों के अधीन या कट्टरपंथी देशों में तो हो सकता है, लोकतंत्र में सम्भव नहीं।

Sunday, August 22, 2010

‘पीपली लाइव’ ने खोली टी.वी. चैनलों की पोल

किरण राव और आमिर खान की नई फिल्म पीपली लाइवने टी.वी. समाचार चैनलों का बाजा बजा दिया। पूरी फिल्म में इन चैनलों की रिपोर्टिंग को लेकर जो भी दिखाया गया, वह दर्शकों को हंसाने के लिए काफी था। इनपुट एडिटर हो या एंकर पर्सन, रिपोर्टर हो या कैमरामैन, सबके सब इस फिल्म में विदूषक नजर आ रहे थे। मजे की बात ये कि फिल्म के शुरू में रस्म अदायगी की घोषणा, ‘इस फिल्म में सभी पात्र काल्पनिक हैं...के बावजूद यह साफ देखा जा सकता था कि भारत में चल रहे कौन से टी.वी. समाचार चैनलों और उनके कौन से सितारा एंकर पर्सनों का मजाक उड़ाया जा रहा है। ऐसा नहीं कि का¡मेडी शो की तरह अकारण फूहड़ वक्तव्यों से लोगों को हंसाने की कोशिश की गयी हो। जो कुछ दिखाया गया वह बिल्कुल वही था जो हम हर दिन, हर घंटे टी.वी.समाचार चैनलों पर देखते हैं। अन्तर केवल इतना था कि जो दिखाया जाता है, उसके आगे-पीछे की गतिविधि भी दिखा देने से समाचार संकलन की वर्तमान दुर्दशा का खुला प्रदर्शन हो गया। यह सब कुछ इतने सामान्य और सहज रूप में प्रस्तुत किया गया कि कहीं भी निर्माताओं पर आरोप नहीं लगाये जा सकता। फिर भी दर्शक हंसी के मारे लोट-पोट हो रहे थे। इस दृष्टि से यह फिल्म बहुत सशक्त है जिसे समाचार चैनलों को गम्भीरता से लेना चाहिए।

पिछले हफ्ते ही दिल्ली के इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर में फाउण्डेशन फा¡र मीडिया प्रोफेशनल्स ने एक जोरदार बहस आयोजित की, जिसमें प्रिंट और टी.वी. के नामी चेहरे मौजूद थे। विषय था, सरकार का प्रस्तावित प्रसारण नियन्त्रक विधेयक। जहा¡ अधिकतर पत्रकारों ने सरकार की तीखी आलोचना की और ऐसे किसी भी कानून का विरोध किया जो समाचार प्रसारण की आजादी पर बंदिश लगाता हो, वहीं पत्रकारों में से ही अनेकों ने साफगोई से माना कि आज टी.वी. समाचारों का स्तर इतना गिर गया है और उसमें इतना छिछलापन आ गया है कि जनता का विश्वास इन चैनलों से उठता जा रहा है। चुनावों में एक दल द्वारा मोटे पैसे देकर टी.वी.चैनल का रूख अपने पक्ष में करवाना आम बात हो गयी है। व्यवसायिक प्रतिष्ठान भी विज्ञापन की तरह पैसा देकर अपने पक्ष में समाचार लगवा लेते हैं। चैनलों के सिरमौरों ने टी.आर.पी. का रोना रोया, तो श्रोता पत्रकारों ने टी.आर.पी. की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े किये। कुल मिलाकर यह साफ है कि सरकार कानून लाये या न लाये, टी.वी. चैनलों का मौजूदा रवैया जनता को स्वीकार्य नहीं है। खासकर समझदार जनता को। इसलिए इन चैनलों को साझे मंथन से अपने लिये मानदण्ड निर्धारित करने चाहिएं और उन पर अमल करने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए। वरना अभी तो पीपली लाइवजैसी फिल्मों और लाफ्टर शोमें ही टी.वी. समाचारों का मजाक उड़ रहा है, पर वह दिन दूर नहीं जब आम जनता भी इन चैनलों को लाफ्टर चैनल से ज्यादा कुछ नहीं समझेगी। टी.वी. जैसे सशक्त माध्यम के लिए यह आत्महत्या से कम न होगा।

पीपली लाइवमें दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा कर्जे में डूबे किसानों की आत्महत्या का उठाया गया। फिल्म के रिव्यू पढ़ने से जिन्हें लगता था कि यह फिल्म उबाऊ होगी या मदर इण्डियासरीखी आंसू बहाने वाली, उन्हें यह सुःखद अनुभव हुआ कि फिल्म काफी रोचक और मनोरंजक थी। किरण राव ने बड़ी खूबसूरती से देश की भयावह गरीबी और उससे जूझते एक लाचार परिवार की ह्रदय विदारक दास्तान को एक हल्की-फुल्की पेशकश से बेहद रोचक बना दिया। यहाँ तक कि फिल्म के पर्दे पर विषाद के क्षणों में भी दर्शक हँस रहे थे। इसका अर्थ यह नहीं कि निर्माताओं ने इतने संवेदनशील मुद्दे का मजाक उड़ाया है, बल्कि खासियत यह है कि गम्भीर बात इतनी सहजता से कही गयी कि दर्शकों के चेहरे पर हंसी और आंख में आंसू साथ-साथ झलक रहे थे। जिसके लिये किरण राव और आमिर खान व उनकी टीम बधाई की पात्र है। पिछले कुछ वर्षों में आमिर खान ने एक के बाद एक गम्भीर मुद्दों पर रोचक फिल्में बनाकर देश का ध्यान कुछ बुनियादी सवालों पर आकर्षित किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अपने शेष लम्बे जीवन में आमिर खान देशवासियों को इसी तरह सोचने पर मजबूर करने वाली किंतु रोचक फिल्में देते रहेंगे।

यहाँ यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि देश के मौजूदा माहौल में एक तरफ हमारे समाचार टी.वी.चैनल हैं, जो टी.आर.पी. का बहाना लेकर कचड़ा परोसने में लगे हुये हैं और दूसरी ओर हैं आमिर खान जैसे फिल्म निर्माता हैं जिन्होंने खुदी को इतना बुलंद किया है कि खुदा उनसे उनकी रज़ा पूछता है। यानि वे टी.आर.पी. की परवाह नहीं करते, अपनी बात जोरदारी से कहते हैं और फिर इंतजार करते हैं लोगों की प्रतिक्रिया का। जो अब तक उनके हक में गयी है। चाहे लगानहो, ‘तारे जमीन परहो या थ्री इडियटस्हो। साफ जाहिर है कि भारत की जनता इतनी मूर्ख नहीं कि समाचार चैनलों पर कचड़ा कार्यक्रम देखना चाहती हो। अगर उसे देश के गम्भीर सवालों पर सोचने को मजबूर करने वाले कार्यक्रम आमिर खान की तरह रोचक शैली में प्रस्तुत किये जायें तो टी.वी.चैनलों को टी.आर.पी. की चिंता नहीं करनी पड़ेगी। पर उसके लिए शोध, विषय चयन और प्रस्तुति में गम्भीरता, अनुभव, ज्ञान, और धैर्य की जरूरत पड़ेगी, जिसका शायद आज हमारे टी.वी. संवाददाताओं व निर्माताओं के पास काफी टोटा है।

Sunday, August 15, 2010

हम कब सुधरेंगे ?

स्वतंत्रता दिवस पर शहीदों को नमन कर, देश की दुर्दशा पर श्मशान वैराग्य दिखा कर, देश वासियों को लंबे-चौड़े वायदों की सौगात देकर देश का भला नहीं हो सकता। सुजलाम्, सुफलाम्, शस्यश्यामलाम्, भारतभूमि  में किसी चीज की कमी नहीं है। षट् ऋतुएं, उपजाऊ भूमि, सूर्य, चन्द्र, वरूण की असीम कृपा, रत्नगर्भा भूमि, सनातन संस्कृति, कड़ी मेहनत कर सादा जीवन जीने वाले भारतवासी, तकनीकी और प्रबंधकीय योग्यताओं से सुसज्जित युवाओं की एक लंबी फौज, उद्यमशीलता और कुछ कर गुजरने की ललक, क्या यह सब किसी देश को ऊंचाईयों तक ले जाने के लिए काफी नहंh है?

फिर क्या वजह है कि खिलाडि़यों पर खर्चा करने की बजाय खेल के खर्चीले आयोजनों पर अरबों रूपया बर्बाद किया जाता है? कुछ हजार रुपये का कर्जा लेने वाले किसान आत्म हत्या करते हैं और लाखों करोड़ रुपये का बैंकों का कर्जा हड़पने वाले उद्योगपति ऐश। आधी जनता भूखे पेट सोती है और एफसीआई के गोदामों में करोड़ों टन अनाज सड़ता है। विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया भी भ्रष्टाचार का नंगा नाच दिखा रहे हैं। नतीजतन आतंकवाद और नक्सलवाद चरम सीमा पर पहुंचता जा रहा है। सरकार के पास विकास के लिए धन की कमी नहीं है। पर धन का सदुपयोग कर विकास के कामों को ईमानदारी से करने वाले लोग व संस्थाये ंतो पैसे-पैसे के लिए धक्के खाते हैं और नकली योजनाओं पर अरबों रुपया डकारने वाले सरकार का धन बिना किसी रुकावट के खींच ले जाते हैं। ऐसे में स्वतंत्रता दिवस का क्या अर्थ लिया जाए? यही न कि हमने आजादी के नाम पर गोरे साहबों को धक्का देकर काले साहबों को बिठा दिया। पर काले साहब तो लूट के मामले में गोरों के भी बाप निकले। स्विटजरलैंड के बैंकों में सबसे ज्यादा काला धन जमा करने वालों में भारत काफी आगे है।

इसलिए जरूरत है हमारी सोच में बुनियादी परिवर्तन की। सब चलता है और ऐसे ही चलेगा कहने वाले इस लूट में शामिल हैं। जज्बा तो यह होना चाहिए कि देश सुधरेगा क्यों नहीं? हम ऐसे ही चलने नहीं देंगे। अब सूचना क्रांति का जमाना है। हर नागरिक को सरकार के हर कदम को जांचने परखने का हक है। इस हथियार का इस्तेमाल पूरी ताकत से करना चाहिए। सरकार में जो लोग बैठे हैं उन्हें भी अपने रवैये को बदलने की जरूरत है। एक मंत्री या मुख्यमंत्री रात के अंधेरे में मोटा पैसा खाकर उद्योगपतियों के गैर कानूनी काम करने में तो एक मिनट की देर नहीं लगाता। पर यह जानते हुए भी कि फलां व्यक्ति या संस्था राज्य के बेकार पड़े संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल कर सकती है, उसके साथ वही तत्परता नहीं दिखाता। आखिर क्यों? जब तक हम सही और अच्छे को बढ़ावा नहीं देंगे, उसका साथ नहीं देंगे, उसके लिए आलोचना भी सहने से नहीं डरेंगे तब तक कुछ नहीं बदलेगा। नारे बहुत दिये जायेंगे पर परिणाम केवल कागजों तक सीमित रह जायेंगे। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अगर अपने अधिकारियों के विरोध की परवाह करते हुए पांचवें दशक में आणंद (गुजरात) में वर्गीज कुरियन को खुली छूट न दी होती तो अमूल जैसा हजारों करोड़ का साम्राज्य कैसे खड़ा होता?

आम आदमी के लिए रोजगार का सृजन करना हो या देश की गरीबी दूर करना हो, सरकार की नीतियों में बुनियादी बदलाव लाना होगा। केवल आंकड़े ही नहीं साक्षात परिणाम देखकर भी नीति बननी चाहिए। खोजी पत्रकारिता के तीन दशक के अनुभव यही रहे कि बड़े से बड़ा भ्रष्टाचार बड़ी बेशर्मी से कर दिया जाता है। पर सच्चाई और अच्छाई का डटकर साथ देने की हिम्मत हमारे राजनेताओं में नहीं है। इसीलिए देश का सही विकास नहीं हो रहा। खाई बढ़ रही है। हताशा बढ़ रही है। हिंसा बढ़ रही है। पर नेता चारों ओर लगी आग देखकर भी कबूतर की तरह आंखे बंद किये बैठें हैं। इसलिए फिर से समाज के मध्यम वर्ग को समाज के हित में सक्रिय होना होगा। मशाल लेकर खड़ा होना होगा। टीवी सीरियलों और उपभोक्तावाद के चंगुल से बाहर निकल कर अपने इर्द-गिर्द की बदहाली पर निगाह डालनी होगी। ताकि हमारा खून खौले और हम बेहतर बदलाव के निमित्त बन सके। विनाश के मूक दृष्टा नहीं। तब ही हम सही मायने में आजाद हो पायेंगे। फिलहाल तो उन्हीं अंग्रेजों के गुलाम हैं जिनसे आजादी हासिल करने का मुगालता लिये बैठे हैं। हमारे दिमागों पर उन्हीं का कब्जा है। जो घटने की बजाय बढ़ता जा रहा है।

यह बातें या तो शेखचिल्ली के ख्वाब जैसी लगतीं हैं या किसी संत का उपदेश। पर ऐसा नहीं है। इन्हीं हालातों में बहुत कुछ किया जा सकता है। देश के हजारों लाखों लोग रात दिन निष्काम भाव से समाज के हित में समर्पित जीवन जी रहे हैं। हम इतना त्याग ना भी करें तो भी इतना तो कर ही सकते हैं कि अपने इर्द-गिर्द की गंदगी को साफ करने की ईमानदार कोशिश करें। चाहे वह गंदगी हमारे दिमागों में हो, हमारे परिवेश में हो या हमारे समाज में हो। हम नहh कोशिश करेंगे तो दूसरा कौन आकर हमारा देश सुधारेगा?