Sunday, March 27, 2011

संसद में असली बहस तो हुयी नहीं !

Rajasthan Patrika 27 Mar 11
विकिलीक्स के बाद देश की राजनीति में आये भूचाल का सीधा असर यह हुआ कि संसद में इस पूरे मुद्दे पर काफी तीखी और लम्बी बहस छिड़ गयी। जिसकी अन्तिम परिणति प्रधानमंत्री के बयान से हुयी। पर इस पूरी बहस में असली मुद्दा कहीं खो गया। जिस पर अब भी बहस होनी चाहिए। संसद न करे तो देश के मीडिया और जनता को करनी चाहिए। असली मुद्दा है, विकिलीक्स का वह अंश जिसमें उसने यह खुलासा किया है कि अमरीका के राज़दूत भारत सरकार के मंत्रियों से मिलकर सरकार की खैर-खबर लेते रहे और किस व्यक्ति को कौन सा पद दिया जाए, इसकी भी चर्चा करते रहे। मसलन यह बात साफ हुयी है कि अमरीका चाहता था कि मोंटेक सिंह आहलूवालिया को भारत का विŸामंत्री बनाया जाये।

यह बहुत चिंता की बात है। यह देश की अस्मिता और 110 करोड़ लोगों के जीवन से जुड़ा सवाल है। क्या हमारी सरकार का चाल-चलन, उसकी नीतियाँ और उसमें कौन, कहाँ बैठे, इसका फैसला व्हाइट हाउस में बैठने वाले करते हैं? इसका मतलब तो यह हुआ कि अपनी सरकारें जिनके द्वारा चुनी जाती हैं, उनके हित नहीं साधतीं, बल्कि अमरीकी हितों को ध्यान में रखकर बनायी और चलायी जाती हैं। जो ज़ाहिरन देशवासियों के हित से मेल नहीं खाते। वैसे यह कोई नई बात नहीं है। खेसरी दाल पर प्रतिबन्ध लगाने का मामला हो या भारत की दवा नीति बनाने का, परमाणु नीति बनाने का मामला हो या रक्षा नीति, सबमें अमरीकी दखल या उससे पहले रूसी दखल रहा है। यह बात वे सब जानते हैं जो सŸाा में रहे हैं या सŸाा के नज़दीक रहे हैं। चाहें वे राजनेता हों, अफसर हों या मीडियाकर्मी भी हों। जिस देश में 80 फीसदी लोग प्रदूषित पेयजल के कारण बीमार पड़ते हों, उस देश में एड्स जैसी निरर्थक बीमारी पर सरकार का इतना ध्यान देना दर्शाता है कि जीवन के हर क्षेत्र में देशवासियों का हित ताक पर रखकर अमरीका या बहुराष्ट्रिय कम्पनियों के हित साधे जा रहे हैं।

Punjab Kesari 28.03.11
यह बात अगर विकिलीक्स के खुलासे तक ही सीमित रहती तो इसकी सच्चाई को लेकर संशय बना रहता। पर ऐसा नहीं हुआ। विपक्ष के हमले का जबाव देते हुए भारत सरकार के संसदीय कार्यमंत्री पवन बंसल ने, जो कि काँग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में बोले, साफ कहा कि विदेशी राजदूतों का काम अपनी तैनाती वाले देश में सूचना एकत्रित करना होता है। पर बंसल जी इस बात का स्पष्टीकरण नहीं दे पाये कि राजदूत के साथ मंत्रियो ंकी मुलाकात और उसमें सरकार की कार्यविधि और नीतियों की चर्चा करना कूटनीतिज्ञ गुप्तचरी के दायरे में कैसे आता है? यह तो सीधा-सीधा सरकारी कामकाज में बाहरी दखलअंदाजी का मामला बनता है। जिसके लिए ऐसे राजदूतों से मिलकर इस तरह की चर्चाऐं करने वाले सभी मंत्री दोषी हैं। सही मायने में तो ऐसा आचरण देशद्रोह की श्रेणी में आता है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के दौरान बंगाल में इस तरह का आचरण करने वाले मीरज़ाफर को इतिहास ने कभी माफ नहीं किया।

रोचक बात यह है कि पवन बंसल जहाँ सफाई देते-देते अपने ही जाल में फंस गये, वहीं किसी को अहसास भी नहीं हुआ कि विपक्ष भी अनजाने में ही ऐसी भूल कर बैठा। विपक्ष की तरफ से बोलते हुए भाजपा के वरिष्ठ नेता डाॅ. मुरली मनोहर जोशी ने यह स्वीकारा कि भारत की ‘सरकारों’ पर अमरीकी प्रभाव रहा है। यह महत्वपूर्ण बात है। विपक्ष के हमले का निशाना यू.पी.ए. की वर्तमान सरकार है। पर डाॅ. जोशी ने ‘सरकार’ न कहकर ‘सरकारों’ कहा। जिसका साफ मतलब है कि एन.डी.ए. की सरकार भी अमरीकी प्रभाव से अछूती नहीं रही। अगर यह बात है तो अब सŸाापक्ष को विपक्ष पर हावी हो जाना चाहिए और डाॅ. जोशी से पूछना चाहिए कि एन.डी.ए. की सरकार किस तरह से अमरीकी प्रभाव में थी? ऐसी कौन सी नियुक्तियाँ और फैसले थे जो वाजपेयी सरकार ने अमरीकी दबाव में लिये? क्योंकि तभी यह साफ होगा कि अमरीका का भारत पर कितना और कैसा दबदबा बन चुका है।

Jag Baani 28.03.11
डाॅ. जोशी को ईमानदारी और साफगोई से इन तथ्यों को देश की संसद, लोगों और मीडिया के सामने रखना चाहिए। जहाँ इस सारी बहस से यह सिद्ध हो जाऐगा कि संसद में वोट खरीदने का मामला कहीं कम गंभीर मुद्दा है, बमुकाबले इस बात के कि हमारी सरकारें ही अमरीका के हाथ बिकी हुयी हैं। मतलब ये कि पिछले हफ्ते संसद में जो हंगामा मचा और जनता के पैसे की बर्बादी हुयी उसका कोई लाभ देश को नहीं मिला। सांसदों और विधायकों की खरीद-फरोख्त कर सरकार बनाने और बिगाड़ने में देश का कोई प्रमुख दल कभी पीछे नहीं रहा। यह बात हर राजनैतिक व्यक्ति जानता है। रिश्वत के प्रमाण अक्सर मिला नहीं करते क्योंकि रिश्वत या सांसदों और विधायकों की खरीद रजिस्ट्रार कार्यालय में जाकर स्टाम्प पेपर के ऊपर रजिस्ट्री करवाकर नहीं होती। यह सौदे तो पर्यटक सैरगाहों, उद्योगपतियों के ड्राईंगरूमों, सŸाा के दलालों के फार्म हाउसों और पाँच सितारा होटलों के कमरों में छिपकर किये जाते हैं। इसलिए जो असली मुद्दा बहस का होना चाहिए था, वो यह कि आखिर हमारी ‘सरकारें’ अमरीका के आगे किस सीमा तक घुटने टेक चुकी हैं? देखना होगा कि आने वाले दिनों में देश में कितने महत्वपूर्ण लोग इस मुद्दे को उठाने की हिम्मत दिखाते हैं?

Tuesday, March 22, 2011

ऐसे साफ़ नहीं होगी यमुना

Amar Ujala 22March11
यमुना शुद्धि की माँग को लेकर पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जनभावनाऐं प्रबल होती जा रही हैं। इसमें महत्वपूर्ण भूमिका मीडिया ने निभायी है। जिसने यमुना शुद्धि का माहौल बनाना शुरू कर दिया है। यह एक शुभ संकेत है। पर क्या मात्र इतने से हम यमुना शुद्ध कर पायेंगे? इस पर गहरायी से सोचने की जरूरत है। अखबार में फोटो छपवाने या टी.वी. पर बयान देने के लिए यमुना शुद्धि का संकल्प लेने वालों की एक लम्बी जमात है। पर इनमें से कितने लोग ऐसे हैं जिनके पास यमुना की गन्दगी के कारणों का सम्पूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन उपलब्ध है? कितने लोग ऐसे हैं जिन्होंने दिल्ली से लेकर इलाहाबाद तक यमुना के किनारे पड़ने वाले शहरों के सीवर और साॅलिड वेस्ट के आकार, प्रकार, सृजन व उत्सृजन का अध्ययन कर यह जानने की कोशिश की है कि इन शहरों की यह गन्दगी कितनी है और अगर इसे यमुना में गिरने से रोकना है तो इन शहरों में उसके लिए क्या आवश्यक आधारभूत ढाँचा, मानवीय व वित्तीय संसाधन उपलब्ध हैं? हम मथुरा के ध्रुव टीले के नाले पर बोरी रखकर उसे रोकने का प्रयास करें और उस नाले में आने वाले गन्दे पानी को ट्रीट करने या डाइवर्ट करने की कोई व्यवस्था न करें तो यह केवल नाटक बनकर रह जायेगा। ठीक उसी तरह जिस तरह कि यमुना के किनारे खड़े होकर संत समाज यमुना शुद्धि का संकल्प तो ले पर उन्हीं के आश्रम में भण्डारों में नित्य प्रयोग होने वाली प्लास्टिक की बोतलें, गिलास, लिफाफे, थर्माकाॅल की प्लेटें या दूसरे कूड़े को रोकने की कोई व्यवस्था ये संत न करें। रोकने के लिए जरूरी होगा मानसिकता में बदलाव। डिटर्जेंट से कपड़े धोकर और डिटर्जेंट से बर्तन धोकर हम यमुना शुद्धि की बात नहीं कर सकते। कितने लोग यमुना के प्रदूषण को ध्यान में रखकर अपनी दिनचर्या में और अपनी जीवनशैली में बुनियादी बदलाव करने को तैयार हैं?

राधारानी ब्रज 84 कोस यात्रा के दौरान हमने अनेक बार यमुना को पैदल पार किया है और यह देखकर कलेजा मुँह को आ गया कि यमुना तल में एक मीटर से भी अधिक मोटी तह पाॅलीथिन, टूथपेस्ट, साबुन के रैपर, टूथब्रश, रबड़ की टूटी चप्पलें, खाद्यान्न के पैकिंग बाॅक्स, खैनी के पाउच जैसे उन सामानों से भरी पड़ी है, जिनका उपयोग यमुना के किनारे रहने वाला हर आदमी कर रहा है। जितना बड़ा आदमी या जितना बड़ा आश्रम या जितना बड़ा गैस्ट हाउस या जितना बड़ा कारखाना, उतना ही यमुना में ज्यादा उत्सर्जन।

नदी प्रदूषण के मामले में प्रधानमंत्री के सलाहकार मण्डल के सदस्यों से बात की और जानना चाहा कि यमुना शुद्धि के लिए उनके पास लागू किये जाने योग्य एक्शन प्लान क्या है? उत्तर मिला कि देश के सात आई.आई.टी.यों को मिलाकर एक संगठन बनाया गया है, जो अब इसकी डी.पी.आर. तैयार करेगा और फिर उस डी.पी.आर. को लेकर हम भारत सरकार के मंत्रालय के पास जायेंगे और दबाब डालकर उसको लागू करवायेंगे। यह पूरी प्रक्रिया ही हास्यास्पद और शेखचिल्ली वाली है। भारत सरकार के मंत्रालय गत् 63 वर्षों से ऐसी समस्याओं के हल के लिए अरबों रूपया वेतन में ले चुके हैं और खरबों रूपया जमीन पर खर्च कर चुके हैं। फिर वो चाहे शहरों का प्रबन्धन हो या नदियों का। नतीजा हमारे सामने है। यमुना सहनशीलता से एक करोड़गुना ज्यादा प्रदूषित होकर एक मृत नदी घोषित हो चुकी है। यह सही है कि आस्थावानों के लिए वह यम की बहन, भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी और हम सबकी माँ सदृश्य है, पर क्या हम नहीं जानते कि समस्याओं का कारण सरकारी लालफीताशाही, भ्रष्टाचार और अविवेकपूर्ण नीति निर्माण ही है। इसलिए यमुना प्रदूषण की समस्या का हल सरकार नहीं कर पायेगी। उसने तो राजीव गांधी के समय में यमुना की शुद्धि पर सैंकड़ों करोड़ रूपया खर्च किया ही था, पर नतीजा रहा वही ढाक के तीन पात।

इसलिए यमुना शुद्धि की पहल तो लोगों को करनी होगी। जिसके लिए चार स्तर पर काम करने की जरूरत है। हर शहर में ब्राह्मण बुद्धि वाले कुछ लोग साथ बैठकर अपने शहर की गन्दगी को मैनेज करने का वैज्ञानिक और लागू किये जाने योग्य माॅडल विकसित करें। उसी शहर के क्षत्रिय बुद्धि वाले लोग युवाशक्ति को जोड़कर इस माॅडल को लागू करने में अपने बाहुबल का प्रयोग करें। वैश्य वृत्ति के लोग इस माॅडल के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक धनराशि संग्रह करने या सरकार से निकलवाने का काम करें और यमुना जी के प्रति श्रद्धा एवं आस्था रखने वाले आम लोग जनान्दोलन के माध्यम से चेतना फैलाने का काम करें।

भगवान ने जो चारों वर्णों की सृष्टि की, वो जन्म आधारित नहीं, कर्म आधारित है। इसलिए यमुना शुद्धि के लिए भी चारों वर्णों का सहयोग अपेक्षित है। कोई किसी से कम नहीं। चाहे वह शूद्र स्तर का कार्य ही क्यों न हो। पर साथ ही हमें यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यमुना को लेकर जो प्रयास अभी किये जा रहे हैं, वह ब्राह्मण स्तर के नहीं। इसलिए इनके सफल होने में संदेह है।

दो वर्ष पहले दिल्ली के एक बहुत बड़े अनाज निर्यातक मुझे पश्चिमी दिल्ली के अपने हजारों एकड़ के खेतों में ले गये। जहाँ बड़े वृक्षों वाले बगीचे भी थे। अचानक मेरे कानों में बहते जल की कल-कल ध्वनि पड़ी। तो मैंने चैंककर पूछा कि क्या यहाँ कोई नदी है? कुछ आगे बढ़ने पर हीरे की तरह चमकते बालू के कणों पर शीशे की तरह साफ जल से बहती नदी दिखाई दी। मैंने उसका नाम पूछा तो उन्होंने खिलखिलाकर कहा- अरे ये तो आपकी यमुना जी हैं। यह स्थान दिल्ली में यमुना में गिरने वाले नजफगढ़ नाले से जरा पहले का था। यानि दिल्ली में प्रवेश करते ही यमुना अपना स्वरूप खो देती है और एक गन्दे नाले में बदल जाती है। यमुना में 70 फीसदी गन्दगी केवल दिल्ली वालों की देन है। इसलिए यमुना मुक्ति का आन्दोलन चलाने वाले लोगों को सबसे ज्यादा दबाव दिल्लीवासियों पर बनाना चाहिए। उन्हें झकझोरना चाहिए और मज़बूर करना चाहिए कि वे अपना जीवन ढर्रा बदलें तथा अपनी गन्दगी को या तो खुद साफ करें या अपने इलाके तक रोककर रखें। उसे यमुना में न जाने दें। रोज़ाना 10 हजार से ज्यादा दिल्लीवासी वृन्दावन आते हैं। यमुना किनारे संकल्प लेने से ज्यादा प्रभावी होगा अगर हम इन दिल्लीवालों के आगे पोस्टर और पर्चे लेकर खड़े रहें और इनसे सवाल पूछें कि तुम बाँकेबिहारी का आशीर्वाद लेने तो आये हो पर लौटकर उनकी प्रसन्नता के लिए यमुना शुद्धि का क्या प्रयास करोगे? इस एक छोटे से कदम से दिल्ली में हर काॅलोनी तक सन्देश जायेगा और एक फिज़ा बनेगी। ठाकुरजी ने चाहा, संत सही दिशा में लोगों को जीवन ढर्रा बदलने के लिए पे्ररित कर सके तो जनभावनाओं का सैलाब यमुना को शुद्ध करा लेगा। वरना यह एक और शिगूफा बनकर रह जायेगा।

Monday, March 21, 2011

होली के रंगों से या नाभकीय विकरणों से

Rajasthan Patrika 20 March11
अल्हड़पन और मस्ती का त्यौहार है होली। सादगी और पे्रमभरा। न रंग भेद, न जाति भेद और न ही धर्मभेद। होली ही क्यों, भारत के हर त्यौहार में जीवन को जीने का आनन्द है। चाहें पोंगल हो या बैशाखी, नवरात्रि हो या ईद, प्रेम से मिलना, एक-दूसरे के गले लग जाना, घर के बने स्वादिष्ट व्यंजनों का आदान-प्रदान करना और लोककलाओं व लोकसंस्कृति से भरपूर मेलों का आनन्द लेना। दरअसल यही था हमारा सम्पूर्ण जीवन चक्र। जिसमें खेती आधारित अर्थव्यवस्था, अध्यात्म आधारित मानसिकता और पर्यावरण आधारित जीवनशैली। पर आज यह सब हमसे तेजी से छीना जा रहा है, विकास के नाम पर। इसलिए इस वर्ष हम रंगों की नहीं नाभिकीय विकरणों की होली खेल रहे हैं। भारत में न सही, जापान में ही। पर सन्देशा हम सब के लिए भी है।
क्योंकि हमारे हुक्मरान विकास के मद में चूर हैं। अंधों की तरह हम पश्चिम के विकास माॅडल का अनुसरण कर रहे हैं। जिसका सबसे चमचमाता नमूना है, जापान और अमरीका। पिछले हफ्ते से जापान में प्रकृति के कहर का जो दिल दहला देने वाला टी.वी. कवरेज आ रहा है, उससे ज्यादा खतरनाक है नाभिकीय विस्फोटों से फैल रहे विकरणों का खौफनाक मंजर। जिसके चलते पूरे जापान से 3 लाख लोगों को घर छोड़ने पर मज़बूर कर दिया गया है। पिद्दी से देश जापान के 55 लाख लोग कड़ाके की सर्दी में, बिना बिजली के, एक कम्बल में, एक-दूसरे को आलिंगनबद्ध किये हुए रोते-चीखते एक-एक पल बिता रहे हैं। इनमें से ढेड़ लाख लोगों को तो किसी न किसी तरह के नाभिकीय विकरण ने अपनी चपेट में ले लिया है। टोक्यो की नाभिकीय बिजली कम्पनी ‘टोक्यो इलैक्ट्रिक पाॅवर कम्पनी’ ने भूचाल के भारी झटके झेलने के बाद आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर दी है। दुनियाभर के नाभिकीय वैज्ञानिक इस सदमें से उबर नहीं पा रहे हैं। सब कबूतर की तरह आॅंख बन्द करके यह बताने में जुटे हैं कि उनके देशों को इस खूनी होली से कोई खतरा नहीं।
भारत के प्रधानमंत्री ने भी संसद में घोषणा की कि हमारे नाभिकीय संयत्रों की सुरक्षा की समीक्षा की जा रही है। भावा परमाणु केन्द्र, मुम्बई देश की आर्थिक राजधानी के बीचों-बीच स्थित है। जिसके रिएक्टर समुद्र तट पर हैं। जापान का मंजर देखकर महाराष्ट् विधानसभा के सदस्य इतने आतंकित हो गये कि उन्होंने भावा परमाणु केन्द्र के अध्यक्ष को विधानसभा में बुलवाकर यह आश्वासन लिया कि मुम्बई ऐसे खतरे के प्रति तैयार है। प्रधानमंत्री हों या परमाणु केन्द्र के अध्यक्ष, इनके ये वक्तव्य ठीक ऐसे ही लगते हैं जैसे देश में किसी बड़ी आतंकवादी घटना के बाद घोषणा की जाती है कि देशभर में रेड अलर्ट जारी कर दिया गया है। चप्पे-चप्पे पर पुलिस की नजर है। हर संदिग्ध व्यक्ति को देखा-परखा जा रहा है। पर हम और आप जानते हैं कि बाकी देश की क्या चले, राजधानी दिल्ली तक में रेड अलर्ट का कोई मायना नहीं होता। इसलिए यह भ्रम पालना कि परमाणु रिएक्टरों और बड़े बांधों से हम सुरक्षित हैं, हमारी मूर्खता होगी। भूचाल और सुनामी कभी भी, कहीं भी आ सकती है और इसलिए तबाही का यह मंजर जापान तक सीमित नहीं रहेगा।
जापान ने तो फिर भी भूकम्परोधी तकनीकि को इतना विकसित कर लिया है कि 5.8 के रिएक्टर स्केल के स्तर पर झटके झेलने के बावजूद टोक्यो की गगनचुंबी इमारतें हिलकर रह गयीं, गिरी नहीं। पर घोटालों के विशेषज्ञ भारत में जहाँ लवासा से आदर्श सोसाईटी तक हर जगह निर्माण का मतलब है, नियमों को ताक पर रखना, वहाँ अगर ऐसे भूकम्प आ जायें तो रोज बनती एक से एक इन गगनचुंबी इमारतों की हालत क्या होगी, सोच कर बदन सिहर जाता है। पर हर दिन अखबार में आप विज्ञापन देखते हैं कि आपके अपने नगर की सबसे ऊँची इमारत में फ्लैट बुक कराईये।
महात्मा गाँधी से लेकर देश का हर पर्यावरणविद्, आम किसान और वनवासी, सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी और गाहे-बगाहे देश का मीडिया हुक्मरानों की पर्यावरण के प्रति बढ़ती संवेदन शून्यता के खिलाफ आवाज उठाता रहता है। पर इनके कानों पर जूं नहीं रेंगती। मीडिया में एक कहावत है कि ‘हर मुद्दा ठण्डा पड़ जाता है’। हो सकता है, कुछ दिन बाद जापान की इस त्रासदी को हम वैसे ही भूल जायें जैसे गुजरात के भूकम्प या दक्षिण पूर्वी एशिया में आयी सुनामी को भूल गये और जिन्दगी यूं ही ढर्रे पर चलती रहे। पर यह न तो हमारे लिए अच्छा होगा और न ही हमारे आने वाली पीढ़ियों के लिए।
आज सूचना के बढ़ते तंत्र ने पूरी दुनिया को जोड़ दिया है। हम सबको इसका लाभ उठाना चाहिए। पूरी दुनिया से एकसाथ इस विनाशकारी विकास के विरूद्ध आवाज उठनी चाहिए। हम सबको अपने-अपने हुक्मरानों की व लाभ पिपासु बहुराष्ट्रिय कम्पनियों की पैशाचिक मानसिकता के विरूद्ध साझी लड़ायी लड़नी चाहिए। फिर हम चाहें हिन्दू हों, ईसाई हों, मुसलमान हों, कम्यूनिस्ट हों। आपसी भेदों को भूलकर जिन्दगी को उस ढर्रे की तरफ वापस लौटाने के लिए माहौल बनाना चाहिए जब ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ का सिद्धांत सर्वमान्य था। तभी हमारी जिन्दगी में खुशियाँ, नाचगान, उत्सव-मेले लौट पायेंगे। तभी हम अबीर गुलाल से होली खेलने का मजा लूट पायेंगे। सम्पन्नता, विकास और मस्ती के नाम पर जो माॅडल हमें दिया जा रहा है, वह रावण की स्वर्णमयी लंका है, जिसका नाश अवश्यम्भावी है। अगर हम कछुए की मानिंद बैठे रहे तो फिर रंगों की नहीं नाभिकीय विकरणों की होली के लिए हमें हर समय तैयार रहना चाहिए।

Monday, March 14, 2011

न्यायमूर्ति बालाकृष्णन क्या अकेले भ्रष्ट हैं?

Punjab Kesari 14March11
न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर, कानूनविद् रामजेठमलानी, राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरूण जेटली,  राज्यसभा सांसद सीताराम येचुरी और पूर्व कानूनमंत्री शांतिभूषण, सब मिलकर भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालाकृष्णन के पीछे पड़े हैं। इनका आरोप है कि बालाकृष्णन ने अपने पद का दुरूपयोग कर, अपने लिये और अपने नातेदारों के लिए काफी अवैध धन इकठ्ठा किया। इसलिए उसकी जाँच होनी चाहिए और उन्हें भारत के मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से हटा देना चाहिए। इसमें गलत कुछ भी नहीं है।

अगर बालाकृष्णन ने न्यायपालिका के सर्वोच्च पद पर रहते हुए अपने पद की गरिमा का ख्याल नहीं रखा और भ्रष्ट अथवा अनैतिक आचरण करके अवैध धन कमाया है तो उसकी जाँच होनी ही चाहिए और उन्हें इसकी सजा मिलनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में दाखिल जनहित याचिका का संज्ञान लिया है। आने वाले समय में देखना होगा कि ये मामला कहाँ तक पहुँचता है, जाँच होती भी है या नहीं? सबूत मिलते हैं या नहीं और अगर बालाकृष्णन अपराधी पाये जाते हैं तो उन्हें सजा मिलती है या नहीं?

पर यहाँ एक बात बड़ी चिंतनीय है। वह यह है कि बालाकृष्णन के पीछे पड़ी ये चैकड़ी अपने आचरण में दोहरे मानदण्ड अपना रही है। मेरा इनमें से किसी से कोई द्वेष नहीं। सबसे पिछले 20 बरसों से सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध हैं। पर मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि नैतिकता के सवाल उठाने वाले ये लोग कितने आसानी से दोहरे चेहरे अपना लेते हैं।

बहुत पुरानी बात नहीं है। सन् 2000 में भारत के मुख्य न्यायाधीश डाॅ. ए.एस. आनन्द थे। उनके पद पर बैठते ही मैंने उनका मध्य प्रदेश का एक जमीन घोटाला अपने अंग्रेजी अखबार कालचक्र में छापा। इस घोटाले में डाॅ. आनन्द ने अपनी पत्नी की मार्फत झूठे शपथपत्र दाखिल करके, मध्य प्रदेश सरकार से एक करोड़ रूपये से ज्यादा का अवैध मुआवजा वसूल किया। जिन वकीलों ने और जजों ने उनकी इस घोटाले में मदद की, उन्हें पदोन्नती दिलवायी। यह घोटाला छापने के बाद, सर्वोच्च न्यायालय की बार, संसद और देश का मीडिया सकते में आ गया। क्योंकि भारत के इतिहास में यह पहली बार था जब किसी ने पदासीन मुख्य न्यायधीश के भ्रष्टाचार पर इस तरह दिलेरी से लेख छापने की हिम्मत की थी। आशा के विपरीत मुझे अदालत की अवमानना में जेल भेजने की हिम्मत डाॅ. आनन्द नहीं कर सके। क्योंकि उन्हें पता था कि उनसे पहले मैं भारत के मुख्य न्यायाधीश जे.एस. वर्मा के अनैतिक आचरण पर देश में काफी तूफान मचा चुका था।

इस दौरान इन सब लोगों से और देश के तमाम बड़े राजनेताओं से मैंने जाकर अपील की कि वे इस मुद्दे को संसद में उठाकर डाॅ. आनन्द के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लायें। पर सब डर गये। कोई न्यायापालिका से भिड़ने को तैयार नहीं था। मज़बूरन मैंने भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन को अपील भेजी। सवाल किया कि मेरे जैसा पत्रकार और जागरूक नागरिक इस परिस्थिति में क्या करे? राष्ट्रपति ने मेरी याचिका तत्कालीन कानूनमंत्री रामजेठमलानी को भेज दी। जेठमलानी ने उसे टिप्पणी के लिए मुख्य न्यायाधीश डाॅ. आनन्द के पास भेज दिया। इस पर आनन्द हड़बड़ा गये और इस्तीफा देने को तैयार हो गये। पर तब उन्हें अरूण जेटली और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सहारा दिया। नतीज़तन जेठमलानी को कानून मंत्री का पद गंवाना पड़ा और अरूण जेटली को भारत का कानून मंत्री बना दिया गया। मेरे द्वारा उठाये इस विवाद पर उस समय देश और दुनिया के मीडिया में बहुत कुछ छपा। पर डाॅ. आनन्द अपने पद पर बने रहे। क्योंकि उन्हें नये कानून मंत्री अरूण जेटली व प्रधानमंत्री वाजपेयी का वरदहस्त प्राप्त था। उनके इस आचरण से उत्तेजित होकर मैंने जम्मू और श्रीनगर में जाकर डाॅ. आनन्द के कई और जमीन घोटाले खोजे व उन्हें सप्रमाण कालचक्र के अंग्रेजी अखबारों में छापा। मेरी इस जुर्रूत को देखकर डाॅ. आनन्द ने छः घोटाले छपने के बाद मेरे खिलाफ जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में अदालत की अवमानना का मुकदमा कायम करवा दिया। जबकि यह मुकदमा अगर कायम होना था तो सर्वोच्च अदालत में होना चाहिए था। मुझे आतंकित करने के मकसद से आदेश दिये गये कि मुझे श्रीनगर में रहकर अदालत की कार्यवाही का सामना करना होगा। यह जानते हुए कि मैं हिज्बुल मुज़ाहिदीन के अवैध आर्थिक स्रोतों को उजागर कर चुका था तथा मुझे आतंकवादियों से जान का खतरा था। इस तरह के आदेश अदालत से करवाये गये। पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने परम्परा से हटकर सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों को लिखा कि विनीत नारायण का जीवन इस राष्ट्र के लिए कीमती है। इसलिए अगर उन पर मुकदमा चलाना है तो उसे पंजाब या दिल्ली के उच्च न्यायालय में ट्रांसफर कर दिया जाये। पर अदालत ने एक न सुनी। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने मुझे भगौड़ा अपराधी घोषित कर दिया। मेरे घर और दफ्तर पर जम्मू पुलिस के छापे पड़ने लगे। मुझे ढेड़ वर्ष भूमिगत रहना पड़ा। आखिर मैं देश छोड़कर भागने पर मज़बूर हो गया। अदालत की अवमानना के डर से भारत के मीडिया ने पदासीन मुख्य न्यायाधीश के विरूद्ध, इन मामलों को छापने की हिम्मत नहीं दिखायी। लंदन, न्यूयाॅर्क, वाॅशिंगटन में मुझे पूरी दुनिया के मीडिया का समर्थन मिला। सी.एन.एन. और बी.बी.सी. जैसे टी.वी. चैनलों पर मेरे साक्षात्कारों का सीधा प्रसारण हुआ। दुनिया के 300 से अधिक मीडिया संगठनों ने कानूनमंत्री अरूण जेटली और प्रधानमंत्री वाजपेयी को ई-मेल पर अपील भेजी कि विनीत नारायण की सुरक्षा की जाये और मुख्य न्यायाधीश डाॅ. ए.एस. आनन्द के भ्रष्टाचार की जाँच की जाये। पर इनके कानों पर जूं नहीं रेंगी। डाॅ. आनन्द के सारे घोटाले सप्रमाण आज भी कालचक्र के कार्यालय में संजोकर रखे गये हैं। जिनकी जाँच कोई भी, कभी भी कर सकता है। बावजूद इसके सेवानिवृत्त होने के बाद डाॅ. आनन्द को भारत के मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया। यह नियुक्ति एन.डी.ए. द्वारा राष्ट्रपति बनाये गये डाॅ. अब्दुल कलाम आजाद ने सारे तथ्यों को जानने के बाद भी की।

मेरा सवाल न्यायमूर्ति बालाकृष्णन के खिलाफ जाँच की माँग करने वालों से यह है कि क्या भ्रष्टाचार को नापने के दो मापदण्ड होने चाहिए? डाॅ. आनन्द के लिए कुछ और, दलित बालाकृष्णन के लिए कुछ और? अगर ऐसा नहीं है तो ये सारी चैकड़ी देश को इस बात का जबाव दे कि डाॅ. आनन्द के खिलाफ भ्रष्टाचार के इतने सबूत होते हुए भी इन्होंने वैसा अभियान क्यों नहीं चलाया जैसा अब ये चला रहे हैं? और अब अदालत से माँग करें कि डाॅ. आनन्द के भ्रष्टाचार की भी वैसी ही जाँच हो जैसी बालाकृष्णन की हो रही है। दलितों की मसीहा बहिन मायावती को भी इस सवाल को जोर-शोर से उठाना चाहिए।

Sunday, March 6, 2011

पश्चिम एशिया की क्रांति कहाँ तक जायेगी?

Rajasthan Patrika 6 March11
तहरीर चैक की क्रांति ने दशकों से काबिज तानाशाह राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को पैदल कर दिया। ट्यूनिशिया उबाल पर है। लीबिया में कर्नल गद्दाफी के खिलाफ आन्दोलन बढ़ता जा रहा है और अब इन सबसे खतरनाक तानाशाह के दिन गिने-चुने रह गये दीखते हैं। यमन, ईरान, सउदी अरेबिया, हर जगह तानाशाहों के खिलाफ गुस्सा उबाल पर है।
आर्थिक विकास का न होना, युवाओं के आगे रोजगार के अवसर न होना, तानाशाहों का बर्बरतापूर्ण आक्रामक रवैया, जिसने कभी किसी विरोध के स्वर को पनपने ही नहीं दिया आदि कुछ ऐसे कारण हैं जिन्होंने मौजूदा हालात को जन्म दिया। इन तानाशाहों का ऐसा रवैया पश्चिमी यूरोप और अमरीका जैसे देशों ने इसलिए स्वीकार कर लिया क्योंकि उनका आंकलन था कि ऐसा न करने की हालत में अलकायदा जैसे कट्टरपंथी तालिबान, इन देशों की सŸााओं पर काबिज हो सकते हैं। ईरान जैसे देश में तो कमोबेश यही स्थिति रही। जहाँ तानाशाह व तालिबानी मानसिकता एकसाथ स्थापित हो गयी।
पश्चिम की इस मज़़बूरी का इन तानाशाहों ने भरपूर लाभ उठाया। यहाँ तक कि इन मुल्कों की सेना भी तानाशाहों के साथ मिलकर चली और भ्रष्टाचार करके देश के संसाधनों का इन सबने मिलकर मजा लूटा। जनता पिसती रही। फिर भी उसने बगावत की हिम्मत नहीं की। इस बार भी जो बगावत हुई है, उसका नेतृत्व न तो तालिबान के पास है और न ही सŸाा के किसी उल्लेखनीय प्रबल विरोधी के पक्ष में। यह आन्दोलन तो स्वस्फूर्त था। जिसमें सबसे ज्यादा सक्रिय, पढ़ी-लिखी युवापीढ़ी रही। मिस्र में कामयाबी तो मिल गयी और शायद बाकी देशों में भी आवाम को ऐसी कामयाबी मिल जाए, लेकिन यह कामयाबी लोकतंत्र को स्थापित कर पायेगी, इसमें सन्देह है। क्योंकि कटट्रपंथी इन देशों को प्रजातांत्रिक देश नहीं बनने देना चाहते। इसलिए वे परदे के पीछे से खेल खेलते हुए सŸाा के शिखर पर पैदा हो रहे शून्यों को भरने का प्रयास करेंगे। यह एक भयावह स्थिति होगी। क्योंकि तब हालात पहले से भी बदतर हो जायेंगे।
दरअसल समस्या यह है कि पाँच-छः दशकों से तानाशाही झेलते हुए इन मुल्कों के आवाम को लोकतंत्र का कोई अनुभव नहीं है। न तो यहाँ लोकतांत्रिक संस्थाऐं पनप पायीं हैं और न ही उनको विकसित करने की समझ और अनुभव वाले लोग वहाँ मौजूद हैं। इसलिए डर यह भी है कि सŸाा से हटा दिये गये तानाशाहों के हुक्काबरदार लोग इस नयी प्रक्रिया की कमान संभाल लें और इस तरह एक बार फिर वही चैकड़ियाँ पिछले दरवाजे से सŸाा पर काबिज हो जायें। यह इसलिए भी ज्यादा संभव है क्योंकि इन मुल्कों की सेना लोकतंत्र बर्दाश्त नहीं करेगी। वो लोकतंत्र की राह में हर संभव रोड़ा अटकायेगी। सेना के बड़े अफसरों को जिस लूट और ऐश की आदत पड़ गयी है, वह लोकतंत्र की स्थापना के बाद उनसे छीन लिया जायेगा। इसलिए वे या तो खुद सŸाा पर काबिज होने की कोशिश करेंगे या नये संविधान में ऐसे प्रावधान बनवा देंगे जो उनकी ताकत कम न हो। साम्राज्यवादी देशों को यह समीकरण पसन्द आयेगा। क्योंकि उनका उद्देश्य तो इन देशों को लूटना है, बनाना नहीं। इस तरह सच्ची भावना, दिलों में आग और दिमाग में बर्फ लेकर, इस क्रांति की शुरूआत करने वाले, इन देशों का आवाम, खासकर युवापीढ़ी फिर ठगी जायेगी। इतने बड़े आन्दोलनों का कोई नतीजा नहीं निकलेगा। आज इन देशों को जरूरत है एक ऐसी नेतृत्व क्षमता की, जिसे अपने अतीत पर गर्व हो और वर्तमान को ठीक करने की ललक। ऐसा नेतृत्व अगर पनपता है, तभी बचने की उम्मीद है।
इन देशों में मौजूदा राजनैतिक दल, जिनका कोई वजूद नहीं है, वे भी सक्रिय हो सकते हैं। पर वे समय की धारा को नहीं प्रभावित कर पायेंगे। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि इन देशों की क्रांति, इनके संविधान और इनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं ला पायेगी और तब ये सारी मेहनत बेकार जाने का खतरा है। जो भी हो, फिलहाल तो यह आग फैल ही रही है। इससे एक सन्देश पूरी दुनिया में गया है कि जनता कितनी ही साधनहीन और असहाय हो, अगर कमर कस ले व संगठित हो जाये तो बड़े-बड़े तानाशाहों को गिरा सकती है। इसलिए पश्चिम एशिया में जो कुछ घट रहा है, वह हमारे लिए जिज्ञासा का विषय तो है हीः इन देशों में इन फुटकर क्रांतियों का परिणाम सुःखद और सकारात्मक होना चाहिए। जिसके लिए अन्य देशों को भी, इन देशों की मदद के लिए आगे बढ़ना चाहिए। ताकि वहाँ कानून का राज कायम हो सके।

Monday, February 28, 2011

ग्रीन इंडिया मिशन : घोषणा या हकीकत

Punjab Kesari 28 Feb11
bl g¶rs iz/kkuea=h th us Ik;kZoj.k ea=ky; ds xzhu bf.M;k fe”ku dks gjh >.Mh ns nhA blds rgr 46 gtkj djksM+ :Ik;s [kpZ djds] 50 yk[k gSDVs;j Hkwfe ij u;s taxy yxk;s tk;saxsA ns”k ds fcxM+rs Ik;kZoj.k vkSj ?kVrs gfjr {ks= dks ns[krs gq, bls ,d vPNh igy ekuk tkuk pkfg,A ij ,slh cgqr lkjh ?kks’k.kk,sa vusd iz/kkuea=h fiNys 63 o’kksZa esa djrs jgs gSaA vxj mudk 10 Qhlnh fgLlk Hkh bZekunkjh ls fdz;kfUor gqvk gksrk rks ns”k vkt fodflr jk’Vksa dh tekr esa [kM+k gksrkA ouhdj.k ds ekeys esa dsUnz vkSj jkT;ksa ds Ik;kZoj.k ea=ky;ksa dk fjiksVZ dkMZ cgqr fujk”kktud gSA dkxtksa ij ou yxk fn;s tkrs gSa vkSj ekSds ij ,d Hkh isM+ fn[kk;h ugha nsrkA ou foHkkx viuh lQkbZ esa dg nsrk gS fd cdjh pj xbZa ;k yksxksa us isM+ dkV fy;sA ?kVrs gfjr {ks= dk ekSle ij fdruk foijhr vlj iM+ jgk gS] ;s vkt iwjk ns”k vuqHko dj jgk gSA lkjs ns”k esa iz/kkuea=h dh ;g ?kks’k.kk dkjxj dSls gksxh] ;g rks eSa ugha dg ldrk] ysfdu ftl {ks= esa fiNys 7 o’kksZa ls eSa bu eqn~nksa ij lfdz; gwW] mldk uewuk ;g tkuus ds fy, dkQh gS fd ckdh pkoy idk ;k ughaA

iz/kkuea=h dk;kZy; dh ukd ls dqy 145 fd-eh- nwj czt {ks= esa ouksa dk gky csgky gSA ;g og {ks= gS] tks fnYyh&vkxjk vkSj t;iqj ds Lof.kZe f=dks.kZ ds e/; vkrk gS vkSj ;gkWa ls gj fons”kh esgeku vkSj Ik;ZVd xqtjrk gSA dqat&fudqatksa esa gqbZ Jhjk/kkd`’.k dh yhykvksa ds fy, lqizfl) czt Hkkjr dh gj fp=dyk ”kSyh esa cM+s vkd’kZd :Ik esa izLrqr fd;k tkrk jgk gSA pkgsa oks jktLFkku dh fd”kux<+ “kSyh gks] ;k nf{k.k dh ratkSj “kSyhA ij bl czt esa 137 ou FksA ftudk mYys[k ikSjkf.kd xzaFk ^czt HkfDr foykl* esa vkrk gSA vkt ek= 3 ou cps gSaA 134 ouksa esa /kwy mM+rh gSA dw<+s ds <sj yxs gSaA ljdkjh nLrkostksa rd esa budk fjdkWMZ miyC/k ugha gSA bu ouksa dk yksd ijaijkvksa esa vkSj lkfgR; esa o`gn o.kZu gSA gekjs losZ{k.k ds nkSjku ekSds ij budk vkdkj 3 ,dM+ ls 550 ,dM+ rd ik;k x;kA

ouksa ds laj{k.k esa /keZ] laLd`fr vkSj yksdijaijkvksa dh mis{kk djus ds dkj.k gh ns”k ds ouksa dh ;g fLFkfr gq;h gSA Ik;kZoj.kfon~ Hkh /kkfeZd n`f’V ls egRoiw.kZ ouksa ds laj{k.k esa bl i{k dks egRo nsus ds gkeh gSaA D;ksafd vkLFkk vkSj fo”okl ds dkj.k tuekul ouksa dh tSlh j{kk dj ldrk gS] oSlh Hkz’V iz”kklfud O;oLFkk ds osruHkksxh dkfjUns dHkh ugha dj ldrsA vkt ns”k ds ouksa ds dVku ds ihNs taxy ekfQ;k vdsyk xqugxkj ughaA mls iz”kklfud vkSj jktuSfrd laj{k.k [kqysvke izkIr gksrk gSA blfy, t:jh gS fd ikSjkf.kd egRo ds czt tSls {ks=ksa ds ouksa ds fodkl esa muds /kkfeZd egRo dks le>dj ;kstuk,sa cuk;h tk;saA

czt ds bu ouksa dks pkj oxksaZ esa ck¡Vk x;k gS( ou] miou] vf/kou vkSj izfrouA ouksa ls vfHkizk; ml LFkku ls gS tgk¡ d`f’k Hkwfe o xkSpkj.k Hkwfe i;kZIr ek=k esa gksrh FkhA Jh d`’.k tgk¡ viuh xk;sa pjk;k djrs FksA Jhd`’.k dh vf/kdrj yhyk,sa ouksa esa gh lEiUu gq;h FkhaA buesa Qy&Qwy] tho&tUrq] tM+h&cwVh vkfn i;kZIr ek=k esa ik;h tkrh FkhaA ogha vf/kou dk vfHkizk; ,sls LFkku ls gS tgk¡ i”kqikyd vius i”kqvksa lfgr jgrs FksA [ksyus ds eSnku gksrs FksA ogk¡ jgus okyksa dk thou izd`fr vk/kkfjr FkkA tgk¡ “kq) [kkuk] LoPN okrkoj.k] lkQ&lQkbZ o gfj;kyh dk iwjk /;ku j[kk tkrk FkkA miou ls vfHkizk; ouksa esa fLFkr ml LFkku ls gS tgk¡ Jhd`’.k us viuh yhyk,sa lEikfnr dh FkhaA vFkkZr iwjs ou ds fo”kky {ks= esa lEcfU/kr yhyk ftl LFkku ij lEikfnr gqbZ gks] mls miou ;k fudqat dgk tkrk gSA ^izfrou* dk vfHkizk; vf/kou esa fLFkr ml LFkku ls gS ftls LFkkuh; fuoklh ou ds izfr:i esa ltkdj iwtrs FksA bl izdkj czt ds ;s ou cztokfl;ksa ds vkfFkZd o vk/;kfRed thou dk vfHkUu vax jgs gSaA

mnkgj.k ds rkSj ij xkso/kZu ds ikl fLFkr n”kZu ou eas egkjkl ds nkSjku Hkxoku Jhd`’.k us ns[kk fd jk/kkjkuh lfgr vU; xksfi;ksa ds ân; esa mudh fudVLFkrk ikdj vge mRiUu gks jgk gS] rks Jhd`’.k us mUgsa okLrfodrk esa okil ykus ds fy, Loa; dks vUrZ/;ku dj fy;kA Jhd`’.k dks vius chp ls xk;c ns[kdj jk/kkth o vU; xksfi;k¡ fojgdqy dh ihM+k ls NViVkrs gq, foyki djus yxha rFkk mudks <w¡<rs gq, ou&ou HkVdus yxhaA vUr esa os bl ou esa vkdj ewfNZr gksdj fxj iM+haA rc Hkxoku Jhd`’.k izxV gks x;sA bl izdkj xksfi;ksa dks iqu% muds n”kZu izkIr gq,A blhfy, bldk uke ^n”kZu ou* gSA dHkh ;gkW dnEc ds gtkjksa o`{k Fks] vkt ,d Hkh ughaA

blfy, geus vkt ls 5 o’kZ igys bu lHkh ouksa dk oSKkfud losZ{k.k djus dk y{; j[kkA  ftlls czt esa budh fLFkfr] buds vkdkj] budh e`nk dh xq.koRrk] buds LokfeRo] buds lkaLd`frd bfrgkl] buds jktLo fjdkMZ vkSj budh orZeku n”kk dk xgjkbZ ls v/;;u fd;k tk ldsA bl dk;Z ds fy, vkbZ-vkbZ-Vh- tSls ns”k ds izfrf’Br bathfu;fjax laLFkkuksa ds vusd ;qokvksa o cztoklh ;qokvksa us igyh ckj czt ds 137 ouksa dh lgh fLFkfr dk uD”kk rS;kj fd;k vkSj ntZuksa ouksa dk foLr`r losZ{k.k iwjk fd;kA tks dk;Z vHkh tkjh gSA bl losZ{k.k dk ykHk ;g gqvk fd vc ^n czt Qkm.Ms”ku* dh Vhe bu lHkh ouksa ds th.kksZ)kj dh oSKkfud ;kstuk cuk jgh gSA Qkm.Ms”ku ds yS.MLdsi fMtk;uj vkSj fØ;sfVo vkfVZLV buds vkd’kZd izk:Ik rS;kj dj jgs gSaA rkfd lHkh ouksa ds fodkl o lkSUn;hZdj.k dk CY;wfizaV rS;kj gks ldsaA ftuds vk/kkj ij ge bu ouksa dks fQj ls ltk&laokj ldsaA cjlkuk ds xgoj ou vkSj eFkqjk ds :fpy ou dks geus blh izfdz;k ls ltkdj rS;kj dj fn;k gSA tks vc rhFkZ;kf=;ksa] lUrksa o HkDrksa ds fy, vkuUn dk lzksr cu x;s gSaA bu ouksa dks ,d fudqat dk Lo:Ik ns fn;k gSA ;gk¡ dh yhykvksa ds vuq:Ik foxzgksa dks ;gk¡ LFkkfir fd;kA ;gk¡ ds bfrgkl dks f”kykys[kksa ij vafdr fd;kA bl izdkj bu ouksa dks ltk;k&laokjk gh ugha] buds leqfpr j[kj[kko dh Hkh ekdwy O;oLFkk Hkh dh gSA bu OkUkksa ds IkqUkq:)kj dh YkkXkRk yxHkx 3 yk[k :i;s izfr ,dM+ vkrh gSA ij gekjh bruh oSKkfud igy vkSj lQy iz;ksx ds ckotwn gesa mEehn ugha gS fd xzhu bf.M;k fe”ku ls czt ds ouksa dks dHkh dksbZ ykHk fey ldsxkA D;ksafd ljdkj dh ;kstuk,sa dkxtksa ij vkd’kZd vkSj /kjkry ij Fkdk nsus okyh gksrh gSaA D;k iz/kkuea=h us bl ykyQhrk”kkgh ls fuiVus dk dksbZ rjhdk bZtkn fd;k gS\

Sunday, February 20, 2011

भारत को अनुदान : इंग्लैंड में हाय तौबा

राजस्थान पत्रिका 20 Feb2011
जब से इंग्लैंड के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने भारत को दी जा रही 1 बिलियन पाउण्ड की आर्थिक सहायता को अगले 4 वर्षों तक जारी रखने की घोषणा की है, तबसे इंग्लैंड में तूफान मच गया है। कैमरून की इस नीति पर हमला करते हुए टोरी सांसद इस अनुदान के औचित्य पर अनेक सवाल खड़े कर रहे हैं। उनका मानना है कि दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती हुई भारतीय अर्थव्यवस्था को इंग्लैंड की आर्थिक मदद क्यों चाहिए? खासकर तब जबकि इंग्लैंड की सरकार अपने देश में समाज कल्याण की अनेक योजनाओं को आर्थिक तंगी के चलते बंद करती जा रही है।

इन सांसदों का यह भी कहना है कि भारत में इंग्लैंड के मुकाबले कई गुना ज्यादा खरबपति हैं। इन सांसदों को शिकायत है कि आणविक शक्ति और आतंरिक्ष शोध कार्यक्रम चलाने की कुव्वत रखने वाला भारत इंग्लैंड की मदद का मोहताज क्यों है? इन सांसदों के अलावा इंग्लैंड के करदाताओं के संगठन भी इस विकास राहत अनुदान का विरोध कर रहे हैं। उनका आरोप है कि भारत से कहीं ज्यादा गरीब देश हैं जिन्हंे आर्थिक मदद दी जानी चाहिए। क्योंकि भारत जैसे देश में भ्रष्टाचार के चलते यह मदद गरीबों तक नहीं पहुँचती।

दूसरी तरफ सरकार के अन्तर्राष्ट्रीय विकास सचिव एण्ड्रयू मिशेल ने बी-बी-सी- टेलीविजन पर दिये एक साक्षात्कार में बताया कि भारत में दुनिया की सबसे बड़ी गरीब आबादी रहती है] जिसके लिए यह मदद बहुत थोड़ी होते हुए भी महत्वपूर्ण है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत अवश्य आणविक व अन्तरिक्ष कार्यक्रम चला रहा है] पर उसके नागरिक की औसत आमदनी चीन के मुकाबले एक तिहाई है।

Punjab Kesari 21 Feb11
उल्लेखनीय है कि विकास कार्यों के लिए इंग्लैंड से दी जानी वाली आर्थिक सहायता में भारत का हिस्सा बहुत कम है। दूसरी तरफ इस विवाद से इंग्लैंड में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों मे भी हलचल है। कुछ मानते हैं कि भारत को इंग्लैंड से अनुदान लेने में शर्म आनी चाहिए, क्योंकि उसके पास धन की कमी नहीं है, बल्कि भ्रष्टाचार और नकारा सरकारों के चलते उसकी यह दुर्दशा है। कुछ भारतीय, अर्थशास्त्रियों की तरह, यह भी मानते हैं कि ऐसा हर अनुदान निहित स्वार्थों के लिए दिया जाता है। जिससे अनुदान पाने वाले देशों की राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था पर मज़बूत पकड़ बनाकर उनका अपने फायदे के लिए दोहन किया जा सके। ज्यादातर भारतीयों का यही मानना है कि भारत को अपनी व्यवस्था सुधारनी चाहिए, काले धन और हवाला कारोबार को रोकना चाहिए, विदेशी बैंकों में जमा धन भारत वापस लाना चाहिए और इस तरह अपने देश और समाज को मजबूत बनाना चाहिए। उन्हें लगता है कि भारत में और भारत के बाहर ऐसे तमाम अरबपति हैं, जो भारत की गरीबी दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उन्हे इस काम के लिए आगे आना चाहिए।
वहीं कुछ ऐसे भारतीय मूल के ब्रिटिश नागरिक भी हैं, जो यह मानते हैं कि इंग्लैंड की आज की सम्पन्नता का कारण वह लूट है जो उसने 190 सालों तक भारत में की। उसी लूट के कारण आज इंग्लैंड की नयी पीढ़ी वैभवपूर्ण जीवन जी रही है। इसलिए न सिर्फ इंग्लैंड को यह आर्थिक मदद जारी रखनी चाहिए बल्कि इंग्लैंड के संग्राहलयों में रखी भारत की बेशकीमती धरोहरों को भी भारत को लौटा देना चाहिए।

दूसरी तरफ इंग्लैंड के अखबार जैसे डेली एक्सपै्रस या डेली मेल, इस अनुदान नीति का खुला उपहास कर रहे हैं। जबकि इंग्लैंड की सरकार कहना है कि वह भारत के तीन सबसे पिछड़े राज्यों उड़ीसा, बिहार और मध्य प्रदेश को ही मदद देने जा रही है, क्योंकि उसका भारत के साथ गहरा आर्थिक नाता है। उल्लेखनीय है कि इंग्लैंड ने रूस और चीन को दी जा रही अपनी आर्थिक मदद अब रोक दी है। 

इंग्लैंड और भारत के रिश्तों में इतिहास की कड़वाहट बाकी है। हमारी मौखिक परंपरा, इतिहास की पुस्तकें हैं और समय-समय पर आने वाली ‘लगान’, ‘जुनून’ और ‘गाँधी’ जैसी फिल्में हमें बार-बार उन 190 सालों की याद दिला देती हैं, जब अंग्रेज सरकार ने न सिर्फ हमें बुरी तरह लूटा, बल्कि जल़ील भी किया और हमारे साथ गुलामों जैसा बर्ताव किया। इसलिए चाहें आर्थिक मदद का मामला हो, चाहें टीपू सुल्तान की तलवार भारत लाने का या ईस्ट इण्डिया कम्पनी को एक भारतीय द्वारा खरीदे जाने का या राष्ट्रकुल की सदस्यता में बने रहने का या इंग्लैंड में आव्रजन का, हर ऐसे मुद्दे पर इंग्लैंड में और इंग्लैंड के बाहर रहने वाले भारतीय बहुत जल्दी उत्तेजित हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि इंग्लैंड ने भारत पर किये अत्याचारों का कभी प्रायश्चित नहीं किया। इसलिए वे हर मौके पर इंग्लैंड को शीशा दिखाने से बाज़ नहीं आते।

दूसरी तरफ यह भी सही है कि ऐसे अनुदानों से कोई मूलभूत विकास नहीं हो सकता और अनुदान भी कैसा जिसमें इतनी शर्तें कि लेने वाला, लेकर भी पछताये और लाभ के बजाय शोषण के विषम चक्र में फंस जाये। सही है कि भारत में साधन, मेधा और समझ की कोई कमी नहीं है। अगर हमारा राजनैतिक नेतृत्व भारत की मूल शक्ति को प्रोत्साहित करे और अपनी कमजोरियों को दूर करे तो बहुत जल्द ही भारत दुनिया के विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा हो सकता है। तब उसे किसी भी देश की तरफ अनुदान के लिए देखने की जरूरत नहीं पड़ेगी।