Sunday, November 20, 2011

भारत में अभी काफी दम है


जहाँ एक तरफ धनी देश एक के बाद एक, आर्थिक संकट में फंसते जा रहे हैं, वहीं राहत की बात यह है कि एशिया की विकासशील अर्थव्यवस्थाऐं और यूरोप के पड़ौसी देशों में आर्थिक प्रगति की दर काफी उत्साहजनक रही है। टर्की का सकल घरेलू उत्पाद 2010 में नौ फीसदी सालाना रहा। जो कि चीन की विकास दर के करीब था। इसी तरह 27 देशों के यूरोपीय संघ में से पौलेंड की आर्थिक प्रगति भी ठीक रही। पर जिस तरह का आर्थिक संकट यूनान व इटली में सामने आया, उससे यूरोपीय संघ के नेतृत्व के नीचे से जमीन सरक गई है। भारी घाटे की वित्तीय व्यवस्था से चलती यूरोप के कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं ने बैंकों का विश्वास डिगा दिया है। इन अर्थव्यवस्थाओं को उबारने के लिए जिस तरह के राहत पैकेज पेश किए गए, वे नाकाफी रहे हैं। यूरोपीय बैंकों पर दबाब है कि वे बाहर के देशों में ऋण न देकर, यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था को उबारने में मदद करें। यहाँ तक कि जर्मनी के दूसरे सबसे बड़े बैंक ‘कॉमर्स बैंक’ ने कहा है कि वह अपने देश के बाहर कोई ऋण नहीं देगा। अगर बैंक यह नीति अपनाते हैं, तो पहले से खाई में सरकती यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाऐं और भी गहरे संकट में फंस जाएंगी। 

यूरोपीय देशों के इस पतन का कारण वहाँ का, अब तक का, आर्थिक मॉडल और जीवनशैली रही है। इन देशों ने पहले तो पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद का सहारा लेकर, उपनिवेशों का शोषण किया और उनके आर्थिक संसाधनों का दोहन किया तथा अपनी अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत बनाया। उपनिवेशवाद के बाद इन्होंने तकनीकि की श्रेष्ठता के आधार पर, दुनिया के व्यापार में अपना फायदा कमाया। 

पर जबसे एशियाई देशों की आर्थिक प्रगति ने जोर पकड़ा है, तबसे उत्पादक और उपभोक्ता, दोनों ही इन देशों  में पनपे हैं। जिससे यूरोप की श्रेष्ठता बेमानी हो गई है। अब न तो यूरोप का तकनीकि ज्ञान चाहिए और न ही उनके बाजार से कोई ज्यादा उम्मीद है। इसलिए यूरोप के देश विश्व अर्थव्यवस्था में अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। एक तरफ यह आर्थिक मार और दूसरी तरफ यूरोप वासियों का वैभवपूर्ण जीवन जीने का पुराना रवैया, दोनों में विरोधाभास है। ‘आमदनी अठन्नी और खर्चा रूपया’, इसलिए वहाँ बज रहा है हर घर का बाजा। जनता में भारी हताशा और असुरक्षा घर कर गई है। मौज-मस्ती और सैर-सपाटों में लगे रहने वाले यूरोपवासी अब आए दिन सड़कों पर धरने, प्रदर्शन और घेराव कर रहे हैं। इस सबके बावजूद यूरोप के राजनेताओं और नौकरशाहों ने अपना विलासितापूर्ण खर्चीला व्यवहार पूरी तरह बदला नहीं है। हालांकि उसमें पहले के मुकाबले काफी गिरावट आयी है। फिर भी यूरोपीय देशों में सबसे ताकतवर अर्थव्यवस्था वाले जर्मनी की चांसलर को यह कहना पड़ा कि इन देशों की सरकारों को आर्थिक अनुशासन के मामले में कड़ाई बरतनी पड़ेगी। 

दूसरी तरफ भारत की आर्थिक प्रगति ने दुनियाभर अपने झण्डे गाढ़े हैं। जो बात पश्चिम को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रही है, वह है भारत का लोकतंत्र के साथ उदारीकरण को अपनाना। जबकि चीन की आर्थिक प्रगति के पीछे वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही है। भारतीय मॉडल की अपनी सीमाऐं हैं और अपने खतरे भी हैं। मसलन भारी भ्रष्टाचार, आधारभूत ढांचे की बेहद कमी और व्यापक गरीबी। जो कभी भी इस प्रक्रिया को पटरी से उतार सकती है। जहाँ तक भ्रष्टाचार की बात है, दूरसंचार साधनों की प्रगति ने, जनता में भ्रष्टाचार के प्रति जागृति पैदा की है। जो धीरे-धीरे जनान्दोलनों का स्वरूप लेती जा रही है। आधारभूत ढांचे की कमी से निपटने के लिए भारत के उद्योगपति अपनी ही व्यवस्थाऐं खड़ी कर लेते हैं। गरीबी से निपटना बहुत बड़ी चुनौती है और जब तक आर्थिक विकास के साथ आर्थिक बंटवारा भी समानान्तर रूप से साथ नहीं चलेगा, तब तक अनिश्चितता बनी रहेगी। 

इस सबके बावजूद भारतीय औद्योगिक घरानों ने जिस तरह दुनियाभर में अपने पंख फैलाए हैं, उससे पश्चिमी देश सकते में आ गए हैं। टाटा का रॉल्स रॉयस व जगुआर जैसी कम्पनियाँ खरीदना, लक्ष्मी मित्तल का स्टील साम्राज्य, इन्फोसिस का आई.टी. उद्योग में छा जाना, महेन्द्रा और हिन्दुजा जैसे घरानों का दुनियाभर में कारोबार फैलाना, कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि भारत का उद्यमी अब दुनिया में कहीं भी बड़े-बड़े विनियोग करने में सक्षम है। इतने महंगे दामों पर भारतीयों द्वारा विदेशी कम्पनियों को खरीदा गया है कि दुनिया के पैसे वाले और बड़े-बड़े बैंक हैरान रह गए हैं। 

भारत के उद्योगपतियों में तीन तरह की नेतृत्व क्षमता देखी गई है। एक तो वे समूह हैं, जिनके नेतृत्व ने जोखिम उठाना ठीक नहीं समझा और परिवार के नियन्त्रण में अपने पारंपरिक साम्राज्य को नियन्त्रित रखा। नए विकल्पों पर ध्यान नहीं दिया। ऐसे औद्योगिक घराने इस दौर में पीछे छूट गए। दूसरे वे हैं, जिन्होंने हवा के रूख को पहचाना और अपने साम्राज्य का विस्तार अनेक दिशाओं में किया, जैसे टाटा, महिन्द्रा आदि। तीसरे वे हैं, जो पिछले बीस सालों में अपने बलबूते पर उठे और दुनिया के नक्शे पर छा गए। जैसे इन्फोसिस, रिलायंस, अडानी, मित्तल आदि। इनमें भी दो तरह के समूह रहे हैं। एक वे, जिन्होंने व्यक्तिग योग्यता और सामूहिक प्रबन्धन को महत्व दिया और सही मायने में कॉरपोरेट संस्कृति को विकसित किया। दूसरे वे हैं, जिन्होंने इस देश की राजनैतिक व्यवस्था की कमजोर नब्ज पर अपनी उंगलियाँ रखीं और इस राजनैतिक व्यवस्था का पूरा इस्तेमाल अपनी प्रगति के लिए किया तथा आशातीत सफलता प्राप्त की। इस बात की परवाह किए बिना कि उनके तौर-तरीकों को लेकर देश में कई सवाल खड़े होते रहे हैं। 

कुल मिलाकर भारतीय उद्यमियों ने दुनिया को दिखा दिया कि उद्योग और व्यापार के मामले में हिन्दुस्तानी किसी से कम नहीं। अब तो दुनिया भी मानने लगी है कि भारत जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता था और जिसे सैंकड़ों साल लूटा गया, वह एक बार फिर सोने की चिड़िया बनने की कगार पर है। भारत की इस नई बनती पहचान से हमें गर्व होना अस्वाभाविक बात नहीं। पर साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि इसी भारत माँ के 60 करोड़ बच्चे अभी भी बदहाली की जिन्दगी जी रहे हैं। अगर इनकी आर्थिक प्रगति साथ-साथ नहीं हुई, तो इनका संगठित आक्रोश भारत के जमे जमाए उद्योग को उसी तरह उखाड़ सकता है, जैसे बंगाल के आम लोगों ने नैनो कार के प्लांट को बनने से पहले ही उठाकर बाहर फैंक दिया। 

इसलिए हमें दोनों पैरों पर चलना है, एक पैर से औद्योगिक विकास व दूसरे पैर से कृषि तथा कुटीर उद्योग से आम लोगों की आर्थिक प्रगति। इसके साथ ही भ्रष्टाचार से मुक्ति और सरकारी फिजूलखर्ची पर कड़ा अनुशासन। अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो निश्चय ही भारत अगले 10-15 वर्षों में, दुनिया की सबसे सशक्त अर्थव्यवस्था बन सकता है।

Sunday, November 13, 2011

चाल और चरित्र की चिंता

Rajasthan Patrika 13 Nov
राजनेताओं के चरित्र और आचरण पर जनता और मीडिया की पैनी निगाह हमेशा लगी रहती है। जब तक राजनेताओं के निजी जीवन पर परदा पड़ा रहता है, तब तक कुछ नहीं होता। पर एक बार सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। फिर तो उस राजनेता की मीडिया पर ऐसी धुनाई होती है कि कुर्सी भी जाती है और इज्जत भी। ज्यादा ही मामला बढ़ जाए, तो आपराधिक मामला तक दर्ज हो जाता है। विरोधी दल भी इसी ताक में लगे रहते हैं और एक दूसरे के खिलाफ सबूत इकट्ठे करते हैं। उन्हें तब तक छिपाकर रखते हैं, जब तक उससे उन्हें राजनैतिक लाभ मिलने की परिस्थितियाँ पैदा न हो जाऐं। मसलन चुनाव के पहले एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का काम जमकर होता है। पर यह भारत में ही होता हो, ऐसा नहीं है। उन्मुक्त जीवन व विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्ध को मान्यता देने वाले अमरीकी समाज में भी जब उनके राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का अपनी सचिव मोनिका लेवांस्की से प्रेम सम्बन्ध उजागर हुआ तो अमरीका में भारी बवाल मचा था। इटली, फ्रांस व इंग्लैंड जैसे देशों मंे ऐसे सम्बन्धों को लेकर अनेक बार बड़े राजनेताओं को पद छोड़ने पड़े हैं। मध्य युग में फ्रांस के एक समलैंगिक रूचि वाले राजा को तो अपनी दावतों का अड्डा पेरिस से हटाकर शहर से बाहर ले जाना पड़ा। क्योंकि आए दिन होने वाली इन दावतों में पेरिस के नामी-गिरामी समलैंगिक पुरूष शिरकत करते थे, और जनता में उसकी चर्चा होने लगी थी।

आजाद भारत के इतिहास में ऐसे कई मामले प्रकाश में आ चुके हैं, जहाँ मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों आदि के प्रेम प्रसंगों पर बवाल मचते रहे हैं। उड़ीसा के मुख्यमंत्री जी.बी. पटनायक पर समलैंगिकता का आरोप लगा था। आन्ध्र प्रदेश के राज्यपाल एन.डी.तिवारी का तीन महिला मित्रों के साथ शयनकक्ष का चित्र टी.वी. चैनलों पर दिखाया गया। अटल बिहारी वाजपयी का यह बयान कि वे न तो ब्रह्मचारी हैं और न ही विवाहित, काफी चर्चित रहा था। क्योंकि इसके अनेक मायने निकाले गए। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के सम्बन्धों को लेकर पार्टी में काफी विरोध हुआ था। उमा भारती और गोविन्दाचार्य के सम्बन्धों पर भाजपा में ही कई बार बयानबाजी हो चुकी है। ऐसे अनेक मामले हैं। पर यहाँ कई सवाल उठते हैं।

घोर नैतिकतावादी विवाहेत्तर सम्बन्धों की कड़े शब्दों में भत्र्सना करते हैं। उसे निकृष्ट कृत्य और समाज के लिए घातक बताते हैं। पर वास्तविकता यह है कि अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना राजाओं और नेताओं को छोड़, संतों और देवताओं के लिए भी अत्यंत दुष्कर कार्य रहा है। महान तपस्वी विश्वामित्र को स्वर्ग की अप्सरा मेनका ने अपनी पायल की झंकार से विचलित कर दिया। यहाँ तक कि भगवान विष्णु का मोहिनी रूप देखकर भोलेशंकर समाधि छोड़कर उठ भागे और मोहिनी से संतान उत्पत्ति की। इसी तरह अन्य धर्मों में भी संतो के ऐसे आचरण पर अनेक कथाऐं हैं। वर्तमान समय में भी जितने भी धर्मों के नेता हैं, वे गारण्टी से यह नहीं कह सकते कि उनका समूह शारीरिक वासना की पकड़ से मुक्त है। ऐसे में राजनेताओं से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे भगवान राम की तरह एक पत्नी व्रतधारी रहेंगे? विशेषकर तब जब सत्ता का वैभव सुन्दरियों को उन्हें अर्पित करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। ऐसे में मन को रोक पाना बहुत कठिन काम है।

प्रश्न यह उठता है कि यह सम्बन्ध क्या पारस्परिक सहमति से बना है या सामने वाले का शोषण करने की भावना से? अगर सहमति से बना है या सामने वाला किसी लाभ की अपेक्षा से स्वंय को अर्पित कर रहा है तो राजनेता का बहुत दोष नहीं माना जा सकता। सिवाय इसके कि नेता से अनुकरणीय आचरण की अपेक्षा की जाती है। किन्तु अगर इस सम्बन्ध का आधार किसी की मजबूरी का लाभ उठाना है, तो वह सीधे-सीधे दुराचार की श्रेणी में आता है। लोकतंत्र में उसके लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। यह तो राजतंत्र जैसी बात हुई कि राजा ने जिसे चाहा उठवा लिया।

ऐसे सम्बन्ध प्रायः तब तक उजागर नहीं होते, जब तक कि सम्बन्धित व्यक्ति चाहे पुरूष हो या स्त्री, इस सम्बन्ध का अनुचित लाभ उठाने का काम नहीं करता। जब वह ऐसा करता है, तो उसका बढ़ता प्रभाव, विरोधियों में ही नहीं, अपने दल में भी विरोध के स्वर प्रबल कर देता है। वैसे शासकों से जनता की अपेक्षा होती है कि वे आदर्श जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। पर अब हालात इतने बदल चुके हैं कि राजनेताओं को अपने ऐसे सम्बन्धों का खुलासा करने में संकोच नहीं होता। फिर भी जब कभी कोई असहज स्थिति पैदा हो जाती है, तो मामला बिगड़ जाता है। फिर शुरू होता है, ब्लैकमेल का खेल। जिसकी परिणिति पैसा या हत्या दोनों हो सकती है। जो राजनेता पैसा देकर अपनी जान बचा लेते हैं, वे उनसे बेहतर स्थिति में होते हैं जो पैसा भी नहीं देते और अपने प्रेमी या प्रेमिका की हत्या करवाकर लाश गायब करवा देते हैं। इस तरह वे अपनी बरबादी का खुद इंतजाम कर लेते हैं।

मानव की इस प्रवृत्ति पर कोई कानून रोक नहीं लगा सकता। आप कानून बनाकर लोगों के आचरण को नियन्त्रित नहीं कर सकते। यह तो हर व्यक्ति की अपनी समझ और जीवन मूल्यों से ही निर्धारित होता है। अगर यह माना जाए कि मध्य युग के राजाओं की तरह राजनीति के समर में लगातार जूझने वाले राजनेताओं को बहुपत्नी या बहुपति जैसे सम्बन्धों की छूट होनी चाहिए तो इस विषय में बकायदा कोई व्यवस्था की जानी चाहिए। ताकि जो बिना किसी बाहरी दबाव के, स्वेच्छा से, ऐसा स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें ऐसा जीने का हक मिले। पर यह सवाल इतना विवादास्पद है कि इस पर दो लोगों की एक राय होना सरल नहीं। इसलिए देश, काल और वातावरण के अनुसार व्यक्ति को व्यवहार करना चाहिए, ताकि वह भी न डूबे और समाज भी उद्वेलित न हो।

Sunday, November 6, 2011

ज़िम्मेदार बने देश का मीडिया

Rajasthan Patrika 6Nov2011
प्रेस काउंसिल ऑफ इण्डिया के नये बने अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू के ताजा बयानों ने मीडिया जगत में हलचल मचा दी है। उनके तीखे हमलों से बौखलाए मीडियाकर्मी न्यायमूर्ति काटजू के विरूद्ध लामबंद हो रहे हैं। जरूरत श्री काटजू के बयान के निष्पक्ष मूल्यांकन की है। क्योंकि धुंआ वहीं उठता है, जहाँ आग होती है।

श्री काटजू का कहना है कि, ‘टी.वी. मीडिया क्रिकेट और फिल्म सितारों पर ज्यादा फोकस रखकर बुनियादी सवालों से जनता का ध्यान हटा रहा है। देश की समस्या गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार है। जिन पर मीडिया नाकाफी ध्यान देता है।’ श्री काटजू के इस आरोप में काफी दम है। आम दर्शक भी यह महसूस करने लगा है कि टी.वी. मीडिया गंभीर पत्रकारिता नहीं कर रहा है। पर यहाँ समस्या इस बात की है कि जो लोग गरीबी की मार झेल रहे हैं, वे टी.वी. नहीं देखते। जो टी.वी. देखते हैं, उनकी इन सवालों में रूचि नहीं है। टी.वी. मीडिया महंगा माध्यम है। इसको चलाने के लिए जो रकम चाहिए, वह विज्ञापन से आती है। विज्ञापन देने वाले उन्हीं कार्यक्रमों के लिए विज्ञापन देते हैं, जो मनोरंजक हों और लोकप्रिय हों। इसलिए धीरे-धीरे टी.वी. मीडिया पूरी तरह विज्ञापन दाताओं के शिकंजे में चला गया है। जो थोड़ी बहुत चर्चाऐं गंभीर मुद्दों पर की जाती हैं, उनकी प्रस्तुति का तरीका भी सूचनाप्रद कम और मनोरंजक ज्यादा होता है। इनमें शोर-शराबा और नौंक-झौंक ज्यादा होती है। इसलिए गंभीर लोग टी.वी. देखना पसन्द नहीं करते।

श्री काटजू का आरोप है कि टी.वी. मीडिया ज्योतिष और अंधविश्वास दिखाकर लोगों को दकियानूसी बना रहा है। जबकि भविष्य के परिवर्तन के लिए उसे तार्किक व वैज्ञानिक सोच को विस्तार देना चाहिए। ताकि समाज भविष्य के बदलाव के लिए तैयार हो सके। श्री काटजू का यह आरोप भी बेबुनियाद नहीं है। सूर्य और चन्द्र ग्रहण कब-से पड़ रहे हैं, पर टी.वी. मीडिया को देखिए तो लगता है कि हर ग्रहण एक प्रलय लेकर आने वाला है। जबकि होता कुछ भी नहीं। आश्चर्य की बात है कि टी.वी. मीडिया के आत्मानुशासन के लिए बनी ‘न्यूज ब्राॅडकास्टिंग स्टैण्डडर््स आॅथोरिटी’ टेलीविजन के इस गिरते स्तर को रोक पाने में नाकाम रही है। इस कमेटी के अध्यक्ष जस्टिस जे.एस. वर्मा हैं।

श्री काटजू का आरोप है कि, ‘मीडियाकर्मी राजनीति, कानून, इतिहास, दर्शन, अन्र्तराष्ट्रीय सम्बन्ध जैसे गंभीर विषयों पर बिना जाने और बिना शोध किए रिपोर्ट लिख देते हैं। जिससे उनका हल्कापन नजर आता है।’ उनकी सलाह है कि पत्रकारों को गंभीर अध्ययन करना चाहिए। श्री काटजू को इस बात से भी शिकायत है कि मीडिया बम विस्फोट की खबरों को इस तरह से प्रकाशित करता है कि मानो हर मुसलमान आतंकवादी है। उनका मानना है कि हर धर्म में ज्यादा प्रतिशत अच्छे लोगों का है। इस तरह की रिपोर्टिंग से समाज में विघटन पैदा हो जाएगा। जबकि हमें समाज को जोड़ने का माहौल बनाना चाहिए। जस्टिस काटजू को इस बात से भी नाराजगी है कि मीडिया वाले बिना पूरी तहकीकात किए ही किसी भी प्रतिष्ठित व्यक्ति को जरा देर में ध्वस्त कर देते हैं। जिससे समाज का बड़ा अहित हो रहा है। उनका मानना है कि उच्च पदों पर आसीन भ्रष्ट लोगों के खिलाफ, चाहें वे न्यायाधीश ही क्यों न हों, मीडिया को लिखने का हक है, पर ईमानदार लोगों को नाहक बदनाम नहीं करना चाहिए। श्री काटजू चाहते हैं कि प्रिंट और टेलीविजन, दोनों माध्यमों को ‘प्रेस काउंसिल ऑफ इण्डिया’ के आधीन कर देना चाहिए और इसका नाम बदलकर ‘मीडिया काउंसिल ऑफ इण्डिया’ कर देना चाहिए। वे चाहते हैं कि उन्हें मीडिया को नियन्त्रित करने और सजा देने का अधिकार भी मिले।

उपरोक्त सभी मुद्दे कुछ हद तक सही हैं और कुछ हद तक विवादास्पद। विज्ञापन लेने की कितनी भी मजबूरी क्यों न हो, कार्यक्रमों और समाचारों का स्तर गंभीर बनाने की कोशिश होनी चाहिए। अन्यथा धीरे-धीरे टी.वी. मीडिया केवल सनसनी फैलाने का माध्यम बनकर रह जाऐगा। श्री काटजू को मीडिया के खिलाफ कड़े कानून बनाने का हक तो नहीं मिलना चाहिए, पर ऐसी व्यवस्था जरूर बननी चाहिए कि गैर जिम्मेदाराना पत्रकारिता करने वाले अखबारों, चैनलों और पत्रकारों को सही रास्ते पर लाया जा सके। प्रेस की आजादी के नाम पर मीडिया का एक वर्ग अपनी कारगुजारियों से पूरे मीडिया को बदनाम कर रहा है। मीडिया के लोग खबरों और मुद्दों को उठाने में पूरी पारदर्शिता नहीं बरतते और विशेष कारणों से किसी मुदद् को जरूरत से ज्यादा उछाल देते हैं और वहीं दूसरे मुद्दे को पूरी तरह दबा देते हैं, जबकि समाज के हित में दोनों का महत्व बराबर होता है।

इस सबके साथ यह भी कहने में काई संकोच नहीं होना चाहिए कि न्यायपालिका के सदस्य समाज के हर वर्ग पर तीखी टिप्पणी करने में संकोच नहीं करते। जबकि न्यायपालिका में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके कोई कदम नहीं उठ रहे। जस्टिस काटजू अगर मीडिया के साथ ही न्यायपालिका को भी इसी तेवर से लताड़ें तो उनकी बात अधिक गंभीरता से ली जाऐगी। ‘अदालत की अवमानना कानून’ का दुरूपयोग करके न्यायाधीश पत्रकारों का मुंह बन्द कर देते हैं। जबकि अगर किसी पत्रकार के पास न्यायाधीश के दुराचरण ठोस परिणाम हों, तो उन्हें प्रकाशित करना ‘अदालत की अवमानना’ कैसे माना जा सकता है? प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष के नाते व पूर्व न्यायाधीश होने के नाते श्री काटजू का फर्ज है कि वे ‘अदालत की अवमानना कानून’ में वांछित संशोधन करवाने की मुहिम भी चलवाऐं।

Monday, October 24, 2011

लोकपाल मुद्दे पर खुली बहस की ज़रुरत

टीम अन्ना की सदस्या किरण बेदी पर यात्रा भत्ते में से अवैध रूप से बचत करने का आरोप है। हालांकि यह आरोप मीडिया ने लगाया है, पर माना यही जा रहा है कि राजनेता किरण बेदी को भ्रष्ट सिद्ध करना चाहते हैं। उधर टीम अन्ना का कहना है कि 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले के आरोपी ए.राजा की हीरा चोरी के मुकाबले किरण बेदी की खीरा चोरी नगण्य है। उनकी बात सही है, पर कानून यह फर्क नहीं मानता। दरअसल किरण बेदी सद्इच्छा के बावजूद एक ऐसी लापरवाही कर बैठी हैं, जिसका उन्हें काफी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। उन्होंने पिछले वर्षों में अपने भाषणों के आयोजकों से हवाई जहाज की महंगी टिकट का पैसा वसूला मगर यात्रा की सस्ती टिकट पर। जिसमें भी उनको 75 फीसदी की रियायत एयरलाइंस ने इसलिए दी क्योंकि उन्हें ‘गैलेण्ट्री अवार्ड’ से नवाजा गया था। इस तरह उन्हें जो मुनाफा हुआ, उसे श्रीमती बेदी ने अपने निजी खाते में तो नहीं लिया पर अपनी धर्मार्थ संस्था में डाल दिया। जिससे वे जनहित के कार्य कर सकें। उनका कहना है कि इस तरह मैंने कोई अपराध नहीं किया। जबकि कानून के विशेषज्ञ और श्रीमती बेदी के समकालीन पुलिस अधिकारियों का कहना है कि सरकारी नौकरी में रहते हुए ऐसा काम करने से नौकरी चली जाती लेकिन अभी भी उन्हें सजा मिल सकती है और उनकी पेंशन भी बन्द हो सकती है।
इससे पहले प्रशांत भूषण का विवादास्पद बयान कि यदि वहाँ की जनता चाहे तो कश्मीर को भारत से अलग होने देना चाहिए, या अरविन्द केजरीवाल का सरकार को पैसा लौटाए बिना, शर्त के विरूद्ध नौकरी छोड़ देना, कुछ ऐसे मामले हैं, जिनसे अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के नेतृत्व की नैतिकता पर सवाल खड़े हो जाते हैं। टीम अन्ना इससे विचलित नहीं है। उनका कहना है कि सरकार जितनी कीचड़ हम पर उछालेगी, उतनी ही जनता की सहानुभूति हमें मिलेगी। पर दोनों तरह की बातें कही जा रही हैं। भ्रष्टाचार से आजिज जनता चाहती है कि उसे रोजमर्रा की जिन्दगी में भ्रष्टाचार और सरकारी लालफीताशाही का मुँह न देखना पड़े। उन्हें समझा दिया गया है कि लोकपाल बिल पास हो जाने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा। इसलिए हमला टीम अन्ना के किसी भी सदस्य पर हो, जनता की निगाह में वह सरकार का भड़ास निकालने का तरीका है।
दूसरी तरफ टीम अन्ना से मोहभंग होने वालों की भी कमी नहीं है। इन लोगों का कहना है कि जब छोटे-छोटे मौकों पर टीम अन्ना का नेतृत्व अपने आर्थिक लाभ के लिए समझौते किए बैठा है और उसे इसकी कोई ग्लानि नहीं है, तो भविष्य में क्या होगा, जब इनकी जैसी मानसिकता के लोग लोकपाल बनेंगे? इसलिए उन्हें लगता है कि टीम अन्ना का आन्दोलन दिशाहीन हो चुका है। अब केवल भावनाऐं भड़काने का और किसी तरह समाचारों में बने रहने का कार्य किया जा रहा है। मेगासेसे पुरूस्कार विजेता राजेन्द्र सिंह और वरिष्ठ गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता राजगोपाल का टीम अन्ना की कोर समिति से इस्तीफा देना और कर्नाटक के लोकायुक्त न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े का अरविन्द केजरीवाल के हिसार चुनाव प्रचार में सक्रिय होने से नाराज होना, इस दिशाहीनता के प्रमाण के रूप में देखा जा रहा है। टीम अन्ना के शुभ चिंतकों का मानना है कि जहाँ अरविन्द केजरीवाल इस आन्दोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि हैं, वहीं उनकी महत्वाकांक्षा, तानाशाही और आत्मकेन्द्रित रणनीति इस आन्दोलन के पतन का कारण बन रही हैं।
भ्रष्टाचार के विरूद्ध उत्तर भारत में जनमत तैयार करने का बाबा रामदेव व टीम अन्ना ने बहुत अच्छा काम किया है, जिससे कोई असहमत नहीं होगा। रामलीला मैदान में जो कुछ हुआ और उसके बाद जिस तरह से संसद की प्रतिक्रिया अन्ना के पक्ष में सामने आई, उससे इस आन्दोलन का लक्ष्य प्राप्त हो गया था। इसके बाद कि प्रक्रिया सांसदों के हाथ में है। जिसके बिना कोई कानून नहीं बन सकता। पर सांसदों को बहस करने और कानून के मसौदे पर विचार करने से पहले ही अगर टीम अन्ना चुनाव के दंगल में उतर पड़ती है, तो उसकी नीयत पर सन्देह होना लाजमी है। जिस तरह की भाषा टीम अन्ना के सदस्य राजनेताओं के विरूद्ध प्रयोग कर रहे हैं, उससे उन्हें सलीम-जावेद के डायलाॅग की तरह जनता में वाह-वाही भले ही मिल रही हो, एक खतरनाक स्थिति पैदा हो रही है। जो देश में अराजकता की हद तक जा सकती है।
Punjab Kesari 24 Oct 2011
यह सही है कि देश की जनता सरकारी व्यवस्थाओं में जबावदेही और पारदर्शिता चाहती है। इसलिए उसे जहाँ से भी आशा की किरण दिखती है, वहीं लग लेती है। पर ऐसी स्थिति में जन आन्दोलन का नेतृत्व करने वालों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। अगर उनमें राजनैतिक परिपक्वता, जन आन्दोलनों का अनुभव और सŸााधीशों की प्रवृतिŸा की समझ नहीं है, तो वे जनता को गड्डे में गिरा सकते हैं। इससे इतनी हताशा फैलेगी कि वर्षों दूसरे जन आन्दोलनों को खड़ा करना आसान न होगा। वैसे भी देश के तमाम अनुभवी वकील, न्यायविद् व सर्वोच्च पदों पर रहने के बावजूद पूरी तरह ईमानदार रहे अधिकारियांे को भी जनलोकपाल विधेयक से सहमति नहीं है। उन्हें लगता है कि यह विधेयक बहुत बचकाना, धरातल की सच्चाई से दूर और शेखचिल्ली के ख्वाब जैसा है। जिसका कोई परिणाम सामने आने वाला नहीं है। वे इस पूरे मामले पर भिन्न राय रखते हैं। चिन्ता की बात यह है कि न तो टीम अन्ना ने और न ही देश के मीडिया ने ऐसे अनुभवी लोगों की राय जानने की कोशिश की, जिन्होंने सŸाा में रहते हुए भ्रष्टाचार से लड़ाई की और बिना समझौता किए अपना कार्यकाल पूरा किया। इन लोगों का दावा है कि जनलोकपाल बिल न तो भ्रष्टाचार को दूर कर पाएगा और न ही भ्रष्टाचारियों को पकड़ पाएगा। इसलिए पूरे देश में इस मुद्दे पर एक खुली बहस की आवश्यकता है, जिसके बाद ही संसद को कोई निर्णय लेना चाहिए।

Sunday, October 16, 2011

मृग-तृष्णा हैं प्रथक राज्य

Rajasthan Patrika 16 Oct 2011
पृथक तेलांगना राज्य की मांग को लेकर चल रहे आन्दोलन के कारण आन्ध्र प्रदेश की सरकार ठप्प पड़ी है। उद्योग व्यापार का भी खासा नुकसान हो रहा है। हैदराबाद वासियों का कहना है कि तेजी से आगे बढ़ता उनका राज्य दस वर्ष पीछे चला गया है। दूसरी तरफ पृथक राज्य की मांग करने वाले इतने भावावेश में हैं कि कुछ सुनने को तैयार नहीं। एक-एक करके हर वर्ग के लोग इस आन्दोलन में शामिल होते जा रहे हैं। नित्य नये धरने और प्रदर्शन जारी हैं। इन लोगों को बता दिया गया है कि पृथक तेलांगना राज्य बनने से इनका क्षेत्र तेजी से विकसित होगा। जबकि हकीकत कुछ और है। यह केवल मृग तृष्णा है।

देश में जहाँ-जहाँ पृथक राज्य बने, वहाँ-वहाँ यही नारा दिया गया कि अलग राज्य बन जाने से क्षेत्र का विकास होगा। लेकिन हुआ इसका उल्टा। झारखण्ड का उदाहरण लें, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि खनिज संपदा से प्रचुर मात्रा में संतृप्त इस छोटे से जनजातीय राज्य में भ्रष्टाचार हिमालय की ऊँचाई को पार कर गया है। यहाँ के वनवासियों को आज तक विकास के नाम पर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, संचार सेवा, परिवहन सेवा तो दूर, दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं है। पीने का पानी नहीं है। इनके जंगलों में विकास के नाम पर एक ईंट नहीं लगी है। जबकि इनके मुख्यमंत्री, एक के बाद एक, सैंकड़ों-हजारों करोड़ रूपयों के घोटालों में पकड़े गए हैं।

मुझे याद है गोरखालैंड का वह आन्दोलन जब वहाँ 25 वर्ष पहले पृथक राज्य बनाने की मांग चली थी। मैं उसका कवरेज करने वहाँ गया था। हर ओर गोरखाओं का आतंक था। आये दिन दार्जलिंग में बन्द हो रहे थे। बन्द की अवहेलना करने वाले पर्यटकों की कारों पर पहाड़ों से पत्थर लुढ़काकर हमले किए जा रहे थे। ऐसे में आन्दोलन के नेता सुभाष घीसिंग से मिलना आसान न था। बड़ी मुश्किल से जुगाड़ लगाकर मैं घीसिंग तक पहुँचा। मेरे चारों ओर एल.एम.जी. का घेरा साथ चला कि कहीं मैं उनकी हत्या न कर दूं। इस आतंक के वातावरण में मैंने श्री घीसिंग से पूछा कि उनकी इस मांग का तार्किक आधार क्या है? उत्तर मिला, ‘‘तुम मैदान वाला लोग हमारा शोषण करते हो। हमको अपने घरों में चैकीदार और कुक बना देते हो। हमारे राज्य की सम्पत्ति लूटकर ले जाते हो। हमको तुम्हारे अधीन नहीं रहना। हम अलग राज्य बनायेगा और गोरखा लोगों का डेवलपमेंट करेगा।’’ अलग राज्य तो नहीं बना, पर ‘गोरखा हिल डेवलपमेंट काउंसिल’ बन गयी। बाद में उसी इलाके में काउंसिल के नेताओं के भ्रष्टाचार के विरूद्ध आन्दोलन चले। कुल मिलाकर गोरखा वहीं के वहीं रहे, नेताओं का खूब आर्थिक विकास हो गया।

हरियाणा जैसे एकाध उदाहरण को देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की जाती है कि छोटे राज्य में विकास सम्भव है। पर उसके दूसरे कारण रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि अलग राज्य बनना, मतलब आम जनता की जेब पर डाका डालना। क्योंकि अलग राज्य बनेगा तो अलग विधानसभा बनेगी, अलग हाईकोर्ट बनेगा, अलग सचिवालय बनेगा, अलग मंत्रिमण्डल बनेगा और तमाम आला अफसरों की अलग फौज खड़ी की जाएगी। इस सब फिजूलखर्ची का बोझ पड़ेगा आम जनता की जेब पर। जिसे झूठे आश्वासनों, लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।
 
किसी क्षेत्र का विकास न होने का कारण उस राज्य का बड़ा या छोटा होना नहीं होता। इसका कारण होता है, राजनैतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति का अभाव, सरकारी अफसरों का नाकारापन, जाति में बंटी जनता का वोट देते समय सही व्यक्तियों को न चुनना, मीडिया का प्रभावी तरीके से जागरूक न रहना, विपक्षी दलों का लूट में हिस्सा बांटना और सचेतक की भूमिका से जी चुराना। ऐसे ही तमाम कारण हैं, जो किसी क्षेत्र के विकास की सम्भावनाओं को धूमिल कर देते हैं। अगर हम सब अपनी-अपनी जगह जागरूक होकर खड़े हो जाऐं तो प्रशासन को काम करने पर मजबूर कर सकते हैं। पर हमारी दशा भी उस राज्य की तरह है जिसके राजा ने मुनादी करवाई कि आज रात को हर नागरिक राजधानी के मुख्य फव्वारे में एक लोटा दूध डाले तो कल दूध का फव्वारा चलेगा। हर नागरिक ने सोचा, सभी तो दूध डालेंगे, मैं पानी ही डाल दूं तो क्या पता चलेगा? अगले दिन फव्वारे में पानी ही चल रहा था।

जब कभी क्षेत्रीय स्तर पर पृथक राज्य की मांग को लेकर आन्दोलन चलता है, जैसा आजकल तेलांगना में हो रहा है, तो स्थानीय मीडिया आग में घी डालने का काम करता है। जबकि जरूरत इस बात की है कि उस क्षेत्र का मीडिया देश के बाकी राज्यों में जाए और वहाँ की जनता के अनुभव अखबारों और टी.वी. में प्रसारित करे, ताकि स्थानीय जनता को पता चले कि ऐसी ही भावनाऐं भड़काकर अन्य राज्यों का भी गठन हुआ था। पर उससे आम जनता को कुछ नहीं मिला। उन आन्दोलनों के दौर की खबरों के कोलाज और फिल्में दिखानी चाहिएं ताकि स्थानीय लोग अपने आन्दोलन से उस आन्दोलन की साम्यता देख सके और उन्हें समझ में आ जाए कि यह नाटक बहुत पुराना है। दूसरी तरफ आन्दोलनकारी नेताओं को भी सोचना चाहिए कि अब समय तेजी से बदल रहा है। पहले वाला माहौल नहीं है कि एक बार सत्ता में आ गए तो मनचाही लूट कर लो। अब तो खुफिया निगाहें हर स्तर पर सतर्क रहती हैं। मीडिया में इतनी ज्यादा प्रतिस्पर्धा है कि किसी का भी, कभी भी, कहीं भी भांडाफोड़ हो सकता है। ऐसे में अब जनता को मूर्ख बनाकर बहुत दिनों तक लूटा नहीं जा सकता। क्योंकि जनता का आक्रोश अब उबलने लगा है। अगर पृथक राज्य की मांग करने वाले नेता वास्तव में जनता का भला चाहते हैं तो इनको अपने मौजूदा प्रांत के विकास कार्यक्रमों और प्रशासनिक भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए। जिससे इनके क्षेत्र की जनता को वास्तव में लाभ मिल सके।

Sunday, October 9, 2011

चौपट होते पर्यटन स्थल

Rajasthan Patrika 09 Oct 2011
केरल की राजनीति हमेशा चर्चा में रहती है। केरल के लोग जब राष्ट्रीय क्षितिज पर आते हैं, तो भी तरंगें पैदा करते हैं। पर आज बात केरल की राजनीति की नहीं, केरल के समुद्र तट पर उठने वाली तरंगों की करनी है। इन तरंगों की कोई सुध भारत सरकार का पर्यटन मंत्रालय नहीं ले रहा। नतीजतन आय का बहुत बड़ा स्रोत बेकार गंवाया जा रहा है।

हजारों साल से दुनियाभर के लोगों को भारत आकर्षित करता रहा है। तीर्थाटन, व्यापार या पर्यटन के लिए सैलानी दुनिया के हर कोने से भारत आते रहे हैं। उदारीकरण के दौर में जब भारत के झण्डे दुनिया में गढ़ रहे हैं, तो भारत के प्रति उत्सुकता और भी बढ़ रही है। पर ऐसा लगता है कि भारत सरकार का पर्यटन मंत्रालय आज भी बेसुध पड़ा सो रहा है। उसे देश के पर्यटन को बढ़ाने की कोई चिंता नहीं है।

मैं इन दिनों केरल के दौरे पर हूँ। मुझे यह जानकर भारी तकलीफ हुई कि भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय या जहाजरानी मंत्रालय ने आज तक केरल के खूबसूरत समुद्री तट का अन्तर्राष्ट्रीय सैलानियों के लिए रास्ता नहीं खोला है। दुनिया के छोटे-छोटे देशों में पानी के जहाज पर पर्यटकों को ले जाने के लिए क्रूज के अनेको विकल्प प्रस्तुत किए गये हैं, जिनसे इन देशों को अच्छा-खासा मुनाफा हो रहा है। केरल के समुद्र तट पर मुम्बई, गोवा से कोचीन और तिरूवंतपुरम होते हुए कन्याकुमारी जाने तक का समुद्री मार्ग इतना आकर्षक है कि अगर इस पर क्रूज की व्यवस्था की जाती, तो अब तक सैंकड़ों करोड़ रूपये का मुनाफा हो जाता। लोग केरल के तट से लक्षद्वीप या मालद्वीप जैसी जगह तो जाते ही, तट पर ही रूके रहने का भी आनन्द लेते। कोचीन पोर्ट ट्रस्ट पर आकर पता चला कि भारत का अपना कोई भी क्रूज नहीं है। जिससे स्थानीय लोगों में भी भारी आक्रोश है। क्योंकि उन्हें लगता है कि उनकी आमदनी और रोजगार को बढ़ाने वाला यह काम सरकार की अदूरदर्शिता के कारण आज तक नहीं किया गया।

विदेशी ही क्यों, देशी पर्यटक भी कोई कम उत्साही और साधन सम्पन्न नहीं हैं। ताजा आंकड़ों के अनुसार भारत से यूरोप, दक्षिण पूर्वी एशिया, ईजिप्ट और तुर्की व चीन घूमने जाने वाले पर्यटकों की तादाद में पिछले कुछ वर्षों में भारी इजाफा हुआ है। एक उदाहरण से इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है। स्विट्जरलैंड के पर्यटन स्थल ‘इंटरलाकेन’ में दस वर्ष पहले हिन्दुस्तानी इक्के-दुक्के दिखाई देते थे। आज इस ‘हिल स्टेशन’ पर ऐसा लगता है, मानो यह शिमला हो। क्योंकि हर तरफ हिन्दुस्तानी ही नजर आते हैं। जब भारत के लोग इतना खर्चा करके विदेशों में नये-नये पर्यटन स्थलों की खोज में भटक रहे हैं, तो क्यों नहीं देश के पर्यटन स्थलों को तेजी से विकसित किया जाता? इससे न सिर्फ रोजगार बढ़ेगा, बल्कि देश का पैसा, विदेश जाने से रूकेगा और विदेशी पर्यटकों के आने से आमदनी भी बढ़ेगी। जितनी विविधता भारत में है, उतनी दुनिया के दो-चार देशों में ही है। एक तरफ कश्मीर के बर्फ से ढके पहाड़, दूसरी तरफ तट से टक्करें मारतीं समुद्री लहरें; पश्चिम में रेगिस्तान की खूबसूरत संस्कृति और पूर्वोत्तर भारत में जनजातीय संस्कृति के अनूठे नमूने किसी भी पर्यटक को विभोर करने में सक्षम हैं। पर पर्यटन की दृष्टि से हमारे यहाँ आधारभूत सुविधाओं की भारी कमी है। जो कुछ अच्छा है, उसे निजी क्षेत्र ने विकसित किया है। स्थानीय नगरपालिकाऐं व प्रांतीय सरकारें अपने पर्यटन स्थलों को चैपट करने में कसर नहीं छोड़ते। राजनैतिक दखलअंदाजी के चलते, इन पर्यटन स्थलों पर अवैध निर्माण, प्रकृति से खिलवाड़, कूड़े के अम्बार, यात्री सुरक्षा की नाकाफी सुविधाऐं, कुछ ऐसे कारण हैं जो भारी मात्रा में पर्यटकों को हमारे देश की ओर आकर्षित नहीं कर पाते।

एक समग्र दृष्टि की जरूरत है। ऐसी पहल हो कि क्षेत्रीय प्रशासन से केन्द्रीय सरकार तक, निजी क्षेत्र से लेकर सार्वजनिक क्षेत्र तक के लोग मिल-बैठकर भारत के पर्यटन स्थलों को समयबद्ध कार्यक्रम के तहत विकसित करने की योजनाऐं बनाऐं और उन्हें समय से पूरा करें, तो भारत की अर्थव्यवस्था में काफी लाभ हो सकता है।

मेरा खुद का अनुभव इस विषय में बहुत ज्यादा उत्साहवर्धक नहीं है। राजस्थान, उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सीमा से लगे ‘ब्रज क्षेत्र’ को सुन्दर स्वरूप देने के लिए मैं स्वंयसेवी स्तर पर गत् 7 वर्षों से सक्रिय हूँ। पर व्यवस्था का सहयोग इतना धीमा और थका देने वाला होता है कि कभी-कभी लगता है कि हमारे पर्यटन क्षेत्र विकसित होने से पहले ही अनियोजित विस्तार के कारण कूड़े के ढेर में बदल जाऐंगे। जैसा आज हो रहा है। इस तरह हम न सिर्फ वर्तमान को नष्ट कर रहे हैं, बल्कि भविष्य की पीढ़ी को भी निराश कर रहे हैं।

Monday, October 3, 2011

जापान में नाभिकीय ऊर्जा को ‘सायोनारा’ ?

Punjab Kesari 03Oct 2011
जापान ने सुनामी की जो त्रासदी भोगी, उसका सबसे खतरनाक पहलू था, फूकुशिमा, दाई-ईची ‘न्यूक्लीयर पॉवर प्लांट’ का आपे से बाहर होना। इसकी गरमी से सुरक्षा कवच फट गए और नाभिकीय विकिरण ने दूर-दूर तक के इलाके खाली करवाने पर प्रशासन को मजबूर कर दिया। आज तक 86 हजार लोग बेघर शरणार्थी शिविरों में पड़े हैं और उन्हें पता नहीं हैं कि वे अपने घर कभी लौट पाऐंगे भी कि नहीं। क्योंकि नाभिकीय विकिरण का असर अभी खत्म नहीं हुआ है। उधर ये पाॅवर प्लांट भी अभी तक पूरी तरह स्थिर नहीं हो पाया है। यानि खतरा बना हुआ है।

पिछले दिनों जापान ने 51 साल में पहली बार एक विशाल जन प्रदर्शन देखा। 60 हजार लोग नाभिकीय ऊर्जा के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। ये लोग नाभिकीय ऊर्जा का विरोध कर रहे थे। इनकी मांग थी कि इस ऊर्जा का प्रयोग यथाशीघ्र बन्द किया जाए। ताकि भविष्य में फिर नाभिकीय विकिरण का खतरा न झेलना पड़े। उल्लेखनीय है कि जापान ही दुनिया का वह अकेला देश है जिसने दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अपने शहर हिरोशिमा व नागासाकी में परमाणु बम के भयावह असर को झेला था। इसलिए उसके नागरिकों का चिंतित होना स्वाभाविक है।

पर यह भी सही है कि 1960 से आज तक जापान में कोई जनप्रदर्शन नहीं हुआ। एक तो जापानी स्वभाव से ही शांतिप्रिय और मध्यमार्गीय हैं, दूसरे वे भारी देशभक्त और अपने कार्य के प्रति निष्ठावान हैं। इसलिए वे कभी हड़ताल या जनप्रदर्शन कर अपना समय और सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाते। नाभिकीय ऊर्जा के विरूद्ध हुए इस प्रदर्शन में 60 हजार प्रदर्शनकारियों ने एक ही गन्तव्य पर जाने के लिए तीन मार्ग पकड़े। ताकि यातायात को असुविधा न हो। पूरा प्रदर्शन संगीतमय और बैनरों को लिए हुए था। कहीं तोड़-फोड़, गुण्डागर्दी या सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाने की रिपोर्ट नहीं मिली। प्रदर्शन भी पूरे अनुशासन के साथ किया गया। इससे भारत के लोगों को बहुत कुछ सीखना चाहिए।

ऐसा नहीं कि सारा जापान नाभिकीय ऊर्जा को फौरन तिलांजली देना चाहता है। ऐसे लोग बहुत कम हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अगर एकदम से नाभिकीय ऊर्जा संयत्र बन्द कर दिए जाऐं, तो जापान में बिजली का भारी संकट पैदा हो जाएगा। इसलिए वे क्रमशः इन संयत्रों को बन्द करने के पक्ष में हैं। इसका एक कारण यह भी है कि मित्सुबिसी, तोशिबा जैसी ऊर्जा उत्पादक कम्पनीयाँ लाखों लोगों को रोजगार देती हैं। अगर इन कम्पनियों के वि़द्युत उत्पादन संयत्र बन्द कर दिए गए तो भारी बेरोजगारी फैल जाएगी। इसलिए प्रदर्शनकारी परमाणु ऊर्जा के विरोध में होते हुए भी उसे एकदम नकारने के पक्षधर नहीं हैं। वे ये चाहते हैं कि सरकार तेजी से वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को विकसित करे। दरअसल 1960 के पहले जापान में जो वामपंथी ट्रेड यूनियन वगैरह थीं, वे सब आपसी झगड़ों और सरकारी दबाव में लगभग मृत प्रायः हो चुकी हैं और अब जो ट्रैड यूनियन हैं उनके सदस्य मूलतः इन्हीं विद्युत कम्पनियों के मुलाजिम हैं। इसलिए भी वे ज्यादा आक्रामक रवैया नहीं अपनाते। वैसे भी जापान के प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कर दिया है कि सन् 2048 से पहले इन संयत्रों को बन्द करना संभव नहीं होगा।

पर इन सब घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि जापान जैसे विकसित देश की पढ़ी-लिखी और समझदार जनता नाभिकीय ऊर्जा के पक्ष में नहीं है। यह अनुभव भारत के लिए सबक सीखने का होना चाहिए। हाल ही में आये भूचाल ने जो तबाही सिक्किम राज्य में मचाई है, उसके बाद कई भू-गर्भ वैज्ञानिक उत्तर भारत में भारी भंूकम्प की संभावनाओं को लेकर काफी चिंतित हैं। उन्हें डर है कि उत्तर भारत की पोली मिट्टी, गगनचुंबी इमारतों को तो लील ही जाएगी, साथ ही नरौरा जैसे परमाणु संयत्र भी खतरे से अछूते नहीं रहेंगे। उल्लेखनीय है कि पर्यावरण और जीव-जन्तुओं के स्वास्थ्य की चिंता करने वाले देश के सामाजिक कार्यकर्ता भारत सरकार की परमाणु नीति का लगातार विरोध करते आये हैं। उन्हें लगता है कि भारत सरकार, चाहें वह किसी भी दल की क्यों न हो, नाभिकीय ऊर्जा के मामले में देश का हित नहीं कर रही।

अमरीका से परमाणु ईधन संधि पर संसद में हुई बहस में वामपंथी दलों के अलावा भी बहुत से दलों ने सरकार का विरोध किया था। वामपंथी दलों ने तो सरकार का दामन ही छोड़ दिया। परमाणु ऊर्जा के मुद्दे पर सरकार अल्पमत में आ गई थी और उस पर आरोप है कि उसने अपनी गद्दी बचाने के लिए लम्बी-चैड़ी खरीद-फरोख्त की। जिसकी एक कड़ी अमर सिंह और दूसरी कड़ी सुधीन्द्र कुलकर्णी थे, जो फिलहाल तिहाड़ जेल में बन्द हैं। फिर भी सरकार के समान, इस मुद्दे पर विचार रखने वाले राजनैतिक दल गंभीरता से सोच नहीं रहे हैं। यह आत्मघाती स्थिति है।