Monday, January 23, 2012

यु पी में उलझा चुनावी गणित

यह पहली बार है कि जब उत्तर प्रदेश के चुनाव में यह तय नहीं हो पा रहा कि चार प्रमुख दलों की स्थिति क्या होगी। चुनाव अभियान शुरू होने से पहले माना जा रहा था कि पहले स्थान पर बसपा, दूसरे पर सपा, तीसरे पर भाजपा और चौथे पर इंका रहेगी। पर अब चुनावी दौर का जो माहौल है, उसमें यह बात आश्चर्यजनक लग रही है कि चौथे नम्बर के हाशिये पर खड़ी कर दी गयी इंका पर ही बाकी के तीनों दलों का ध्यान केन्द्रित है। बहन मायावती हों या अखिलेश यादव और या फिर उमा भारती, पिछले कई दिनों से अपनी जनसभाओं में और बयानों में राहुल गाँधी और इंका को लक्ष्य बना कर हमला कर रही हैं। जबकि यह हमला इन दलों को एक दूसरे के खिलाफ करना चाहिये था। अजीब बात यह है कि राजनैतिक विश्लेषक हों या चुनाव विश्लेषक, दोनों ही उत्तर प्रदेष की सही स्थिति का मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं। ये लोग असमंजस में हैं, क्योंकि जमीनी हकीकत की नब्ज नहीं पकड़ पा रहे हैं। उधर आलोचकों का भी मानना है कि राहुल गाँधी ने हद से ज्यादा मेहनत कर उत्तर प्रदेश की जनता से एक संवाद का रिशता कायम किया है। जिसमें दिग्विजय सिंह की भी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। जाहिर है कि राहुल गाँधी का आक्रामक तेवर और देश के आम मतदाता पर केंद्रित भाषण शैली ने अपना असर तो दिखाया है। यही वजह है कि सपा के इतिहास में पहली बार मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव, अमर सिंह व रामगोपाल यादव जैसे बड़े नेताओं को छोड़कर अखिलेश यादव के युवा चेहरे को जनता के सामने पेश किया है। पिछले कई महीनों से अखिलेश ने भी उत्तर प्रदेश में काफी मेहनत की है। इसका खासा लाभ उन्हें मिलने जा रहा है, ऐसा लगता है।

उधर उमा भारती को मध्य प्रदेश से लाना यह सिद्ध करता है कि भाजपा के पास प्रदेश स्तर का एक भी नेता नहीं । यह सही है कि उमा भारती की जड़ें बुंदेलखण्ड में हैं और राम मन्दिर निर्माण के आन्दोलन के समय से वे एक जाना-पहचाना चेहरा रही हैं पर जिन हालातों में उन्हें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से हटाया गया और उसके बाद वे जिस तरह पार्टी छोड़ कर गयीं और अपनी पार्टी बनाकर मध्य प्रदेश में बुरी तरह से विफल हुईं, इससे उन्हें अब भाजपा में वह स्थिति नहीं मिल सकती जो कभी उनका नैसर्गिक अधिकार हुआ करती थी। ऐसे में उमा भारती के नेतृत्व में, भाजपा के लिये उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को आश्वस्त करना संरल नहीं होगा।

एक हल्के लहजे में यह बात कही जा सकती है कि इंका नेता सोनिया गाँधी के खिलाफ शुरू से जहर उगलने वाली भाजपा अब अपना रवैया बदल रही है। तभी तो उमा भारती ने खुद को राहुल गाँधी की बुआ बताया। यानि सोनिया गाँधी को उन्होंने अपनी भाभी स्वीकार कर लिया। जहाँ तक राहुल गाँधी के चुनाव प्रचार का प्रशन् है तो उनसे पहला सवाल तो यही पूछा जाता है कि लम्बे समय तक उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज रही इंका के बावजूद उत्तर प्रदेश का विकास नहीं हो सका। जिसका जवाब राहुल यह कहकर देते हैं कि वे अपना पूरा ध्यान उत्तर प्रदेश पर केंद्रित करेंगे और वे इसे विकसित करके रहेंगे। वे क्या कर पाते हैं और कितना सरकार को प्रभावित कर पाते हैं बषर्ते कि उनकी या उनके सहयोग से सरकार बने।

यहाँ एक बात बड़ी महत्वपूर्ण है कि जब प्रदेष में एक विधायक ज्यादा होने से झारखंड राज्य में मुख्यमंत्री बन सकता है तो यह भी माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में जो दल 50-60 सीट भी पा लेता है उसकी सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका हो सकती है। जहाँ तक आम आदमी की फिलहाल समझ का मुद्दा है तो उससे साफ जाहिर है कि उत्तर प्रदेश के आम आदमी को भाजपा के मुहावरे आकर्षित नहीं कर रहे हैं। बहनजी के शासन में उसे गुण्डा राज से तो राहत मिली लेकिन थानों की भूमिका ने उसे नाराज कर दिया। आम आदमी की शिकायत है कि क्षेत्र का विकास करना तो दूर विकास की सारी योजनाओं को एक विशेष वर्ग की सेवा में झोंक दिया गया। बाकी वर्गों के लाभ की बहुत सी योजनाओं की घोषणा तो की गयी लेकिन उनका क्रियान्वन उस तत्परता से नहीं हुआ जैसा दलित समाज से सम्बन्धित स्मारकेां का किया गया। इससे सवर्ण समाज को संतुष्ट नहीं किया जा सका। ऐसे में यह साफ नजर आ रहा है कि इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव के नतीजे चैंकाने वाले होंगे।

Monday, January 16, 2012

बिग बॉस में नया बवाल

पोर्नोग्राफी या अश्लील साहित्य या वास्तविक सैक्स पर आधारित कामोत्तोजक फिल्मों के कारोबार से जुड़ी दुनिया भर में मशहूर भारतीय-कनाडाई मूल की कामोत्तोजक सिने कलाकार सुश्री सनी लिओन ने भारतीय टेलीविजन के विवादास्पद शो ‘बिग बॉस’ में आकर एक नया बवाल पैदा कर दिया है। जिस तरह इस महिला को इस शो में लाकर महिमा मण्डित किया गया उससे उसकी कामोत्तोजक वेबसाइट की सैक्स बाजार में माँग अचानक कई लाख गुना बढ़ गयी। इससे उत्साहित सनी लिओन का शो में दावा था कि अब वे इस शो की आमदनी से भी कई सौ गुना ज्यादा कमा रही हैं। ऐसा सनी लिओन ने तब कहा जबकि शो के भागीदारों ने सनी लिओन के अतीत को अनदेखा करने की विनम्र पेशकश की। इस पर सनी लिओन का मुँहफट जवाब था कि मुझे अपने अतीत की चर्चा पर कोई चिन्ता नहीं है और मैं यह काम भविष्य में भी गर्व के साथ करती रहूँगी। मुझे अपने आलोचकों की कोई परवाह नहीं है।

‘ब्रॉडकास्टिंग कन्टैन्ट कम्प्लैन्ट काउंसिल’ में जब बिग बॉस दिखाने वाले चैनल के विरूद्ध सनी लिओन की मार्फत पोर्नोग्राफी को बढ़ावा देने की शिकायत की गयी तो भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति माकण्र्डेय काटजू सनी लिओन की रक्षा में खड़े हो गये। उनका कहना था कि जनता को सनी लिओन के अतीत को लेकर इतना उत्तेजित नहीं होना चाहिये। जबकि हमारा इतिहास गवाह है कि आम्रपाली जैसी वैश्या भगवान बुद्ध के सम्पर्क में आकर बौद्ध भिक्षुणी बन गयी थी। उधर मैेरी मैग्डालेन नामकी वैश्या भी ईसा मसीह के सम्पर्क में आकर उनकी आध्यात्मिक शिष्या बन गयी थी। यह तुलना सही नहीं है। आम्रपाली और मैरी को जब सत्संग मिला तो उनका हृदय परिवर्तन हो गया। हरि को भजे सो हरि का होये। जब कोई भक्त बन ही गया और आध्यात्मिक मार्ग पर चल पड़ा तो उसके अतीत की कोई सार्थकता नहीं रह जाती है। ऋषि वाल्मीकि को संसार उनके आध्यात्मिक जीवन और उनके द्वारा रचित संस्कृत रामायण के माध्यम से जानता है न कि उनके उस अतीत से जब वे डाकू थे। जबकि सनी लिओन ने न तो आध्यात्मिक शिष्य बनना स्वीकार किया है और न ही वे वाल्मीकि ऋषि की तरह संत बनी हैं। वे तो डंके की चोट पर अपने सैक्स कारोबार की दुनिया भर में बढ़-चढ़ कर मार्केटिंग कर रही हैं । समझ में नहीं आता कि ऐसी महिला के बारे में हुई शिकायत पर न्यायमूर्ति काटजू इतने उखड़ क्यों गये ? क्यूँ वे बढ़-‘चढ़ कर सनी लिओन की रक्षा में उतरे ?

जबकि अभिव्यक्ति की आजादी और मीडिया के आचरण को लेकर लगातार उनके पास हजारों ऐसी शिकायतें आती हैं, जो इससे कहीं ज्यादा संवेदनशील मुद्दों को उठाती हैं। ऐसी शिकायतों का प्रेस काउंसिल में भण्डार लगा पड़ा है। उनको खंगालने में और उन पर कार्यवाही करने की जहमत क्यों नहीं उठायी जाती ? जबकि इन शिकायतों का सरोकार समाज के एक बड़े वर्ग से होता है। इस मामले में तो श्री काटजू के पास कोई शिकायत भी नहीं आयी थी। फिर वे क्यों इतने उत्तेजित हो गये कि उन्होंने सनी लिओन को सार्वजनिक रूप से बचाने का जिम्मा ले लिया। इससे वे क्या संदेश देना चाहते हैं ?

दरअसल ‘बिग बॉस’ जैसा फूहड़ टी वी शो मनोरंजन के नाम पर एक ऐसी संस्कृति परोस रहा है, जिससे समाज का अहित हो रहा है। एक घर में विभिन्न पृष्ठ भूमि के 12 लोगों को कैद करके रखना और उनके निजी व्यवहार को सार्वजनिक रूप से दिखाना बड़ी बेतुकी सी बात लगती है। एक करोड़ रूपया जीतने के लालच में ये लोग कुटिलता का आचरण करते हैं और एक दूसरे के साथ ऐसा भौंडा व्यवहार करते हैं, जो सभ्य समाज का हिस्सा नहीं है। यह एक काल्पनिक परिस्थिति है। ऐसा कब होता है जब इस तरह के लोगों को  मजबूरन शेष समाज से काटकर एक दड़बे में बन्द कर दिया जाये ? मसलन कोई हवाई दुर्घटना में बचे हुए यात्री किसी जंगल में फँस जाये या पानी का जहाज डूबने से उसके यात्री समुद्र में किसी निर्जन टापू पर अलग-थलग पड़ जायें। ऐसी विषम परिस्थिति में भी लोग ऐसा आचरण नहीं करते, जैसा बिग बॉस में दिखाया जाता है।

आपको याद होगा कि तीन दशक पहले अर्जेन्टीना की बर्फ से ढकी पहाड़ियों पर दुर्घटनाग्रस्त हुए हवाई जहाज के 35 यात्री 28 दिनों तक बर्फ में फँसे रहे थे। ठंड और भूख से बेहाल इन यात्रियों ने अनुकरणनीय मानवीय व्यवहार का प्रदर्शन किया था। जब परिस्थिति इतनी विकट हो गयी कि कोई विकल्प ही नहीं बचा तब इन्हें जहाज के मलबे में पड़ी लाशों को मजबूरन काट कर खाना पड़ा। इससे इनके मन में इतनी आत्म-ग्लानि पैदा हुई कि वे डिप्रेशन और मनोवैज्ञानिक बीमारियों का शिकार बन गये ।तब वेटिकन से पोप ने इनको इस कृत्य के लिये आम माफी देकर इन्हें दया का पात्र बताया था। कारगिल की बर्फ से ढकी पहाड़ियों पर तैनात हमारे फौजी हों या ओ एन जी सी के तेल निकालने के कूँए पर समुद्र में तैनात इंजीनियर या उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पर जाने वाले खोजी दल, नितांत अकेले रहकर भी यह समूह मानवीय व्यवहार खोते नहीं बल्कि अपने श्रेष्ठ गुणों का प्रदर्शन करते हैं। बिग बाॅस के घर में रहने वालों की तरह फूहड़ प्रदर्शन नहीं करते।

कितने आश्चर्य और दुर्भाग्य की बात है कि जिस देश में टेलीविजन का आगमन लोगों की शिक्षा, स्वस्थ मनोरंजन और आर्थिक विकास के लिये माहौल तैयार करने के उद्देश्य से किया गया था, वहाँ आज ‘बिग बाॅस’ जैसे कार्यक्रम समाज को पतन की ओर ले जा रहे हैं। उधर न्यायमूर्ति काटजू ने पदभार सँभालते ही पत्रकारों की योग्यता और विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किये थे। जिस पर मीडिया की तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। पर हमने अपने इसी कॉलम में उनके कुछ विचारों का समर्थन किया था। पर सनी लिओन के मामले में अकारण कूद कर न्यायमूर्ति काटजू ने प्रेस परिषद के अध्यक्ष के नाते अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर जो टिप्पणी की है, उसका कोई अच्छा संदेश नहीं गया।

Monday, January 9, 2012

प्रवासी दिवस : न खुदा ही मिला न विसाले सनम

एक और प्रवासी दिवस सम्पन्न हो रहा है। इण्डिया शाइनिंग के दौर में राजग की सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसकी नींव डाली थी। उद्देश्य था बाहर बसे भारतीयों को देश में निवेश के लिये प्रोत्साहित करना। आकड़े बताते हैं कि इस दिशा में कुछ भी उल्लेखनीय हासिल नहीं हुआ। यह दूसरी बात है कि प्रवासी भारतीयों के निवेश को आकर्षित करने के लिये भारत के सभी प्रमुख राज्यों के मुख्यमंत्री इस कार्यक्रम में अपनी दुकान सजाने जरूर आते हैं। इनमें भी सबसे ज्यादा सक्र्रिय रहे हैं, बिहार के मुख्यमंत्री। पर क्या वे उल्लेखनीय निवेश आकर्षित कर पाये ? उत्तर है नहीं। दूसरी तरफ देश में अजय पीरामल जैसे उद्योगपति हैं जो लगभग 22 हजार करोड़ रूपया दो वर्षों से बैंक में रखे बैठे हैं। क्योंकि उन्हें भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश करने का हौसला नहीं पैदा हो रहा। वे देश के माहौल को देखकर सोचते हैं कि क्यों न यह निवेश चीन जैसे किसी देश में किया जाये।

श्री पीरामल अकेले नहीं हैं। उनके जैसे दूसरे तमाम उद्योगपति हैं जो बाहर निवेश करने में होड़ लगाये हुए हैं। दूसरी तरफ देश में ही मध्यमवर्गीय निवेशक भी लाखों की तादाद में हैं, जो अफ्रीका, पूर्वी यूरोप और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में लघु या मध्यमवर्गीय उद्योग लगा रहे हैं। व्यापारी तो वहीं जायेगा न जहाँ उसे लाभ दिखायी देगा। उसकी निष्ठा किसी देश की सीमाओं से ज्यादा अपने मुनाफे में होती है। इसलिये इन्हें दोष नहीं दिया जा सकता।

पर सवाल उठता है कि अगर भारत में ही इतने सारे निवेशक मौजूद हैं तो हमें प्रवासी भारतीयों के पीछे दौड़ने की क्या जरूरत है ? पिछले 12 वर्षों से हम प्रवासी दिवस पर करोडों रूपया खर्च करते आ रहे हैं। न तो इससे भारत में निवेश बढा और न ही भारत की साख।  जरूरत इस पर विचार करने की है। दरअसल देश के आधारभूत ढांचे में अभी बहुत कमी है। सड़कें, बिजली की आपूर्ति, कानून और व्यवस्था की स्थिति और नौकरशाही का थका देने वाला रवैया किसी बाहरी निवेशक को यहाँ आकर्षित नहीं कर पाता। इसलिये प्रवासी दिवस में दुकान लगाने की बजाय प्रांतों के मुख्यमंत्रियों को अपने प्रांतों में आधारभूत संरचना को सुधारने का काम प्राथमिकता से करना चाहिये। अगर ऐसा होगा तो निवेशक स्वयं ही दौड़े चले आयेंगे। फिर वे चाहें देशी हों या प्रवासी। फिर वो चाहें राजस्थान हो या बिहार।

तकलीफ की बात यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ शोर तो बहुत मचता रहता है, पर उस शोर से अभी तक सरकारों पर इतना असर नहीं पड़ा कि वे अपने तौर-तरीके में बदलाव लायें। नतीजतन हम सारी संभावनाओं के होते हुए भी आर्थिक प्रगति की दौड़ में चीन से पिछड़ते जा रहे हैं। चीन हमारी अर्थव्यवस्था पर हावी होता जा रहा है। हम डर व्यक्त करते हैं। अपनी सरकारों को कोसतेे भी हैं। पर अपने हालात सुधारने के लिये आगे नहीं आते। आधारभूत ढांचे को सुधारने के लिये आजादी के बाद से आज तक अरबों रूपया खर्च हो चुका है, पर खर्चे के मुकाबले में हमारी उपलब्धि नगण्य रही है। निवेश नहीं होता तो रोजगार का सृजन भी नहीं होता। जिससे युवाओं में भारी हताशा फैलती है और वे हिंसक प्रतिरोध के लिये सड़कों पर उतर आते हैं। कभी वे नक्सलवादी बनते हैं, कभी माक्र्स लेनिन वादी और कभी तालिबान बनते हैं तो कभी अपराधी। यह खतरनाक प्रवृत्ति है।

प्रवासी दिवस में आने वाले भारतीय भी निवेश को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रहते। वे तो आते हैं यहाँ छुट्टी मनाने और मनोरंजन करने। इस बहाने वे अपने गाँव का दौरा कर लेते हैं और कुछ मौज-मस्ती व सैर-सपाटा भी। हैदराबाद के प्रवासी दिवस में मैं भी 3 दिन रहा था। मुझे प्रवासी भारतीयों से बात करके यही लगा कि वे केन्द्र एवं राज्य की सरकारों के सब्जबागों से प्रभावित नहीं थे। बल्कि आन्ध्र प्रदेश की सरकार के आयोजन की खामियों से नाराज ज्यादा थे। ऐसे में भारत सरकार के ओवरसीज मंत्रालय के विषय में यही कहा जा सकता है कि न खुदा ही मिला, न विसाले सनम। न इधर के रहे, न उधर के रहे। इस मंत्रालय को इस पूरी कवायद की उपयोगिता पर एक निष्पक्ष मूल्यांकन करना चाहिये और इसके प्रारूप में समयानुकूल परिवर्तन कर इसकी लागत घटानी चाहिये और उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये तय किये गये लक्ष्यों को हासिल करने के लिये कुछ नये प्रयास करने चाहिये।

Monday, January 2, 2012

लोकपाल बिल-जन आंदोलन का भविष्य

Rajasthan Patrika 2Jan2012
आज देशवासियों के मन में एक बार फिर हताशा है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध जो माहौल देश में बना था, वह टीम अन्ना के अनुभवहीन महत्वाकांक्षी नेतृत्व और राजनैतिक दलों के रवैये के कारण ठंडा पड़ गया। संसद के विशेष सत्र के बाद यह साफ हो गया है कि कोई भी राजनैतिक दल भ्रष्टाचार के विरूद्ध कठोर कानून बनाने को तैयार नहीं है। इसलिये सारी ऊर्जा मामले को उलझाने में खर्च की गयी। उल्लेखनीय है कि लोकपाल की सारी बहस के बाद बात सी बी आई की स्वायत्तता के ऊपर आ कर अटक गयी। बार-बार संसद में व मीडिया में सर्वोच्च न्यायालय के 1997 के ‘‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार‘‘ फैसले का उल्लेख किया गया। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने सी बी आई की स्वायत्तता के व्यापक निर्देश जारी किये थे। जिनकी अवहेलना करके एन डी ए सरकार ने 2003 में एक लुंज-पुंज सी वी सी एक्ट बना दिया। अगर इस फैसले को ठीक से लागू किया जाता तो न तो इस आन्दोलन की जरूरत पड़ती और न ही लोकपाल कानून विधेयक पेश करने की। विडम्बना यह है कि इतनी बहस के बावजूद किसी भी दल ने इस फैसले को लागू करने की बात नहीं की।
 दरअसल सरकार के जिस लोकपाल विधेयक को कमजोर बताकर दरकिनार किया जा रहा है, उस बिल में अनेक ऐसे प्रभावी प्रावधान किये गये हैं जिनसे भ्रष्टाचार को रोकने में कुछ सीमा तक मदद मिलेगी और बाकी का सुधार आने वाले वर्षों में अनुभव के आधार पर किया जा सकता है।
लेकिन विपक्ष इसका राजनैतिक लाभ लेना चाहता है। विशेषकर भाजपा। जिसने सिविल सोसायटी के मंचों पर तो लोकायुक्त की माँग का समर्थन किया था और संसद में इसका विरोध। सी बी आई की स्वायत्तता को लेकर जितना हल्ला भाजपा मचा रही है, उसके पर कतरने का काम उन्हीं की एन डी ए सरकार ने 2003 में सीवीसी एक्ट के माध्यम से किया था। इसलिये भाजपा के पास इस बिल पर हमला करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। दूसरी तरफ यूपीए सरकार ने भी भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को निपटाने का काम बिना संजीदगी के किया। जिससे उसके इरादों पर शक पैदा होने लगा। अन्ना के पहले धरने से लेकर और संसद में फ्लोर मैनेजमेंट तक ऐसा नहीं लगा कि काॅग्रेस की रणनीति स्पष्ट हो। ऐसे में अब दो ही रास्ते बचते हैं, एक तो यह कि बजट सत्र में यूपीए सरकार संसद के दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाकर इस बिल को फिर से पेश कर सकती है, जैसा कि वो कह भी रही है। दूसरा यह कि वह सीबीआई की स्वायत्तता केा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार स्थापित कर दे। जिससे जन लोकपाल बिल के काफी प्रावधानों की जरूरत ही नहीं बचेगी और न ही राजनैतिक दलों को इस बिल के ऊपर ज्यादा विरोध करने की। इससे प्रमुख दलों की यह माँग भी पूरी हो जायेगी कि सरकार सी बी आई को अपने शिकंजे से मुक्त करे।
जहाँ तक जन आन्दोलन का प्रश्न है, श्री हजारे का मुम्बई और दिल्ली का उपवास उनकी अपेक्षा के विपरीत विफल रहा और वह धैर्य खो बैठे। इससे यह स्पष्ट हो गया कि जनता का विश्वास टीम अन्ना के नेतृत्व से हट गया हैं। जनता उनसे भ्रष्टाचार के मुददे पर जुड़ी थी पर टीम अन्ना ने उसे राजनैतिक रंग दे दिया है। यह जानते हुए भी कि लोकपाल विधेयक को पारित करने में कोई भी दल गंभीर नहीं है, टीम अन्ना एक ही दल के विरोध में खड़ी दिखायी दे रही है। इससे उसकी साख काफी गिरी है। लोगों को समझ में आ गया है कि भ्रष्टाचार के विरोध के झण्डे के पीछे व्यक्तिगत राजनैतिक महत्वाकांक्षा छिपी है।

पहले बाबा रामदेव और फिर अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के असफल होने से भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को गहरा आघात लगा है। जनता बदलाव चाहती है, इसलिये यह लड़ाई तो कभी धीमी और कभी तेज चलती रहेगी, पर व्यावहारिक ज्ञान, सही दृष्टि और अनुभव से युक्त नेतृत्व ही इस संघर्ष को सही दिशा दे पायेगा। अन्यथा टीम अन्ना तो अपना रूख साफ कर चुकी है कि वह आगामी चुनावों में काॅग्रेस का विरोध करेगी और जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा। भाजपा टीम अन्ना के सदस्यों को मालायें पहनाकर एवं जिन्दा शहीद घोषित कर अपने मंचों पर ले जायेगी और उनसे अपना चुनावी प्रचार करवा लेगी। पर इससे टीम अन्ना की रही सही साख भी समाप्त हो जायेगी। इसलिये देश के चिन्तनशील और अनुभवी लोगों के जाग्रत होने की जरूरत है। आवश्यकता इस बात की है कि देश के समझदार और संघर्षशील लोग खुले दिल व दिमाग से, इकट्ठा होकर एक मंच पर आयें। उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ इस मुहिम को और आगे ले जाना चाहिये। इससे धीरे-धीरे देश की परिस्थितियाँ सुधरेंगी एवं भ्रष्टाचार के विरूद्ध मुहिम को सही दिशा व गति मिलेगी।
टीम अन्ना केवल लोकपाल बनाने की माँग पर अड़ी रही है। जबकि हकीकत यह है कि दुनिया में कोई भी अपराध कानून बनाने से मात्र 5 फीसदी तक कम होता है। भ्रष्टाचार के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। इसके अलावा अन्य मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक उपाय भी करने पड़ते हैं जिनका कि कोई जिक्र टीम अन्ना ने अपने आंदोलन में नहीं किया। उनका दुराग्रह देश के लोगों को अच्छा नहीं लगा। भविष्य में जन-आंदोलनों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि वे सामाजिक सारोकार के मुद्दों को राजनैतिक जामा न पहनायंे। तभी बात आगे बढेगी वरना देश में फिर हताशा फैल जायेगी।

Sunday, December 18, 2011

विकास के साथ राजनीति

राजस्थान पत्रिका 18 Dec
यूरोप व अमेरीका की मंदी के बाद पूरी दुनिया की निगाहें भारत और चीन पर टिकी हैं। पर अब कहा जा रहा है कि मंदी भारत के दरवाजे पर भी दस्तक दे रही है। खाद्य पदार्थों की कीमत में आई गिरावट और ऑटोमोबाइल बाजार की मांग में गिरावट को इसका संकेत माना जा रहा है। गौरतलब बात यह है कि जब महंगाई बढ़ती है तो विपक्ष और मीडिया इस कदर तूफान मचाता है कि मानो आसमान टूट पड़ा हो। वह यह भूल जाता है कि जहां मुद्रास्फिति डकैत होती हैं वहीं मुद्रविस्फिति हत्यारी होती है। लूटा हुआ आदमी तो फिर से खड़ा हो सकता है पर जिसकी हत्या हो जाए वह क्या करेगा ? इसलिए महंगाई को विकास का द्योतक माना जाता है। इसीलिए पिछले दिनों जब महंगाई बढ़ी और विपक्ष एवं मीडिया ने आसमान सिर पर उठा लिया तो सरकार ने चेतावनी दी थी कि महंगाई कम करने के चक्कर में मंदी आने का डर है।
विपक्ष के पास भी अर्थशास्त्रियों की कमी नहीं है। वह जानता था कि सरकार की बात में दम है पर महंगाई के विरोध में शोर मचाना हर विपक्षी दल की राजनैतिक मजबूरी होती है। मजबूरन सरकार ने कुछ मौद्रिक उपाए किए जैसे बैंकों की ब्याज दर बढ़ाई। ब्याज दर बढ़ने से लोग उधार कम लेते हैं जिससे मांग में कमी आती है और कीमतें गिरने लगती है। सरकार की मौद्रिक नीति के अपेक्षित परिणाम सामने आए,पर यह हमारी अर्थ व्यवस्था के लिए ठीक नहीं रहा।
 पिछले दिनों भारत पूरी दुनिया में अपनी आर्थिक मजबूती का दावा करता रहा है। विदेशी मुद्रा के भण्डार भी भरे हैं। वैश्विक मंदी के पिछले वर्षों के झटकें को भी भारत आराम से झेल गया था। ये बात विदेशी ताकतों को गवारा नहीं होती इसलिए वे भी मीडिया में ऐसी हवा बनाते हैं कि सरकार रक्षात्मक हो जाए। कुल मिलाकर यह मानना चाहिए कि अगर मंदी की आहट जैसी कोई चीज है तो उसके लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने महंगाई पर शोर मचाकर विकास की प्रक्रिया को पटरी से उतारने का काम किया है। उदाहारण के तौर पर खाद्यान्न की महंगाई से किसको परेशान होना चाहिए था ? देश के गरीब आदमी को ? पर इस देश की 68 फीसदी आबादी जो गांव में रहती है, खाद्यान्न की महंगाई से उत्साहित थी क्योंकि उसे पहली बार लगा कि उसकी कड़ी मेहनत और पसीने की कमाई का कुछ वाजिब दाम मिलना शुरू हुआ। क्योंकि यह आबादी खाद्यान्न के मामले में अपने गांवों की व्यवस्था पर निर्भर है। शोर मचा शहरों में। शहरों के भी उस वर्ग से जो किसान और उपभोक्ता के बीच बिचैलिए का काम कर भारी मुनाफाखोरी करता है। उस शोर का आज नतीजा यह है कि आलू और प्याज 1 रूपया किलों भी नहीं बिक रहा है। किसानों को अपनी उपज सड़कों पर फेंकनी पड़ी रही है। भारत मंदी के झटके झेल सकता है, अगर हम आर्थिक नीतियों को राजनैतिक विवाद में घसीटे बिना देश के हित में समझने और समझाने का प्रयास करें तो।
 वैसे भी मंदी तब मानी जाए जब आर्थिक संसाधनों की कमी हो। पर देश का सम्पन्न वर्ग, जिसकी तादाद कम नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर से भी ऊंचा जीवन-यापन कर रहा है। जरूरत है साधन और अवसरों के बटवारें की। उसके दो ही तरीके हैं। एक तो साम्यवादी और दूसरा बाजार की शक्तियों का आगे बढ़ना। इससे पहले कि मंदी का हत्यारा खंजर लेकर भारतीय अर्थ व्यवस्था के सामने आ खड़ा हो, देश के अर्थशास्त्रियों को उन समाधानों पर ध्यान देना चाहिए जिनसे हमारी अर्थ व्यवस्था मजबूत बने। वे एक सामुहिक खुला पत्र जारी कर सभी राजनैतिक दलों से अपील कर सकते हैं कि आर्थिक विकास की कीमत पर राजनीति न की जाए।

Monday, December 12, 2011

अभिव्यक्ति पर बंदिश

Rajasthan Patrika 11Dec
जबसे टेलिकॉम मंत्री कपिल सिबल ने फेस बुक पर सेंसर लगाए जाने की बात की है, तब से इंटरनेट से जुड़े देश के करोड़ों लोगों में उबाल आ गया गया है। श्री सिबल ने इससे पहले इंटरनेट कंपनियों के मालिकों से बात की थी। सरकार ने गुगल, याहू, माइक्रोसाफ्ट व फेस बुक के अधिकारियों से कहा था कि वे अपनी इन साइट्स पर से कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह व मोहम्मद साहब से जुड़ी अपमानजनक, भ्रामक व भड़काऊ सामग्री हटाए। पर इन अधिकारियों का जवाब था कि अगर कोई सामग्री धार्मिक भावनाएं भड़काती हैं या उससे सुरक्षा को खतरा है तो वे उसे हटाने को तैयार हैं पर लोगों की राय और टिप्पणियां हटाना उनके लिए संभव नहीं है। यह बात श्री सिबल को नागवार गुजरी। उन्होंने आनन-फानन में घोषणा कर डाली कि इस मामले में अब सरकार ही पहल करेगी। उनके इस वक्तव्य को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में दखलंदाजी माना जा रहा है। अब यहां कई प्रश्न खड़े होते हैं।

पहली बात तो यह कि दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में अब यह चलन आम हो गया है कि जनता राजनेताओं या मशहूर हस्तियों के संबंध में अपनी राय खुलकर, बेधड़क सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर व्यक्त करतीं हैं। यह तकनीकी का कमाल है कि कोई घटना घटित होते ही दुनिया भर से हजारों-लाखों लोग उस पर अपनी प्रतिक्रिया देने लगते हैं। मसलन, क्रिकेट मैंच हारने वाली टीम को उसके प्रशंसक इतना जलील करते हैं कि बिचारे खिलाड़ी मुंह दिखाने लायक न बचें।

पर सबसे ज्यादा लक्ष्य राजनेताओं को बना कर टिप्पणियां की जाती हैं। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होने के बावजूद राजनेताओं का सम्वाद जनता से लगभग टूट जाता है क्योंकि व्यवहारिक रूप से भी एक राजनेता के लिए यह संभव नहीं होता कि वो हर व्यक्ति से व्यक्तिगत वार्ता कर सके। ऐसे में उसके मतदाता उसके प्रति अपने विचार और आक्रोश सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अब अभिव्यक्त करने लगे हैं। लोकतंत्र के नजरिए से इसे एक अच्छी शुरूआत माना जाना चाहिए क्योंकि लोगों की राय जानने के बाद राजनेता या मंत्री अपना स्पष्टीकरण दे सकते हैं और अगर उनके आचरण में कोई कमी है तो उसे दूर कर सकते हैं। अगर इतना ही हो तो सेंसर की कोई जरूरत नहीं है।

पर पिछले दिनों देखने में आया है कि राजनैतिक दल और सिविल सोसायटी के कुछ समूह बहुत सारे प्रोफेशनल्स को महंगे वेतन देकर इसी काम में लगा रखे हैं जो उनके विरोधियों के मुंह काले करें। कॉल सेंटर की तरह आउटसोर्स किए जाने वाले ये टेलेंट्स तालिबान की तरह आक्रामक होते हैं। इनकी भाषा और अभिव्यक्ति इतनी हमलावर और घातक होती है कि इनका लक्ष्य तिलमिला कर रह जाता है। अक्सर देखने में आ रहा है कि इस तरह से एक अभियान चला कर हमला करने वालों की फौज बिना तथ्यों की तहकिकात किए हमला बोल देते हैं और बिना प्रमाण के आरोपों के बौछार कर देते हैं। बात यहीं तक नहीं रूकी। अपने अभियान में ये समूह इस हद तक आगे चले जाते हैं कि सामने वाले का चरित्र हनन करने या अश्लीलता की हद तक उस पर कीचड़ उछालने में संकोच नहीं करते। चूंकि इन हमलावरों को सीधे पकड़ना संभव नहीं है इसलिए इनके विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं हो पाती। फिर जरूरी नहीं कि हमलावरों की यह टोली उसी देश में बैठी हो जिस देश के नेतृत्व को लक्ष्य बना कर ये हमला कर रहे हों। इंटरनेट की दुनिया में सूचना का आदान-प्रदान सेंकेंड़ों में एक देश से दूसरे देश को हो जाता है। टिप्पणी सही हो या गलत आनन-फानन में आग की तरह पूरी दुनिया में फैल जाती है। फिर प्रतिष्ठा का जो नुकसान होता है उसकी भरपाई करना आसान नहीं है। शायद इस परिस्थिति से निपटने के लिए ही टेलीकॉम मंत्री सिबल ने यह कदम बढ़ाया है।

पर उनके आलोचक उनसे तीखे सवाल पूछ रहे हैं, मसलन, जब इन साइट्स पर अत्यंत अश्लील और समाज के लिए हानिकारक सामग्री प्रचारित होती है तब मंत्री महोदय कहां सोए रहते हैं ? जब भ्रष्टाचार के मामलों में सबूत के बावजूद हर दल के केन्द्रीय और प्रांतीय सरकारें आरोपियों को बचाने में लगी रहती हैं, तब जनता क्या करें ? क्या अपनी भड़ास भी न निकाले। बात यह भी कही जा रही है कि अगर ऐसी भड़ास न निकालने दी गई तो फिर जनता हिन्सक होकर सड़कों पर भी निकल सकती है। इसलिए उन्हें सलाह दी जा रही है कि वे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर शिकंजा कसने की बजाय अपनी सरकार की छवि सुधारने का काम करें। इन आरोपों में दम हैं। पर फिर सवाल उठता है कि क्या यह प्रतिक्रिया वास्तव में उन लोगों की है जो मतदाता हैं, पीड़ित हैं और नाराज हैं ? या फिर उन लोगों की है जो भाड़े के टटू हैं और किसी एक दल या समूह के राजनैतिक लाभ के लिए इस हमले में जुड़े हैं। अगर ऐसा है तो यह प्रवृत्ति ठीक नहीं क्योंकि राजनैतिक हमले की जगह संसद है। छिप कर वार करना ठीक नहीं। इसलिए कि अगर यह प्रवृत्ति बढ़ती गई तो फिर इस आग की लपेट से कोई नहीं बचेगा। हर दल, हर राजनेता और हर जागरूक समूह ऐसे हमलों का शिकार बन सकता है। इससे समाज में भारी अराजकता फैलेगी।

आवश्यकता इस बात की है कि इस मामले पर देशभर में एक बहस छेड़ी जाए जिसके बाद इस खेल के नियम तय हों, इस माध्यम को स्वस्थ्य लोकतांत्रित परम्पराओं के विस्तार के लिए अवश्य इस्तेमाल किया जाए। अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश न लगे पर भाड़े के टटू इसे राजनैतिक हथियार के रूप में प्रयोग न करें। ये पहल भी समाज को करनी होगी सरकार को नहीं।

Monday, December 5, 2011

क्या दक्षिणी चीन में संघर्ष होगा ?


Rajasthan Patrika 4Dec

पिछले दिनों चीन और भारत के बीच हुए वाक युद्ध को गंभीरता से लिया जाए तो इस बात की संभावना बनती है कि निकट भविष्य में भारत और चीन के बीच संघर्ष विकसित हो सकता है। पर इससे पहले कि स्थिति बिगड़े दोनों ही देशों को दक्षिणी चीन सागर की हकीकत को समझना होगा। चीन इस बात से नाराज है कि भारत के तेल व प्राकृतिक गैस आयोग की विदेशी शाखा ओ.वी.एल. वियतनाम के साथ मिलकर इस सागर में तेल की खुदाई का काम तेजी से आगे बढ़ा रही है। पिछले दिनों जब भारत के विदेश मंत्री श्री एस.एम. कृष्णा हनोई गए थे तो वहां उनके और चीन के बीच इस विषय पर जो बयानबाजी हुई उससे चीन सहमत नहीं था। चीन इस क्षेत्र में अपने वर्चस्व को कायम रखना चाहता है और इस बात से खफा है कि वियतनाम, फिलीपिन्स जैसे देश उसकी चेतावनी के बावजूद भारत और अन्य देशों के साथ मिलकर इस सागर में अपनी आर्थिक गतिविधियां बढ़ा रहे हैं। 

चीन यह भूल जाता है कि वह पाकिस्तान के साथ मिलकर पाक अधिकृत कश्मीर में न सिर्फ महंगे सामरिक प्रोजेक्ट खड़े कर रहा है बल्कि उसने अपनी फौजें भी वहां तैनात कर रखी हैं। पाक अधिकृत क्षेत्र उसी तरह विवादास्पद है जिस तरह दक्षिणी चीन सागर। क्योंकि इस समुद्र को लेकर अमरीका भी अपने ‘राष्ट्रीय हित’ का दावा कर चुका है जिसे चीन मानने को तैयार नहीं हैं और वह इसे निर्विवाद रूप से अपना अधिकार क्षेत्र मानता है। यह बात दूसरी है कि सागर में प्राकृतिक तेल निकालने का जो प्रयास आज चर्चा में आया है उसकी शुरूआत तो मई 2006 में हुई थी जब भारत और वियतनाम के बीच इस आशय का समझौता हुआ था। वैसे इस क्षेत्र से तेल निकाले का काम तो 2003 में ही शुरू हो गया था। तो अब चीन इतना शोर क्यों मचा रहा है ? 

Punjab Kesari 5Dec
जबकि यह बात अंतर्राष्ट्रीय कानूनों में मानी गई है कि तट से 200 नाटिकल मील दूर तक का क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण की दृष्टि से उसी देश का माना जाएगा जिसके तट से सागर लगा होगा। पर इसका अर्थ यह नहीं कि ऐसे समुद्र से व्यावसायिक जल पोतों का आवागमन नहीं होगा। बल्कि उनके स्वतंत्रापूर्वक आने-जाने की आम सहमति है। इतना ही नहीं संचार से जुड़े तार बिछाने की भी छूट सब देशों को है। इसलिए चीन का फड़फड़ाना किसी के गले नहीं उतर रहा है। सामरिक परिस्थितियों के विशेषज्ञों का मानना है कि चीन चाहे फड़फड़ाए जितना वह इस सागर को लेकर कोई बड़ा विवाद खड़ा करने नहीं जा रहा है, जिसका कारण बड़ा साफ है। वियतनाम और भारत के साथ चीन का अरबों रूपए का द्विपक्षीय व्यापार है। वियतनाम के साथ तो चीन के आर्थिक संबंधों की एक लंबी कड़ी है। वियतनात उन अतिविशिष्ट देशों में हैं जहां चीन का विनियोग सबसे ज्यादा है। यह बात दूसरी है कि कुछ विशेषज्ञ भारत से चीन के खिलाफ कड़े कदम उठाने की अपेक्षा रखते हैं। वे कहते हैं कि वियतनाम का तो चीन के खिलाफ लड़ने का इतिहास है। छोटा होते हुए भी वियतनाम दबने वाला नहीं हैं। वियतनाम ही क्यों दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों का महासंघ (आसियान) भी चीन की दादागिरी से विचलित है और चाहता है कि भारत आसियान के पक्ष में सामरिक रूप से खड़ा रहे और चीन के इस सागर में बढ़ते साम्राज्यवादी दावों को खारिज करने में उनकी मदद करे। ऐसे में भारत को बहुत सोच-समझ कर कदम उठाने होंगे।

दरअसल भरत इस मामले में शुरू से सजग रहा है। भारत की नौसेना के 2007 के दस्तावेजों में समुद्र संबंधी भारतीय नीति में अरब सागर से दक्षिण चीन सागर तक के बीच भारतीय हितों को रेखांकित किया गया है। 1910 में भारत उन 12 देशों में से था जिन्होंने अमरीका के इस प्रस्ताव का समर्थन किया कि दक्षिणी चीन सागर का मामला द्विपक्षीय मामला न होकर बहुपक्षीय मामला है। जुलाई 2011 में भी भारत की विदेश सचिव निरूपमा राव ने साफ शब्दों में कहा कि भारत का इस सागर में आर्थिक हित है और भारत इसके स्वतंत्र समुद्री मार्ग होने की बात को समर्थन करता है। 

कारण साफ है कि सागर का यह हिस्सा प्रशांत महासागर और हिन्द महासागर के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी है। एशिया प्रशांत देशों के बीच होने वाले भारत के व्यापार का आधे से ज्यादा हिस्सा इसी समुद्री मार्ग से होकर जाता है। इतना ही नहीं जापान और कोरिया जैसे देशों को उनकी ऊर्जा की आवश्यकतापूर्ति के लिए भारत से की जा रही तेल की आपूर्ति भी इसी मार्ग से होकर की जाती है। अगर चीन इस इलाके पर अपनी दादागिरी जमाता है तो भारत का इन देशों से व्यापार बुरी तरह प्रभावित होगा। इसलिए भारत ऐसा कभी नहीं होने देगा। 

भारत के नौसेना प्रमुख एडमिरल निर्मल वर्मा का यह सुझाव प्रशंसनीय है कि भारत और चीन को दक्षिण चीन सागर के संबंध में एक साझी नौसैनिक समिति का गठन कर देना चाहिए जिससे इस क्षेत्र में आए दिन उठने वाले विवादों का यह समिति गंभीरता से विचार कर समाधान निकाल सके। इससे अनावश्यक संघर्ष की स्थिति पैदा नहीं होगी। यह ठीक वैसी ही समिति होगी जैसी भारतीय सेना और पाकिस्तानी सेना ने मिलकर घुसपैठ बनाई है जो युद्धविराम की स्थिति में यथासंभव विवादों का शांतिपूर्ण हल खोजती रहती है। आज पूरी दुनिया, विशेषकर विकसित राष्ट्र आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहे हैं और चीन एवं भारत भी अपनी आर्थिक प्रगति की दर को कायम रखने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे माहौल में नाहक संघर्ष एशिया के इन दोनों ही देशों की उभरती आर्थिक भूमिका को करारा झटका दे सकता है, जिसके लिए शायद दोनों ही देश तैयार नहीं होंगे।