Tuesday, July 17, 2012

मनरेगा योजना कितनी सफल, कितनी विफल ?

सिक्के के दो पहलू की तरह मनरेगा के भी दो पहलू हैं: एक तरफ तो गरीबों के लिए रोजगार सृजन कार्यक्रम को मिली ऐतिहासिक सफलता और दूसरी तरफ योजना के क्रियान्वन में अनेक कमियां और भ्रष्टाचार। हम दोनों की निष्पक्ष चर्चा करेंगे। पहले प्रधानमंत्री के उस दावे का मूल्यांकन किया जाये जिसमें उन्होंने मनरेगा को गरीबों के हक में आजादी के बाद की सबसे सफल योजना बताया है। ये दावा कहां तक सही है ?
मनरेगा की सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण गुजरात में मिलता हैं। कपड़े की मिलों के लिए भारत का मैनचैस्टर माना जाने वाला गुजरात का शहर सूरत मनरेगा से धीरे-धीरे तबाह हो रहा है। यहां बिहार के हजारों मजदूर कपड़ा मिलों में काम करते थे। पिछले साल दीपावली पर वे घर गये, फिर लौटे नहीं। क्योंकि मनरेगा के चलते अब उन्हें अपने गांव में ही इतना रोजगार मिलने लगा है कि उनके परिवार का गुजारा चल जाता है।

एक समय हरित क्रान्ति का अग्रणी रहा पंजाब गरीब प्रान्तों के मजदूरों के लिए बहुत बड़ा रोजगार देने वाला था। ढोल की थाप पर नाचने वाले सम्पन्न सिख और जाट किसानों के खेतों का काम ये मजदूर किया करते थे। अब हालात बदल गये हैं। अब बिहार, मध्य प्रदेश आदि राज्यों से आने वाली जनता रेल गाड़ियों में मजदूरों की खेप नहीं आती। नतीजतन बड़े किसान अपनी मोटर गाड़ियां लेकर रोज सुबह रेलवे स्टेशन पर खड़े होते हैं। इस उम्मीद में कि जिन मजदूरों पर भी हाथ लग जाये, उन्हें झपट लिया जाये। इस चक्कर में कई बार इन बड़े किसानों के आपस में झगड़े और मारपीट भी हो जाती है। यह है मनरेगा की सफलता का एक और नमूना।

सुनने में यह अटपटा लगेगा पर विचारने का बिन्दु जरूर है। अगर हम नक्सलवादी विचारधारा के अनुसार अमीरों की अमीरी उनसे छीनकर गरीबों में नहीं बांट सकते, तो क्यों ना गरीबी का देशभर में समान बंटवारा कर दिया जाये। मतलब ये कि ऐसा ना हो कि एक जगह के गरीब तो बच्चे बेचकर और पेड़ों की जड़े पकाकर पेट भरें और दूसरी तरफ देश में गरीबी का मापदंड बढ़ते जीवन स्तर से मापा जाये। मनरेगा ने यही किया है। राष्ट्रीय संसाधनों का इस योजना ने इस तरह बंटवारा किया है कि देश के हर हिस्से में रहने वाले गरीब मजदूरों को साल मंे कम से कम सौ दिन के रोजगार की गारंटी मिल गई है। इसका सीधा असर कस्बों के स्तर तक देखने को मिल रहा है। पहले कस्बों और छोटे शहरों में दिहाड़ी मजदूर 80 रूपये रोज में मिल जाते थे। अब ढाई सौ रूपये से कम का मजदूर नहीं मिलता। इतना ही नहीं अब हर क्षेत्र में रोजगार मांगने वालांे की अपेक्षाएं और वेतन बढ़ गये हैं। जाहिरन इससे उनका जीवन स्तर भी बढ़ा है। 

इस तरह मनरेगा के कारण देशभर में दैनिक मजदूरी में औसतन 81 फीसदी का इजाफा हुआ है। यह अपने आप में अकेली घटना नहीं है। क्योंकि जब मजदूरों की मजदूरी बढ़ी तो अन्य क्षेत्रों में काम करने वाले निचले दर्जे के कर्मचारियों की वेतन वृद्वि की मांग भी बढ़ गई। कुल मिलाकर पूरे देश में गरीबों और निम्न वर्ग को मनरेगा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बहुत बड़ा फायदा हुआ है। इस उपलब्धि को कम करके नहीं आंका जा सकता। रोजगार की मंडी का मजदूरों के हक में हो जाना किसी क्रान्ति से कम नहीं। यह क्रान्ति विचारधारा की या व्यवस्था के विरूद्व बगावत की घुट्टी पिलाकर नहीं आई। यह आई है मनरेगा की सोची समझी कार्य योजना के कारण निश्चित तौर पर सरकार ने जिससे भी यह योजना बनवाई उसने अब तक की ऐसी सभी योजनाओं को पीछे छोड़ दिया, जिनमें गरीबी दूर करने का लक्ष्य रखा जाता था। इसीलिए सरकार के इस कार्यक्रम का आज पूरी दुनियां में अध्ययन किया जा रहा है। इसलिए प्रधानमंत्री या कांग्रेस सरकार का अपनी पीठ ठोकना नाजायज नहीं है।

पर ऐसा नहीं है कि मनरेगा में सब कुछ सोने की तरह चमक रहा है। अनेक खोट भी है। ग्रामीण स्तर पर मनरेगा के तहत जो कार्य योजनाएं बनाई जा रही हैं इनकी उपयोगिता और सार्थकता पर कई जगह प्रश्न चिन्ह लगाये जा रहे हैं। वेतन के भुगतान में देरी। करवाये जा रहे काम की गुणवत्ता में स्थान-स्थान पर अन्तर होना। मनरेगा के क्रियान्वन में ग्राम प्रधान से लेकर जिलाधिकारी तक का अक्सर घपले घोटालों में फंसा होना। मजदूरों के पंजीकरण में फर्जीवाड़ा। खर्च का सही हिसाब न रखना। कुछ ऐसे दोष हैं जो मनरेगा के क्रियान्वन के काफी मामलों में सामने आये हैं। जिन की सरकार को जानकारी है और इनका निराकरण किया जाना चाहिए। यह बात दूसरी है कि मनेरगा का क्रियान्वन प्रान्तीय सरकारों के हाथ में है। जिन राज्यों में आम लोगों में जागरूकता है और प्रशासन में जिम्मेदारी का माद्दा ज्यादा है, वहां यह योजना ज्यादा सफल हुई है। जहां ऐसा नहीं है और ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार और कोताही का बोलबाला है वहां मनरेगा मुह के बल गिरी है। पर इसके लिए केन्द्र सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह कहना भी गलत होगा कि यह योजना कारगर नहीं है।
विपक्षी दल मनरेगा को नकारते हैं। उनका आरोप है कि यह कागजी योजना है। जमीनी हकीकत इससे कोसो दूर है। वे यह भी कहते हैं कि अगर पांच करोड़ लोगों को इससे लाभ मिलने का जो दावा किया जा रहा है, उसे सही भी मान लिया जाये, तो इससे गरीबी तो दूर नहीं हुई। बाकी 10 करोड़ लोगों को तो कुछ नहीं मिला। यहां सवाल उठाया जा सकता है कि गिलास को आधा भरा देखें या आधा खाली। एक तिहाई गरीब लोगों को अगर फायदा मिला है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में सौ फीसदी लोग इसके लाभ के घेरे में आ जायेंगे। सिर्फ इसलिए कि सबकों एक साथ लाभ नहीं मिल सकता, क्या जिन्हें मिल सकता है उन्हें भी न दिया जाये ?

जरूरत है इस योजना के सही और गहरे मूल्यांकन की। इसमें सामाजिक आडिट को बढ़ाने की भी जरूरत है। आधुनिक सूचना तकनीकी का इस्तेमाल करके मनरेगा के काम में पारदर्शिता और पर्यवेक्षण को बढ़ाना चाहिए। देश में पेन्शनयाफ्ता लोगों की एक लम्बी फौज बेकार पड़ी है। स्वास्थ के क्षेत्र में सुधार के कारण लोगों की औसत आयु बढ़ गई है। ऐसे लाखों लोगों को मनरेगा जैसी जनहित की योजनाओं के क्रियान्वन में कार्यकुशलता सुनिश्चित करने के काम में लगाया जा सकता है। उधर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्षा सोनिया गांधी इस कार्यक्रम को लेकर बहुत सतक्र हैं। क्योंकि वे जानती हैं कि आम जनता के हित का यह कार्यक्रम अगर पूरी तरह सफल हो गया तो सामाजिक आर्थिक विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी। इसलिए मनमोहन सिंह की सरकार भी दबाव में है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मनरेगा का अगला संस्करण इन कमियों को दूर करने की तरफ ध्यान देगा।

Monday, July 16, 2012

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस क्यों पिट रही है ?

हाल ही में उत्तर प्रदेश की महापलिकाओं और नगरपालिकाओं के चनावों के नतीजे आये हैं। एक बार फिर कांग्रेस का सूपणा साफ हो गया है। विधानसभ चुनाव के बाद कांग्रेस के नेताओं को प्रान्त में अपनी दुर्दशा की तरफ ध्यान देना चाहिए था। पर लगता है कि आपसी गुटबाजी और राष्ट्रीय स्तर पर किसी स्पष्ट दिशानिर्देश के अभाव में उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी लावारिस हो गये हैं। न तो उनका संगठन दुरूस्त है और न ही उनमें जनहित के मुद्दों पर लड़ने का उत्साह है। जब स्थानीय कार्यकर्ता और नेता ही उत्साहित नहीं हैं, तो फिर वो नये लोगों को अपने दल की ओर कैसे आकर्षित कर पायेंगे। यानी न तो नेतृत्व चुस्त है और न ही कार्यकर्ता दुरूस्त। ऐसे में कांग्रेस 2014 का चुनाव कैसे लड़ेगी ? क्या उसने अभी से हथियार डाल दिये हैं, या फिर मुलायम सिंह यादव से कोई गुप्त समझौता हो गया है ? जिसके तहत उत्तर प्रदेश सपा को थाली में परोसकर पेश किया जा रहा है।

सरकार चाहें मायावती की हो, अखिलेश यादव की हो या किसी और की, इतनी कार्यकुशल नहीं होती कि प्रदेश की पूरी जनता को संतुष्ट कर सके। बिजली पानी, कानून व्यवस्था जैसे सामान्य मुद्दे ही नहीं बल्कि तमाम ऐसे दूसरे मसले होते हैं, जिन पर जनता का गुस्सा अक्सर उबलता रहता है। कोई भी विपक्षी दल बुद्विमानी से जनता के आक्रोश को हवा देकर और उसकी समस्याओं के लिए सड़कों पर उतर कर जन समर्थन बढ़ा सकता है। लोकतन्त्र में जमीन से जुड़ा जुझारूपन ही किसी राजनैतिक दल को मजबूत बनाता है। लगता है कि दो दशकों से सत्ता के बाहर रहकर उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी हताश और निराश हो गये है। उनमें न तो जुझारूपन बचा है और न ही सत्ता हासिल करने का आत्मविश्वास। ऐसे माहौल में राहुल गांधी के आने से जो उम्मीद जगी थी, वो भी विधानसभा के नतीजों के बाद धूमिल हो गई। राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में महनत तो बहुत की, पर न तो उनके सलाकारों ने उन्हें जमीनी हकीकत से रूबरू कराया और न ही उनके पास समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज थी, जो मतदाताओं को तैयार कर पाती। ऐसे में राहुल गांधी का अभियान रोड-शो तक निपटकर रह गया।
अगर कांग्रेस 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी सीटंे उत्तर प्रदेश में बढ़ाना चाहती है तो उसे पूरे प्रदेश के ढांचे में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने होंगे। हर जिले में नेतृत्व क्षमता, साफ छवि और जुझारू तेवर के लोगों को जिले की बागडोर देनी होगी। इसी तरह प्रदेश का नेतृत्व कुछ ऐसे नये चेहरों को सौंपना होगा, जो प्रदेश में दल को जमीन से खड़ा कर सकें। पर कांग्रेस दरबारी संस्कृति और गणेश प्रदक्षिणा के माहौल में दिल्ली में बैठे बड़े मठाधीश ऐसे नेतृत्व को स्वीकरेंगें के नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि वे प्रान्त में दल का भला चाहते है या अपना।
पूरा उत्तर प्रदेश विकास के मामले में बहुत पिछड़ा है। फिर भी उद्योगपति यहां निवेश करने को तैयार नहीं है। उन्हें लगता है कि उत्तर प्रदेश के नेताओं की पैसे की भूख व जातिगत मानसिकता किसी भी आर्थिक विकास में बहुत बड़ा रोड़ा है। इसलिए वे उत्तर प्रदेश में आने से बचते हैं। ऐसे में ’’मुर्गी पहले हो या अण्डा पहले’’ उत्तर प्रदेश की छवि सुधरे या पहले विनियोग आय। दोनों एक दूसरे का इन्तजार नहीं कर सकते। इसका समाधान यही है कि दोनों तरफ साथ-साथ प्रयास किये जाये। छवि भी सुधरे और निवेशकों का विश्वास भी बढ़े। जिस उत्तर प्रदेश जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, चन्द्रशेखर जैसे प्रधानमंत्री देश को दिये हों, उस प्रदेश में क्या नेतृत्व का इतना बड़ा अकाल पड़ गया है कि कांग्रेस प्रदेश का सही नेता भी नहीं चुन सकती ? प्रदेश में एक से एक मेधावी प्रतिभायें हैं। तो सपा, बसपा व भाजपा से मन न मिलने के कारण राजनैतिक रूप से सक्रिय नहीं हैं। ऐसी व्यक्तियों को प्रोत्साहित करना होगा। उन्हें छूट देनी होगी संगठन को अपनी तरह से खड़ा करने की। वैसे भी कौन सा जोखिम है  ऐसा कौन सा बड़ा साम्राज्य है जो नये नेतृत्व के प्रयोग से छिन जायेगा ? जो कुछ होगा वो बेहतर ही होगा। ऐसा विश्वास करके चलना पड़ेगा। राजनीति में असम्भव कुछ भी नहीं है। ’’जहां चाह वहां राह’’ अब यह तो कांग्रेस आला कमान के स्तर की बात है। क्या वे उत्तर प्रदेश में मजबूत कांग्रेस खड़ा करना चाहती है या उसके मौजूदा हालात से संतुष्ट है।

Monday, July 9, 2012

मायावती का फैसला

मायावती के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं। अदालत में सीबीआई को अपनी सीमा उल्लघन करने के लिए फटकारा है। पर सर्वोच्च अदालत जनहित के मामलों में अक्सर ’सूमोटो’ यानी अपनी पहल पर भी कोई मामला ले लेती है। इस मामले में अगर सीबीआई ने बसपा नेता के पास आय से ज्यादा सम्पत्ति के प्रमाण एकत्र कर लिये हैं तो सर्वोच्च न्यायालय उस पर मुकदमा कायम कर सकता था। पर उसने ऐसा नहीं किया। विरोधी दलों को यह कहने का मौका मिल गया कि सरकार ने हमेशा की तरह मायावती से डील करके उन्हें सीबीआई की मार्फत बचा दिया। सारे टीवी चैनल इसी लाइन पर शोर मचा रहे हैं। पर अदालत के रवैये पर अभी तक किसी ने टिप्पणी नहीं की।

जहां तक बात सीबीआई के दुरूपयोग की है तो यह कोई नई बात नहीं है। हर दल जब सत्ता में होता है तो यही करता है। किसी ने भी आज तक सीबीआई को स्वायत्ता देने की बात नहीं की। पर आज मैं भ्रष्टाचार के सवाल पर एक दूसरा नजरिया पेश करना चाहता हूं। यह सही है कि भ्रष्टाचार ने हमारे देश की राजनैतिक व्यवस्था को जकड़ लिया है और विकास की जगह पैसा चन्द लोगों की जेबों मे जा रहा है। पर क्या यह सही नही है कि जिस राजनेता के भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया और सिविल सोसाइटी बढ़-चढ़ कर शोर मचाते हैं उसे आम जनता भारी बहुमत से सत्ता सौंप देती है। तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता को भ्रष्ट बताकर सत्ता से बाहर कर दिया गया था। अब दुबारा उसी जनता ने उनके सिर पर ताज रख दिया। क्या उनके ’पाप’ धुल गये मायावती पर ताज कोरिडोर का मामला जब कायम हुआ था उसके बाद जनता ने उन्हें उ.प्र. की गददी सौंप दी। वे कहती हैं कि उन्हें यह दौलत उनके कार्यकर्ताओं ने दी। जबकि सीबीआई के स्त्रोत बताते हैं कि उनको लाखों-करोड़ों रूपये की बड़ी-बड़ी रकम उपहार मे देने वाले खुद कंगाल हैं। इसलिए दाल में कुछ काला है।

पर यहां ऐसे नेताओं के कार्यकर्ताओं द्वारा यह सवाल उठाया जाता है कि जब दलितों और पिछड़ों के नेताओं का भ्रष्टाचार सामने आता है तब तो देश में खूब हाहाकार मचता है। पर जब सवर्णों के नेता पिछले दशकों में अपने खजाने भरते रहे, तब कोई कुछ नहीं बोला। यह बड़ी रोचक बात है। सिविल सोसाइटी वाले दावा करते हैं कि एक लोकपाल देश का भ्रष्टाचार मिटा देगा। पर वे भूल जाते हैं कि इस देश में नेताओं और अफसरों के अलावा उद्योगपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, खान मालिकों आदि की एक बहुत बड़ी जमात है जो भ्रष्टाचार का भरपूर फायदा उठाती है और इसका सरंक्षण करती है। यह जमात और सुविधा भोगी होते जा रहे है भारतीय अब पैसे की दौड़ में मूल्यों की बात नहीं करते। गांव का आम आदमी भी अब चारागाह, जंगल, पोखर, पहाड़ व ग्राम समाज की जमीन पर कब्जा करने में संकोच नहीं करता। ऐसे में कोई एक संस्था या एक व्यक्ति कैसे भ्रष्टाचार को खत्म कर सकता है। 120 करोड़ के मुल्क में 5000 लोगों की सीबीआई किस-किस के पीछे भागेगी।
अपने अध्ययन के आधार पर कुछ सामाजिक विश्लेषक यह कहने लगे हैं कि देश की जनता विकास और तरक्की चाहती है उसे भ्रष्टाचार से कोई तकलीफ नहीं। उनका तर्क है कि अगर जनता भ्रष्टाचार से उतनी ही त्रस्त होती जितनी सिविल सोसाइटी बताने की कोशिश करती है तो भ्रष्टाचार को दूर भगाने के लिए जनता एकजुट होकर कमर कस लेती। रेल के डिब्बे में आरक्षण न मिलने पर लाइन में खड़ी रहकर घर लौट जाती, पर टिकिट परीक्षक को हरा नोट दिखाकर, बिना बारी के, बर्थ लेने की जुगाड़ नहीं लगाती। हर जगह यही हाल है। लोग भ्रष्टाचार की आलोचना में तो खूब आगे रहते है पर सदाचार को स्थापित करने के लिए अपनी सुविधाओं का त्याग करने के लिए सामने नहीं आते। इसलिए सब चलता है की मानसिकता से भ्रष्टाचार पनपता रहता है।
देखने वाली बात यह भी है कि सिविल सोसाइटी के जो लोग भ्रष्टाचार को लेकर आय दिन टीवी चैनलों पर हंगामा करते है वे खुद के और अपने संगी साथियों के अनैतिक कृत्यों को यह कहकर ढकने की कोशिश करते हैं कि अगर हमने ज्यादा किराया वसूल लिया तो कोई बात नही हम अब लौटाये देते हैं। अगर हम पर सरकार का वैध 7-8 लाख रूपया बकाया है तो हम बड़ी मुश्किल से मजबूरन उसे लौटाते हैं यह कहकर कि सरकार हमें तंग कर रही है, पर अब हमारी आर्थिक मदद करने वाले दोस्तों को तंग न करें। फिर तो पकड़े जाने पर भ्रष्ट नेता भी कह सकते है कि हम जनता का पैसा लौटाने को तैयार हैं। ऐसा कहकर क्या कोई चोरी करने वाला कानून की प्रक्रिया से बच सकता है। नहीं बच सकता। अपराध अगर पकड़ा जाये तो कानून की नजर में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी लड़ाई का मकसद कितना पाक है।
ऐसे विरोधाभासों के बीच हमारा समाज चल रहा है। जो मानते हैं कि वे धरने और आन्दोलनों से देश की फिजा बदल देंगे। उनके भी किरदार सामने आ जायेंगे। जब वे अपनी बात मनवाकर भी भ्रष्टाचार को कम नहीं कर पायेंगे, रोकना तो दूर की बात है। फिर क्यों न भ्रष्टाचार के सवाल पर आरोप प्रत्यारोप की फुटबाल को छोड़कर प्रभावी समाधान की दिशा में सोचा जाये। जिससे धनवान धन का भोग तो करे पर सामाजिक सरोकार के साथ और जनता को अपने जीवन से भ्रष्टाचार दूर करने के लिए प्रेरित किया जाये। ताकि हुक्मुरान भी सुधरें और जनता का भी सुधार हो। फिलहाल तो इतना बहुत है।

Monday, July 2, 2012

डॉ. कलाम का खुलासा और सोनिया गाँधी

भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपनी ताजा पुस्तक टर्निंग पाइंट्स में 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद के घटनाक्रम का खुलासा करके एक बहुत बड़े रहस्य पर से पर्दा उठा दिया है। उस समय श्रीमती सोनिया गाँधी ने अपनी पार्टी के सभी सांसदों के भावुक अनुरोधों को ठुकराते हुए प्रधानमंत्री पद न स्वीकारने का फैसला किया था। जब उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया, तो भाजपा व संघ से जुड़े संगठनों ने पूरे देश में यह अफवाह फैलाई कि राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने सोनिया गाँधी को प्रधानमंत्री बनने से रोका। अफवाह यह फैलाई गई कि सोनिया गाँधी अपने समर्थन के सांसदों की सूची लेकर जब राष्ट्रपति भवन पहुंची तो डॉ. कलाम ने उन्हें संविधान का हवाला देकर उनके विदेशी मूल के आधार पर प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाने से मना कर दिया। इस घटना को 8 वर्ष बीत गये पर न तो श्रीमती गाँधी ने इसका खंडन किया और न ही संघ परिवार ने इसके तर्क में कभी कोई प्रमाण प्रस्तुत किए। आम आदमी को यही कहकर बहकाया गया कि सोनिया गाँधी तो प्रधानमंत्री का पद हड़पने को अधीर थीं किन्तु उन्हें बनने नहीं दिया गया। अब जब डॉ. कलाम ने अपनी ताजा पुस्तक में यह साफ कर दिया कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था बल्कि अफवाह के विपरीत डॉ. कलाम ने तो यह लिखा है कि वे श्रीमती गाँधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलावाने के लिए तैयार थे पर वे ही तैयार नहीं थीं। जब वे डॉ. मनमोहन सिंह के नाम का प्रस्ताव लेकर राष्ट्रपति से मिलीं तो डॉ. कलाम उनके इस अप्रत्याशित प्रस्ताव पर हतप्रभ रह गये।
यह पहली बार नहीं जब भाजपा व संघ परिवार अपनी संकुचित मानसिकता के चलते श्रीमती गाँधी के मामले में इस तरह बेनकाब हुआ है । राजीव गाँधी के जीवन में जबसे सोनिया आईं हैं इसी मानसिकता से उनके खिलाफ निराधार प्रचार किया जा रहा है। हर बार अफवाह फैलाने वालों को मुंह की खानी पड़ी है। जब 1977 में श्रीमती गाँधी चुनाव हारीं तो इसी समूह ने यह अफवाह फैलाई थी कि सोनिया गाँधी तो केवल श्रीमती गाँधी की सत्ता का सुख भोगने तक उनकी बहू थीं। उनका माल-टाल से भरा हवाई जहाज दिल्ली के हवाई अड्डे पर तैयार खड़ा है और चुनाव परिणाम आते ही वे अपने बच्चों और पति को लेकर इटली भाग जायेंगी। पर ऐसा नहीं हुआ। सोनिया यहीं रहीं। राजीव गाँधी की दर्दनाक हत्या के बाद विदेशी मूल की कही जाने वाली सोनिया गाँधी के लिए भारत में रहने का कोई औचित्य नहीं था। उनका जीवन असुरक्षित था। उनके बच्चे छोटे थे। भारत की राजनीति में उनकी कोई जगह नहीं थी। उस वक्त भी यही प्रचारित किया गया कि वे अब इटली चली जायेंगी। पर वे यहीं रहीं। एक आदर्श विधवा की तरह अपने गम को पीती रहीं और समाज और राजनीति से लम्बे समय तक कटी रहीं।
अब यह तीसरी बार है जब एक बड़े आरोप से उन्हें अनायास ही मुक्ति मिल गई है। डॉ. कलाम अगर यह खुलासा न करते तो देश के बहुत से लोगों को यह गलतफहमी रहती कि सोनिया प्रधानमंत्री बनना चाहती थीं। किन्तु उन्हें डॉ. कलाम ने बनने नहीं दिया। यह गम्भीरता से सोचने की बात है कि संघ और भाजपा नेतृत्व की सोच इतनी संकुचित क्यों है ? अक्सर मेरे पाठक या टी.वी. पर चर्चाओं में मुझे सुनने वाले यह सवाल करते हैं कि आप भ्रष्टाचार या अन्य मुद्दों पर तो बड़ी सख्ती से सभी दलों पर हमला करते हैं पर आपके हमले की धार भाजपा पर ज्यादा क्यों रहती है। क्या आप भी छद्म धर्मनिरपेक्षवादी हो गये हैं ? उत्तर साफ है मैं सनातन धर्म में गहरी आस्था रखता हुआ भगवान श्री राधाकृष्ण के भक्तों की चरण रज का आकांक्षी हूँ। पर मेरा गत 30 वर्ष का पत्रकारिता का अनुभव बताता है कि संघ और भाजपा ने लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर समाज में विद्वेश को ही भड़काया है। विभिन्न धर्मों के मानने वालों से बना भारतीय समाज उदारता की भावना रखता है और सनातन संस्कृति में विश्वास रखता है । उसको विगत 50 वर्षों में ऐसी मानकिसता के लोगों ने बार-बार नष्ट भ्रष्ट किया है। इसका जवाब जनता उन्हें अब दे रही है।
इस मानसिकता के ज्यादातर लोग अफवाहें फैलाने में उस्ताद हैं। ऐसा मैंने बार-बार अनुभव किया। 1993 में जब मैंने आतंकवाद और भ्रष्टाचार से जुड़े जैन हवाला काण्ड को उजागर किया तो उसमें भाजपा के 4-5 नेता ही फंसे थे जबकि कांग्रेस के दर्जनों नेताओं के राजनैतिक जीवन दांव पर लग गये थे। पर देश और धर्म की दुहाई देने वाले संघ और भाजपाईयों ने इस लड़ाई में मेरा साथ देना तो दूर मेरे खिलाफ देश विदेश में यह प्रचार किया कि मैं कांग्रेस के हाथ में खेलकर भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने से रोक रहा हूँ। मेरे खिलाफ संघ के एक बड़े नेता ने अंग्रेजी पुस्तिका छपवाकर पूरी दुनिया में बंटवाई। ये बात दूसरी है कि उस पुस्तिका में झूठ का सहारा लेकर आडवाणी जी को बचाने का जो तानाबाना बुना गया था उसे मैं देश विदेश की अपनी जन सभाओं में बड़े तार्किक रूप से ध्वस्त करता चला गया। पर यह टीस मेरे मन में हमेशा रहेगी कि 1993 में ही जब मैंने देश के 115 सबसे ताकतवर राजनेताओं और अफसरों के विरुद्ध शंखनाद किया था तो संघ और भाजपा ने एक व्यक्ति को बचाने के लिए अपने संगठन और राष्ट्रहित की बलि दे दी।
पिछले वर्ष जब टीम अन्ना के दो स्तम्भ वही सामने आए जो इस ऐतिहासिक संघर्ष को विफल करने के देशद्रोही कार्य में संलग्न थे तो मुझे मजबूरन टी.वी. चैनलों पर जाकर टीम अन्ना को आड़े हाथों लेना पड़ा। चूंकि भाजपा व संघ टीम अन्ना के कंधों पर बंदूक रखकर अपनी राजनीति कर रही है इसलिए मुझे इन सभी टी.वी. चर्चाओं में मजबूरन भाजपा व संघ को फिर कटघरे में खड़ा करना पड़ा। भगवत कृपा से भाजपा के जो भी बड़े नेता इन चर्चाओं में मेरे विरुद्ध बैठते रहे हैं वे मेरी बात का कोई जवाब नहीं दे पाये। अब 2014 के लोकसभा चुनाव को लक्ष्य बनाकर फिर संघ और भाजपा सोनिया गाँधी की नैतिकता पर लगातार चोट कर रहे हैं। देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं। मैं टीम अन्ना की तरह किसी को चरित्र प्रमाण पत्र देने का दंभ नहीं पालता। मैं यह मानता हूँ कि आज की राजनीति में भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन चुका है और कोई दल इससे अछूता नहीं। पर मैं यह मानने को तैयार नहीं कि भाजपा और संघ की कमीज दूसरों से ज्यादा सफेद है। सोनिया गाँधी पर उनका लगातार परोक्ष और सीधा हमला जनता को गुमराह करने के लिए है। जैसे उन्होंने पिछले 40 वर्षों में किया है। विरोध मुद्दों और आर्थिक या अन्य नीतियों का विचारधारा के आधार पर हो तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा होता है। पर तंग दिल और दिमाग से झूठा प्रचार करने वाले देश के हित में कोई बड़ा काम कभी नहीं कर पायेंगे।

Monday, June 18, 2012

राष्ट्रपति चुनाव में बहुतों की फजीहत


ममता बनर्जी चाहे कितने ही जोर से कहे कि खेल अभी खत्म नहीं हुआ पर राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने अपनी पूरी फजीहत करवा ली। उन्होंने क्या सोचकर प्रधानमंत्री का नाम सुझाया ? जिसका उन्हें कोई हक नहीं था। डा. अब्दुल कलाम भी बिना जीत की गारंटी के अपनी फजीहत नहीं करवाना चाहते। सोमनाथ चटर्जी को पता है कि वामपन्थी दल और एन.डी.ए. सहित कोई उनके नाम पर सहमत नहीं है। फिर यह नाम क्यों उछाले गये ? मुलायम सिंह यादव तो यह कहकर किनारा कर गये कि यू.पी.ए. ने राष्ट्रपति के उम्मीदवार का नाम घोषित करने में देर की, इसलिए उन्होंने जो ठीक समझे नाम सुझा दिये। अब प्रणवदा चूंकि सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवार हैं इसलिए सपा उनका समर्थन करेगी। पर दीदी क्यों अकड़ी रहीं ? यह जानते हुए भी कि बंगाल के लोगों को अपनी संस्कृति और अपने बंगाली होने का जितना गर्व है उतना शायद किसी दूसरे प्रान्त के निवासियों को नहीं होगा। बंगाली आज भी इस बात को भूले नहीं है कि सुभाष चन्द्र बोस को आजाद भारत में  अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने का मौका नहीं मिला। अब जबकि पहली बार एक बंगाली के राष्ट्रपति बनने का मौका आया है तो दीदी उसमें पलीता लगा रही हैं। इसका ममता बनर्जी को खासा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
वैसे राष्ट्रपति की उम्मीदवारी को लेकर जिस तरह दलित, महिला, या मुसलमान के चयन किये जाने की बातें अनेक दलों ने उठाई उससे इस गरिमामय पद की प्रतिष्ठा को आघात लगा है। राष्ट्रपति किसी दल, समुदाय, श्रेत्र या जाति का ना होकर पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधि होता है। देश मंे प्रधानमंत्री को सत्ता का प्रतीक माना जाता है। पर अन्तर्राष्ट्रीय जगत में  राष्ट्रपति को ही देश का सदर मानकर सम्मानित किया जाता है। अगर कोई यह कहे कि यह तो उनका राष्ट्रपति है, हमारा नहीं, तो फिर लोकतन्त्र का मायना क्या बचा ? विधानसभा या लोकसभा चुनाव में जीतने वाला प्रत्याशी 25-26 फीसदी मतों पर जीत जाता है। तो क्या उस विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र के लोग उसे उनका विधायक या सांसद कहते है या पूरे क्षेत्र का ? जाहिर है कि जीतने के बाद वह पूरे क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है और सबकी सुध लेता है। इसी तरह राष्ट्रपति भी चुन जाने के बाद पूरे देश का हो जाता है।
वैसे भी प्रणव मुखर्जी का व्यक्तित्व ऐसा नहीं है कि उनके बारे में किसी संशय हो। उनके विरोधियों को ही नहीं अपनों को भी पता हैं कि प्रणवदा कैसे आदमी हैं। दिल्ली के राजनैतिक गलियारों में यू.पी.ए 1 के समय से ही यह चर्चा रही कि प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार होने के बावजूद उन्हें यह जिम्मेदारी इसलिए नहीं मिल पाई क्योंकि वे अपनी स्वतन्त्र सोच रखते हैं। ऐसे में उनके दल के नेताओं को यह संशय रहा कि किसी नाजुक मोड़ पर प्रणवदा अलग भी निर्णय ले सकते हैं। यह बात विपक्षीदल भी जानते हैं। इसलिए उन्हें प्रणवदा का समर्थन करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। व्यक्तिगत स्तर पर भी प्रणवदा के सभी दलों के लोगों से मधुर सम्बन्ध हैं।
इस चुनावी दंगल में एन.डी.ए. की फजीहत भी कम नहीं हुई। अपने उम्मीदवार की घोषणा एन.डी.ए. ने इसलिए नहीं की कि पहले यू.पी.ए. का नाम सामने आ जाये। उसकी फजीहत हो जाये तब हम अपनी शतरंज बिछायेंगे। पर पासा उल्टा पड़ गया, जिन अब्दुल कलाम को दुबारा राष्ट्रपति बनाने की बात एन.डी.ए. में चल रही थी, वे खुद ही आम सहमति के बिना चुनाव लड़ना नहीं चाहते। उधर प्रणव मुखर्जी के नाम पर देश में जैसी प्रतिक्रिया अब तक मिली है उससे साफ जाहिर है कि एन.डी.ए. के लिए अपना उम्मीदवार जिताना सम्भव न होगा। कमजोरी की हालत में यू.पी.ए. एन.डी.ए. से डील कर सकती थी कि राष्ट्रपति हमारा और उपराष्ट्रपति तुम्हारा। पर अब शायद इसकी जरूरत न पड़े। उधर भाजपा में दो खेमे हैं। प्रणवदा को जानने वाले कह रहे हैं कि एन.डी.ए. को उनका समर्थन करना चाहिए। पर दूसरा खेमा ऐसे मौके पर खुद को कांग्रेस के खिलाफ खड़ा दीखना चाहता है। अभी अंतिम निर्णय होना बाकी है।
इस चुनाव में पी.ए. संगमा और राम जेठमलानी जबरदस्ती कूदकर सस्ती प्रसिद्वि पाना चाहते हैं। संगमा को तो उनके ही दल राकापा का समर्थन नहीं है और जेठमलानी को कोई भी दल गम्भीरता से नहीं लेता। क्योंकि वो कब क्या कर बैठें किसी को पता नहीं। दरअसल राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर जैसी गम्भीरता और परिपक्वता राजनैतिक दलों को दिखानी चाहिए थी, वैसी उन्होंने नहीं दिखाई। अपने स्थानीय मतदाता को प्रभावित करने का मौका समझकर सब ने इस चुनाव को एक मखौल बना दिया। जो लोकतन्त्र के लिए स्वस्थ परम्परा नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्रपति का चुनाव निर्विघ्न सम्पन्न हो और सभी दल चिन्तन करें कि भविष्य में राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति पद पर चयन आम सहमति से हो, इससे लोकतन्त्र की गरिमा बढ़ेगी। अल्पमत की साझी सरकारों के दौर में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की गरिमा बचाने का भी यही एक तरीका होगा।

Monday, June 11, 2012

विकास का पैसा कहाँ जाता है ?

केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ’वाटरशेड’ कार्यक्रम की प्रान्त सरकारों की रिपोर्ट से सहमत नहीं हैं। बन्जर भूमि, मरूभूमि व सूखे क्षेत्र को हराभरा बनाने के लिए केंन्द्र सरकार हजारों करोड़ रूपया प्रान्तीय सरकारों को देती आई है। जिले के अधिकारी और नेता मिली भगत से सारा पैसा डकार जाते हैं। झूठे आंकड़े प्रान्त सरकार के माध्यम से केन्द्र सरकार को भेज दिये जाते हैं पर आई.आई.टी. के पढे़ श्री रमेश को कागजी आंकड़ों से गुमराह नहीं किया जा सकता। उन्होंने उपग्रह कैमरे से हर राज्य की जमीन का चित्र देखा और पाया कि जहां-जहां सूखी जमीन को हरी करने के दावे किये गये थे, वो सब झूठे निकले। इसलिए प्रान्तीय ग्रामीण विकास मंत्रियों के सम्मेलन में उन्होंने अपनी खुली नाराजगी जाहिर की।
दरअसल यह कोई नई बात नहीं है। विकास योजनाओं के नाम पर हजारों करोड़ रूपया इसी तरह वर्षों से प्रान्तीय सरकारों द्वारा पानी की तरह बहाया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का यह जुमला अब पुराना पड़ गया कि केन्द्र के भेजे एक रूपये मे से केवल 14 पैसे जनता तक पहुंचते हैं। सूचना का अधिकार कानून भी जनता को यह नहीं बता पायेगा कि उसके इर्द-गिर्द की एक गज जमीन पर, पिछले 60 वर्षों में कितने करोड़ रूपये का विकास किया जा चुका है। सड़क निर्माण हो या सीवर, वृक्षारोपण हो या कुण्डों की खुदाई, नलकूपों की योजना हो या बाढ़ नियन्त्रण, स्वास्थ सेवाऐं हों या शिक्षा का अभियान की अरबो-खरबों रूपया कागजों पर खर्च हो चुका है। पर देश के हालात कछुए की गति से भी नहीं सुधर रहे। जनता दो वख्त की रोटी के लिए जूझ रही है और नौकरशाही, नेता व माफिया हजारो गुना तरक्की कर चुके है। जो भी इस क्लब का सदस्य बनता है, कुछ अपवादों को छोड़कर, दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की करता है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, लोकपाल व अदालतें उसका बाल भी बाकां नहीं कर पाते।
जिले में योजना बनाने वाले सरकारी कर्मी योजना इस दृष्टि से बनाते हैं कि काम कम करना पड़े और कमीशन तगड़ा मिल जाये। इन्हें हर दल के स्थानीय विधायकों और सांसदों का संरक्षण मिलता है। इसलिए यह नेता आए दिन बड़ी-बड़ी योजनाओं की अखबारों में घोषणा करते रहते है। अगर इनकी घोषित योजनाओं की लागत और मौके पर हुए काम की जांच करवा ली जाये तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। यह काम मीडिया को करना चाहिए था। पहले करता भी था। पर अब नेता पर कॉलम सेन्टीमीटर की दर पर छिपा भुगतान करके बड़े-बड़े दावों वाले अपने बयान स्थानीय अखबारों में प्रमुखता से छपवाते रहते है। जो लोग उसी इलाके में ठोस काम करते है, उनकी खबर खबर नहीं होती पर फर्जीवाडे़ के बयान लगातार धमाकेदार छपते है।
उधर जिले से लेकर प्रान्त तक और प्रान्त से लेकर केन्द्र तक प्रोफेशनल कन्सलटेन्ट का एक बड़ा तन्त्र खड़ा हो गया है। यह कन्सलटेन्ट सरकार से अपनी औकात से दस गुनी फीस वसूलते है और उसमें से 90 फीसदी तक काम देने वाले अफसरों और नेताओं को पीछे से कमीशन मे लौटा देते है। बिना क्षेत्र का सर्वेक्षण किये, बिना स्थानीय अपेक्षाओं को जाने, बिना प्रोजेक्ट की सफलता का मूल्यांकन किये केवल खानापूरी के लिए डीपीआर (विस्तृत कार्य योजना) बना देते है। फिर चाहे जे.एन.आर.यू.एम. हो या मनरेगा, पर्यटन विभाग की डीपीआर हो या ग्रामीण विकास की सबमें फर्जीवाडे़ का प्रतिशत काफी ऊॅचा रहता है। यही वजह है कि योजनाऐ खूब बनती है, पैसा भी खूब आता है, पर हालात नहीं सुधरते।
आज की सूचना क्रान्ति के दौर में ऐसी चोरी पकड़ना बायें हाथ का खेल है। उपग्रह सर्वेक्षणों से हर परियोजना के क्रियान्वयन पर पूरी नजर रखी जा सकती है और काफी हदतक चोरी पकड़ी जा सकती है। पर चोरी पकड़ने का काम  नौकरशाही का कोई सदस्य करेगा तो अनेक कारणों से सच्चाई छिपा देगा। निगरानी का यही काम देशभर में अगर प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संगठनों या व्यक्तियों से करवाया जाये तो चोरी रोकने में पूरी नहीं तो काफी सफलता मिलेगी। जयराम रमेश ही नहीं हर मंत्री को तकनीकि क्रान्ति की मदद लेनी चाहिए। योजना बनाने में आपाधापी को रोकने के लिए सरल तरीका है कि जिलाधिकारी अपनी योजनाएँ वेबसाइट पर डाल दें और उनपर जिले की जनता से 15 दिन के भीतर आपत्ती और सुझाव दर्ज करने को कहें। जनता के सही सुझावों पर अमल किया जाये। केवल सार्थक, उपयोगी और ठोस योजनाऐं ही केन्द्र सरकार व राज्य को भेजी जाये। योजनाओं के क्रियान्वयन की साप्ताहिक प्रगति के चित्र भी वेबसाइट पर डाले जायें। जिससे उसकी कमियां जागरूक नागरिक उजागर कर सकें। इससे आम जनता के बीच इन योजनाओं पर हर स्तर पर नजर रखने में मदद मिलेगी और अपना लोकतन्त्र मजबूत होगा। फिर बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसे लोगों को सरकारों के विरूद्व जनता को जगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
आज हर सरकार की विश्वसनीयता, चाहें वो केन्द्र की हो या प्रान्तों की, जनता की निगाह में काफी गिर चुकी है और अगर यही हाल रहे तो हालत और भी बिगड़ जायेगी। देश और प्रान्त की सरकारों को अपनी पूरी सोच और समझ बदलनी पड़ेगी। देशभर में जिस भी अधिकारी, विशेषज्ञ, प्रोफेशनल या स्वयंसेवी संगठन ने जिस क्षेत्र में भी अनुकरणीय कार्य किया हो, उसकी सूचना जनता के बीच, सरकारी पहल पर, बार-बार, प्रसारित की जाये। इससे देश के बाकी हिस्सों को भी प्रेरणा और ज्ञान मिलेगा। फिर सात्विक शक्तियां बढेंगी और लुटेरे अपने बिलों में जा छुपेंगे। अगर राजनेताओं को जनता के बढ़ते आक्रोश को समय रहते शीतल करना है तो ऐसी पहल यथाशीघ्र करनी चाहिए। नहीं तो देश में अराजकता फैलने के आसार पैदा हो जायेंगे।

Monday, June 4, 2012

बाबा राम देव ने क्या खोया क्या पाया ?

जन्तर मन्तर पर बाबा रामदेव के नेतृत्व मे टीम अन्ना ने एक बार फिर दिन भर का धरना किया। इस धरने से बाबा ने क्या खोया क्या पाया इस पर अलग अलग विचार है। धरने की जरूरत इसलिए पड़ी कि पिछले छः महीने से भ्रष्टाचार के विरूद्व बाबा रामदेव व अन्ना हजारे की मुहीम ठण्डी पड़ रही थी। जनता इन आन्दोलनों के नेतृत्व लेकर, अनेक कारणों से, पहले की तरह उत्साहित नहीं थी। इधर मीडिया भी इन आन्दोलनों में अपनी रूचि खो चुका था। इसलिए आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं में हताशा व्याप्त थी। उनको अपने नेतृत्व पर दबाव था कि कुछ ऐसा किया जाये जो आन्दोलन ठण्डा न पड़े। इसलिए बाबा ने इस धरने का फैसला किया और इसके लिए दो महीने तक देशभर में जी जान लगाकर लोगों को उत्साहित करने की कोशिश की। इस बीच अन्ना हजारे को अपनी ही टीम के बीच हो रहे रोज के झगड़ों ने परेशान कर दिया। अन्ना को लगा कि अगर टीम अन्ना के चक्कर में ही फंसे रहे तो रही सही साख भी जाती रहेगी। इसलिए उन्होनें बाबा की शरण ली। जो टीम अन्ना को नागवार गुजरा। उनके बयान इस फैसले के खिलाफ आये। इससे असमंजस की स्थिति पैदा हुई। अन्ततः टीम अन्ना को लगा कि बाबा के धरने में न जाकर उनका घाटा ही है इसलिए सब वहाँ जाकर खड़े हो गये।
बाबा रामदेव के मंच से जो कुछ कहा गया उसमें पुरानी बातो को ही दोहराया गया। काले धन को लाने और भ्रष्टाचार को रोकने के बारे में जो भी बयान दिये गये उनमें ऐसी रोशनी दिखाई नहीं दी जिससे इन समस्याओं का हल निकाला जा सके। आगे का जो आव्हान किया गया है उसमें राजनैतिक दलों के अध्यक्षों और सासंदो का समर्थन जुटाने की बात की गई है। साथ ही आन्दोलन और धरनों के दौर को बनाये रखने का भी संकल्प लिया गया है। जोकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जायज तरीका है। पर क्या इस प्रक्रिया से हल निकल पायेगा?
इस पूरे आन्दोलन की आधार रेखा यह है कि सरकार ही भ्रष्टाचार के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। सरकार काला धन बाहर नहीं निकालना चाहती। सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कानून नहीं बनाना चाहती। पर यह बात पूरी तरह से सही नही है। निश्चित रूप से सरकार की ज्यादा जिम्मेदारी होती है। पर क्या यह सही नही है कि किसी भी दल की सरकार क्यों न हो उसका रवैया एक सा ही रहता है। अगर आन्दोलनकारी सरकार का मतलब केवल केन्द्र सरकार मानते है और दावा करते है कि उन्हें अनेक विपक्षी दलों का समर्थन हासिल है तो सोचने वाली बात है कि इन विपक्षी दलों की इन प्रान्तों में सरकारे हैं, क्या वे प्रान्त भ्रष्टाचार से मुक्त है ? दरअसल भ्रष्टाचार का कारण हमारी चुनाव व्यवस्था, न्याय प्रणाली, औद्यौगिक हित, हमारा मूल चरित्र व इस देश का प्रशासनिक ढांचा है। जिसमें बुनियादी बदलाव की जरूरत है। कोई एक दल की सरकार अकेले इस काम को नहीं कर सकती। इस बात को आन्दोलनकारी या तो समझते नहीं या जान बूझकर अनदेखा कर रहे है। अगर समझते नही तो वे इस आन्दोलन को कोई सकारात्मक दिशा नही दे पायेंगें और अगर समझते है फिर भी सार्वजनिक रूप से स्वीकारते नही, तो उनकी मंशा पर शक किया जायेगा।
निसंदेह बाबा रामदेव ने पिछले दो सालों में इन मुद्दों पर देशभर में जिज्ञासा जगाई है। यह उनकी सबसे बड़ी उपलब्धी है। अब उनका उदेश्य व्यवस्था परिवर्तन के लिए जमीन तैयार करना होना चाहिए। जो भी राजनैतिक दल बाबा को समर्थन का आश्वासन दे रहे है उनसे दो बातें कही जायें। पहली अपने दल द्वारा शासित राज्य को भ्रष्टाचार को मुक्त करके दिखायें। दूसरा संसद के मानसून सत्र में इन मुददों पर लगातार खुली बहस चलायें। केवल रस्म आदायगी न करें। उधर बाबा को जनजागरण का अपना अभियान जारी रखना चाहिए। पर उसका तेवर लोगो को समाधान देना होना चाहिए। समाधान ऐसा हो कि लोग उससे इतने सहमत हों कि उसके समर्थन में पूरी ताकत से उठ खड़े हों । इससे व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को बल मिलेगा। यह एक धीमी पर सतत प्रक्रिया होगी। जिसके परिणाम जल्दी तो नही आयेंगे पर दूरगामी होंगे।
पिछले कुछ महीनों से देशभर के अनेक सामाजिक कार्यकर्ता बाबा रामदेव से जुड़े हैं। ये वो लोग हैं जो पिछले तीन दशकों से देश के अलग अलग हिस्सो में, अगल अलग विचारधारा से सामाजिक सरोकार के मुददों पर संघर्षशील रहे है। इन लोगों ने गांवों से जिलों तक व्यवस्था के प्रभाव को देखा है और व्यवस्था से भिड़े है। इसलिए उनकी जमीनी समझ अच्छी है। पर राष्ट्रीय स्तर की समझ सैद्वान्तिक तो है पर व्यवहारिक अनुभव की कमी है। इसलिए यह लोग कभी एकजुट होकर देश में कोई बड़ा आन्दोलन नहीं खडा़ कर पाये। अब बाबा के संसाधनों की छत्र छाया में इन्हें मौका मिला है। पर अभी तक इनकी बाबा के साथ पूरी जुगलबन्दी नहीं हुई है। इनका मानना है कि बाबा आत्मकेन्द्रित हैं। जबकि बाबा चाहते हैं कि यह सब उनके नेतृत्व में एक जुट हो जायें। इसलिए अन्दरूनी रस्साकशी जारी है। देखना होगा कि आने वाले समय में अन्ना, सामाजिक संगठन, बाबा रामदेव के अनुयायी कहां तक एकमत हो पाते हंै। देखना यह भी होगा कि बाबा और उनका कोरगु्रप काले धन और भ्रष्टाचार के मामले पर अपनी रणनीति को व्यवहारिक और दलनिपेक्ष बना पाते हैं या नहीं ? इस पर ही इस आन्दोलन का भविष्य निर्भर करेगा।