Monday, January 21, 2013

नेता ही नहीं नीति बदलनी चाहिए

बहुत ना-नुकुर के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभालने का निर्णय ले लिया। कांग्रेसियों में उत्साह है कि अब नौजवानों को तरजीह मिलेगी। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने जयपुर के चिंतन शिविर में यह चिंता व्यक्त की है कि मध्यम वर्ग को राजनीति से बेरूखी होती जा रही है। सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी हमारी व्यवस्था की धारा मोड़ सकते हैं? 1984 में जब इन्दिरा गांधी की हत्या हुई तो अचानक ताज राजीव गांधी के सिर पर रख दिया गया। वे युवा थे, सरल और सीधे थे, इसलिए एक उम्मीद जगी कि कुछ नया होगा। उनके भाषण लिखने वालों ने उनसे कई ऐसे बयान दिलवा दिए जिससे देश में सन्देश गया कि अब तो भ्रष्टाचार और सरकारी निकम्मापन सहा नहीं जाऐगा। सबकुछ बदलेगा। बदला भी, लेकिन संचार और सूचना के क्षेत्र मंे। भ्रष्टाचार और प्रशासनिक व्यवस्था में कोई अंतर नहीं आया। बल्कि तेजी से गिरावट आयी।
अभी हाल ही का उदाहरण अखिलेश यादव का है। साईकिल चलाकर अखिलेश यादव ने उ0प्र0 के युवाओं का मन मोह लिया। लगा कि उ0प्र0 में नई बयार बहेगी। पर अभी नौ महीने बीते हैं आौर उनके पिता और सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव चार बार सार्वजनिक मंचों से कह चुके हैं कि उ0प्र0 की सरकार, मंत्री और अफसर ठीक काम नहीं कर रहे हैं।
दरअसल देश और प्रदेश की सरकारों में भारी घुन लग चुका है। कोई जादू की छड़ी दिखाई ननहीं देती, जो इन व्यवस्थाओं को रातों-रात सुधार दे। इसलिए यह कहना कि राहुल गांधी के मोर्चा संभालते ही कांग्रेस पार्टी का भविष्य उज्जवल हो गया, अभी लोगों के गले नहीं उतरेगा। वे जमीनी हकीकत में बदलाव देखकर ही फैसला करेंगे। तब तक राहुल गांधी को कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।
पहली समस्या तो यह है कि वे पार्टी के उपाध्यक्ष भले ही बन गए हों, सरकार डा. मनमोहन सिंह की है। जिसमें अलग-अलग राय रखने वाले मंत्रियों के अलग-अलग गुट हैं। ये गुट एकजुट होकर राहुल गांधी के आदेशों का पालन करेंगे, ऐसा नहीं लगता। सामने जी-हुजूरी भले ही कर लें, पर पीछे से मनमानी करेंगे। ठीकरा फूटेगा राहुल गांधी के सिर। सहयोगी दलों के मंत्रियों के आचरण पर राहुल गांधी नियन्त्रण नहीं रख पाऐंगे। ऐसे में सरकार की छवि सुधारना सरल नहीं होगा।
दूसरी तरफ, अभी तक के अनुमान के अनुसार सीधा मुकाबला नरेन्द्र मोदी से होने जा रहा है। जिनकी रणनीति यह है कि जो करना है धड़ल्ले से करो, बड़े लोगों को फायदा पहुंचाओ। प्रचार ऐसा करो कि बड़े-बड़े मल्टीनेशनल भी फीके लगने लगें। यही उन्होंने पिछले चुनावों में किया भी। जबकि राहुल गांधी का व्यक्तित्व दूसरी तरीके का है। वे संजीदगी से समाज को समझना चाह रहे हैं। जमीनी हकीकत को जानने की कोशिश कर रहे हैं। विकास के मुद्दों पर भी काफी ध्यान दे रहे हैं। कुल मिलाकर राजनीति के एक गंभीर छात्र होने का प्रमाण दे रहे हैं। इसलिए आगामी चुनावी समर में राहुल गांधी की भूमिका को लेकर कोई आंकलन अभी नहीं किया जा सकता। वे जादू भी कर सकते हैं और चारों खाने चित भी गिर सकते हैं।
राहुल गांधी को अगर वास्तव में अपनी सरकार को जबावदेह बनाना है तो उन्हें प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार में क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। इन कदमों को जानने के लिए उन्हें कोई नई खोज नहीं करवानी। काले धन, पुलिस व्यवस्था, न्यायायिक सुधार, कठोर भ्रष्टाचार विरोधी कानून जैसे अनेक मुद्दों पर एक से बढ़कर एक आयोगों की रिपोर्ट केन्द्र सरकार के दफतरों में धूल खा रही हैं। जिन्हें झाड़ पौंछकर फिर से पढ़ने की जरूरत है। समाधान मिल जाऐगा। इन समाधानों को लागू कराने के लिए राहुल गांधी को युवाओं के बीच देशव्यापी अभियान चलाना चाहिए। युवा जागरूक बनें और प्रशासनिक व्यवस्था को जबावदेह बनाऐं, तब जनता कांगे्रस से जुड़ेगी। वैसे भी जयपुर चिंतन शिविर में उनकी माताजी श्रीमती सोनिया गांधी ने यह चिंता व्यक्त की है कि मध्यम वर्ग राजनीति से कटता जा रहा है, जिसे मुख्यधारा में वापस लाने की जरूरत है। 
हकीकत इसके विपरीत है। मध्यम वर्ग राजनीति से नहीं कट रहा, बल्कि अब तो वह बिना बुलाऐ सड़कों पर उतरने को तैयार रहता है। पिछले एक-ढेढ़ साल के आंदोलनों में मध्यम वर्ग की भूमिका प्रमुख रही है। मध्यम वर्ग ने धरने, प्रदर्शन, लाठी, गोली, आंसू गैस और पानी की मार सबको झेला है। पर उदासीनता का परिचय कहीं नहीं दिया।
दरअसल मध्यमवर्ग प्रशासनिक व्यवस्था की जबावदेही चाहता है, जो उसे नहीं मिल रही। इससे वो नाराज है। पर वह यह भी जानता है कि कोई एक राजनैतिक दल इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। सभी दलों का एकसा हाल है। इसलिए उसका गुस्सा बढ़ता जा रहा है और वह तरह-तरह से बाहर सामने आ रहा है। राहुल गांधी हों या अखिलेश यादव या फिर किसी अन्य प्रांत के मुख्यमंत्री के वारिस युवा नेता, अब सबको इन सवालों की तरफ गंभीरता से विचार करना होगा। क्योंकि नारों से बहकने वाला मतदाता अब बहुत सजग हो गया है।

Monday, January 14, 2013

सिर्फ नारों से नहीं बनेगा उत्तम प्रदेश

पिछले दिनों कई मंचों पर उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बार-बार दोहराया है कि वे उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाना चाहते हैं। पर क्या ऐसा होना सिर्फ नारों से सम्भव है?
उत्तर प्रदेश का प्रशासनिक तंत्र पिछले दो दशकों में बुरी तरह चरमरा गया था। जिसे मायावती ने अपने डण्डे के जोर पर नियन्त्रित करने की कोशिश की। उसका परिणाम यह हुआ कि प्रदेश की नौकरशाही बहनजी के आगे थरथर कांपती थी। इसका पूरा फायदा मायावती ने उठाया। अपनी महत्वकांक्षी योजनाओं को उन्होंने डण्डे के जोर पर समयबद्ध तरीके से पूरा करवा लिया। फिर चाहे वो अम्बेडकर पार्क हो, कांशीराम पार्क हों या उनकी अन्य वैचारिक योजनाऐं। लेकिन इसका अधिक लाभ आम जनता को नहीं मिला। क्योंकि नौकरशाही केवल उन्हीं कार्यक्रमों को प्राथमिकता देती थी, जिन पर बहनजी की नजर थी।
जबसे अखिलेश यादव ने सत्ता संभाली है, तब से स्थिति बदल गयी। नए विचारों के, ऊर्जावान और युवा अखिलेश ने प्रशासनिक तंत्र को शुरू से ही भयमुक्त कर दिया। उनका उद्देश्य रहा होगा कि ऐसा करने से सक्षम अधिकारी स्वतंत्रता से निर्णय ले सकेंगे। पर अभी तक इसके वांछित परिणाम सामने नहीं आये हैं। एक तो वैसे उत्तर प्रदेश में साधनों का अभाव है, दूसरा प्रशासन तंत्र अब हर तरह के नियन्त्रण और जबावदेही से मुक्त है। तीसरा उत्तर प्रदेश में सत्ता के चार केन्द्र बने हैं। नतीजतन नौकरशाही किसी एक केन्द्र की शरण लेकर बाकी को ठेंगा दिखा देती है। ऐसे में कैसे बनेगा उत्तम प्रदेश?
संसाधनों की कमी को दूर करने के लिए दो तरीके हैं। एक तो मौजूदा संसाधनों का प्रभावी तरीके से प्रयोग हो और दूसरा बाहर से संसाधनों को आमंत्रित किया जाऐ। जहाँ तक उपलब्ध साधनों के इस्तेमाल की बात है, उत्तर प्रदेश की नौकरशाही संसाधनों का दुरूपयोग करने में किसी से कम नहीं। फिर वो चाहे मायावती का शासन रहा हो या अखिलेश यादव का। विकास की जितनी भी योजनाऐं बन रही हैं, उन्हंे बनाने वाली वह निचले स्तर की नौकरशाही है, जिसे न तो स्थानीय मुद्दों की समझ है, न उसके पास आधुनिक ज्ञान व दृष्टि है और न ही कुछ अच्छा करके दिखाने की इच्छा। होता यह है कि मुख्यमंत्री कोई घोषणा करते हैं तो मुख्य सचिव सचिवों की बैठक बुला लेते हैं। सचिवों को लक्ष्य दे दिए जाते हैं। वे अपने अधीनस्थों से योजनाऐं बनवा लाते हैं और अगली बैठक में उन योजनाओं को पास करवा लेते हैं। इन योजनाओं को बनाते वक्त न तो स्थानीय जरूरतों पर ध्यान दिया जाता है और न ही इन सबसे होने वाले लाभ या नुकसान पर। एक लम्बी फेहरिस्त है जहाँ ऐसी सैंकड़ों करोड़ की योजनाऐं बन चुकी हैं और लागू भी हो चुकी हैं जिनमें सीमित साधनों की असीमित बर्बादी हो रही है। फिर वो चाहें पर्यटन विभाग की योजनाऐं हों, नगर विकास की हों, ग्रामीण विकास की हों या सड़क विभाग की। सबमें मूल भावना यही निहित रहती है कि इस योजना में कितना ज्यादा से ज्यादा माल उड़ाया जा सकता है।
जैसा हमने पहले कहा कि तमाम सख्ती के बावजूद मायावती की सरकार इस दुष्प्रवत्ति पर कोई अंकुश नहीं लगा पाई। इधर अखिलेश यादव की सरकार भी ऐसी मानसिकता से निपटने में अभी तक असफल रही है। स्वंय मुख्यमंत्री के अधीनस्थ विभागों में भी ऐसी योजनाओं पर धन आवण्टन हो रहा है, जिनसे कोई लाभ जनता को मिलने वाला नहीं है। पर बेचारे भोले-भाले मुख्यमंत्री शायद इस सबसे अनिभिज्ञ हैं या फिर उन्होंने अन्य सत्ता केन्द्रों के आगे हथियार डाल दिये हैं। दोनांे ही स्थिति में खामियाजा प्रदेश की जनता को भुगतना पड़ रहा है। देखते-देखते ऐसे ही पांच साल गुजर जाऐंगे और अगर यही हाल रहा तो तमाम बड़े दावों के बावजूद उत्तर प्रदेश उत्तम प्रदेश नहीं बन पाऐगा।
साधनों की कमी दूर करने का दूसरा तरीका है बाहर से विनियोग आकर्षित करना। बाहर यानि देश के अन्य राज्यों से या विदेशों से। विदेशी निवेश तो उत्तर प्रदेश में आने से रहा। क्योंकि उन्हें उत्तर प्रदेश की राजनैतिक परिस्थितियां रास नहीं आतीं। देशी उद्योगपति भी उत्तर प्रदेश में विनिवेश करने से घबराते हैं। जबकि दूसरी तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘वाइब्रेंट गुजरात’ का नारा देते हैं तो बड़े-बड़े निवेशकर्ता लाइन लगाकर भागे चले आते हैं। क्योंकि उन्हें नरेन्द्र मोदी की प्रशासनिक व्यवस्था पर भरोसा है। नरेन्द्र मोदी ने अपने प्रशासनिक तंत्र और अफसरशाही को यथासंभव पारदर्शी और जनता के प्रति जबावदेह बनाया है। अखिलेश यादव को भी उनका यह गुर सीखना होगा। ताकि वे अपने प्रशासन पर पकड़ मजबूत कर सकें और उसे जनता के प्रति जबावदेह बना सकें। ऐसा न कर पाने की स्थिति में देशी विनिवेशकर्ता भी उनके आव्हान को गंभीरता से नहीं लेंगे। फिर कैसे बनेगा उत्तम प्रदेश?
सारा दोष प्रशासन का ही नहीं, उत्तर प्रदेश की जनता का भी है। यहाँ की जनता जाति और धर्म के खेमों में बंटकर इतनी अदूरदृष्टि वाली हो गयी है कि उसे फौरी फायदा तो दिखाई देता है, पर दूरगामी फायदे या नुकसान को वह नहीं देख पाती। इसलिए अखिलेश यादव के सामने बड़ी चुनौतियां हैं। पर चुनाव प्रचार में जिस तरह उन्होंने युवाओं को उत्साहित किया, अगर इसी तरह अपने प्रशासनिक तंत्र को पारदर्शी और जनता के प्रति जबावदेह बनाते हैं, विकास योजनाओं को वास्तविकता के धरातल पर परखने के बाद ही लागू होने के लिए अनुमति देते हैं और प्रदेश के युवाओं को दलाली से बचकर शासन को जबावदेह बनाने के लिए सक्रिय करते हैं तो जरूर इस धारा को मोड़ा जा सकता है। पर उसके लिए प्रबल इच्छाशक्ति की आवश्यकता होगी। जिसके बिना नहीं बन सकेगा उत्तम प्रदेश।

Monday, January 7, 2013

इन हालातों में जनता क्या करे?

बलात्कार के खिलाफ उठा गुबार अभी थमा नहीं है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध टीम अन्ना का आन्दोलन अपने चरम पर जाकर बिखर गया है, पर खत्म नहीं हुआ। पूरा ब्रज प्रदेश और देश के कृष्ण भक्त 1 मार्च, 2013 को वृन्दावन से दिल्ली तक पैदल कूच करने की तैयारी में जुटे हैं। इसलिए कि वे यमुना में शुद्ध यमुना जल देखना चाहते हैं। जबकि भगवान कृष्ण की कालिन्दी यमुना में आज यमुना जल नहीं दिल्लीवासियों का सीवर जल आ रहा है। कश्मीर के नौजवान वहाँ के सियासतदानों के भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर लगातार बगावत का झण्डा बुलन्द कर रहे हैं। देश का हर शहर कूड़े के ढेर में बदलता जा रहा है। सरकारी दफ्तर गांधी जी का चित्र टांगकर भ्रष्टाचार का नंगा नाच रहे हैं। उद्योग जगत प्राकृतिक संसाधनों को बेदर्दी से लूटकर, सरकारी कर की चोरी करके और बैंकों के हजारों करोड़ के ऋण दबाकर अपने मुनाफे कई गुना बढ़ा रहे हैं और उन्हें बहुराष्ट्रीय बैंकों के मार्फत या हवाला के मार्फत विदेशों में लगा रहे हैं। जबकि हमारे राजनैतिक दल लोकतांत्रिक परंपराओं को धता बताकर वंशाधिकार की लड़ाई में जुटे हैं, फिर वो चाहें स्टालिन के विरोध में अलागिरी हों या बाल ठाकरे के बेटे-भतीजे हों या किसी और राज्य के मुख्यमंत्रियों के परिवार। ऐसा लगता है कि भारत में लोकतंत्र नहीं राजतंत्र है, जहाँ सत्ता पर राजवंश काबिज है।
ऐसे में देश की जनता क्या करे? हालात के मारे लोग कहाँ जाऐं? किसके कंधे पर सिर रखकर रोऐं? किससे फरियाद करें? क्या खामोश होकर घर बैठ जाऐं और देश की लूट व दुर्दशा का तांडव देखते रहें? क्या हालात से समझौते कर भ्रष्ट हो जाऐं? क्या शस्त्र उठाकर खूनी क्रांति करने वालों के पीछे चल पड़ें? या संविधान के ढांचे के भीतर लोकतांत्रिक तरीके से स्वार्थी ताकतों से लड़ें? दरअसल कोई भी आन्दोलन बहुत लम्बे समय तक नहीं चल सकता। लोगों का उत्साह जल्द ही भंग हो जाता है। साधनों का अभाव भी आड़े आता है। इसलिए कोई कितनी ही ताकत से हुंकार क्यों न भरे, कितने ही लाखों लोगों को लेकर सड़कों पर क्यों न उतरे, पर व्यवस्था का मकड़जाल ऐसा है कि ऐसी सब आवाजें अन्त में नक्कारखाने में तूती की तरह बजकर रह जाती हैं। आजादी की लड़ाई में यह शस्त्र इसलिए काम कर गए क्योंकि हमारे दुश्मन अंग्रेज हुक्मरान थे और नेता गांधी, सुभाषचंद बोस व भगत सिंह जैसे बलिदानी थे। पर अब यह हथियार भौंथरे हुए लगते हैं। क्योंकि इनका बार-बार प्रयोग होने से व्यवस्था इनकी आदी हो चुकी है। वह ऐसे आन्दोलनों को गुमराह करने और छिन्न-भिन्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। इसलिए कुछ भी नहीं बदलता।
अगर हम सत्ता के लालच में लड़ने वाले विपक्षी दलों के भुलावे में आकर केन्द्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दलों को गाली देने का, उनके खिलाफ एस.एम.एस. और ईमेल अभियान चलाने का और उनके खिलाफ प्रदर्शन करने का कार्यक्रम चलाते हैं, तो हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। क्योंकि जिन्हें हम सत्ता से हटाना चाहते हैं, उन्हें हटाकर जो सत्ता में आऐंगे, वे किसी भी मामले में कम नहीं। हां, मीडिया पर शोर मचाकर और सड़कों पर आन्दोलन करके कुछ समय के लिए हमें यह भ्रम जरूर हो जाता है कि यह तो निर्णायक लड़ाई है, इसके बाद सुनहरी सुबह आएगी। जो कभी नहीं आती। आम आदमी पार्टी जैसा दल गठित कर बेहतर विकल्प देने का सपना पिछले साठ सालों में अनेकों क्रांतिकारी दिखा चुके हैं। या तो वे विकल्प दे ही नहीं पाते, या उनका विकल्प चुनावी शतरंज में परास्त हो जाता है या फिर वे भी साधनों के अभाव में उसी मकड़जाल में फंस जाते हैं, जिसके खिलाफ उनके आन्दोलन की बुनियाद रखी जाती है। इसका अर्थ यह नहीं कि कोई प्रयास ही न किया जाऐ। पर प्रयास अगर यथार्थ के धरातल से कटा होगा, तो उसमें ऊर्जा और साधन का अपव्यय तो होगा ही, समाज में हताशा और निराशा भी फैलेगी।
जे0पी0 आन्दोलन के समय से एक छात्र, आन्दोलनकारी और एक पत्रकार के नाते गत 38 वर्षों से मैं देश में ऐसी उथल-पुथल के कई दौर देख चुका हूँ। हर बार देशवासियों को निराशा हाथ लगी है। अब कितने प्रयोग हम और करें? किस पर भरोसा करें? कौन मसीहा है, जो हमें इस जंजाल से मुक्ति दिला देगा? बस यही है हमारी सब समस्या की जड़। जब तक हम मसीहा का इंतजार करते रहेंगे, इसी तरह लुटते-पिटते रहेंगे। सूचना के अधिकार से लेकर मीडिया तक आज संचार का इतना बड़ा जाल खड़ा हो गया है कि कोई भी सच्चाई लम्बे समय तक छिपाई नहीं जा सकती। गांव के विकास के लिए बनने वाली योजनाऐं और उनके लिए आवण्टित होने वाला धन, नगरों के रखरखाव के लिए प्रांतीय संसाधन, जेएनआरयूएम जैसी महत्वकांक्षी योजनाऐं और वल्र्ड बैंक की परियोजनाऐं, सबके बावजूद नगरवासी भी नारकीय जीवन जी रहेे हैं। केन्द्र के स्तर पर अब हजारों करोड़ के घोटालों के आरोप नहीं लगते। बात लाखों करोड़ तक जा पहुँची है। पर इस सबके लिए हमारी अपनी उदासीनता जिम्मेदार है।
अपना घर तो हम सब सजाते हैं, अपने बच्चों के भविष्य की भी चिंता करते हैं, पर घर के बाहर गली की गंदगी हो या हमारे गांव-शहर के लिए आवण्टित होने वाला धन, न तो उसकी हमें जानकारी होती है और न ही उसमें हमारी कोई रूचि। जबकि हम यह सब आज काफी सरलता से जान सकते हैं। धन आने के बाद भ्रष्टाचार की बात तो सब करते हैं, पर मेरा अनुभव तो अब यह बताता है कि भ्रष्टाचार की शुरूआत तो विकास योजनाओं की परिकल्पनाओं से ही शुरू हो जाती है। जानबूझकर ऐसी योजनाऐं बनाई जा रही हैं, जिनका जनता की मौजूदा समस्याओं से कोई नाता नहीं है। केवल और केवल पैसे को हड़पने के लिए इन योजनाओं को पास कराया जाता है। इसलिए योजना बनते वक्त से लेकर लागू होने तक, हर स्तर पर, हर जागरूक नागरिक को सतर्क रहना होगा।
अब हम मसीहाओं की आस छोड़ दें। केवल एक काम करें कि जहाँ तक हमारी समझ हो और क्षमता हो, वहाँ तक के क्षेत्र के विकास और रखरखाव के लिए आने वाली एक-एक पाई का हिसाब मांगने की ताकत जुटा लें। जब हम संगठित, निष्काम और निर्भय होंगे तो कोई प्रशासन हमें धमकाकर चुप नहीं कर पाएगा। यह लड़ाई गांधी के असहयोग आन्दोलन के ठीक विपरीत, सहयोग आन्दोलन की लड़ाई होगी। जिसमें हम सरकार के काम में सहयोग करेंगे पर पूरी पारदर्शिता की मांग के साथ। फिर हमें किसी लाठी का सामना नहीं करना पड़ेगा। धीरज रखें तो सफलता अवश्य मिलेगी।

Monday, December 31, 2012

वीरांगना दामिनी की शहादत क्या बेकार जाऐगी ?

आखिरी दम तक दामिनी रानी झाँसी की तरह मौत से पंजा लड़ाती रही। न तो उसने हिम्मत हारी और न ही जीने की आस छोड़ी। उसकी तीमारदारी कर रहे डॉक्टर हैरान थे उसके आत्मविश्वास को देखकर। पर जंग लगी लोहे की छड़ ने उसके जिस्म में जो इन्फेक्शन छोड़ा, वही उसके लिए जानलेवा बन गया। छः पिशाचों के हमले के बाद दामिनी को लेकर युवाओं और मध्यमवर्गीय लोगों का जो सैलाब दिल्ली और देश की सड़कों पर उतरा, वह इस देश के लोकतंत्र के परिपक्व होने की दिशा में एक सही कदम था। सरकार भी सकते में आ गयी कि इस आत्मस्फूर्त जनाक्रोश से कैसे निपटें? पर दूसरे ही दिन राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं और असामाजिक तत्वों ने प्रदर्शनकारियों के बीच चुपके से घुसपैठ कर सारा माहौल बिगाड़ दिया। हिंसा हुई और पुलिस की बर्बरता भी सामने आई। बस यहीं से राजनीति शुरू हो गई। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित दिल्ली पुलिस को जिम्मेदार ठहराने लगीं। आन्दोलनकारी बलात्कारियों की फाँसी की मांग पर अड़े रहे। सरकार तय नहीं कर पाई कि कितना और कैसा कदम उठाये? आन्दोलन की आग देश के अन्य महानगरों तक भी फैल गयी। काँग्रेस के दो मंत्रियों ने बयान दिया कि इस तरह के जनाक्रोश से निपटने में अभी हमारी राजनैतिक व्यवस्था तैयार नहीं है। इस पूरी स्थिति का निष्पक्ष मूल्यांकन करने की जरूरत है।
कोई पुलिस या प्रशासन बलात्कार रोक नहीं सकता। क्योंकि इतने बड़े मुल्क में किस गांव, खेत, जंगल, कारखाने, मकान या सुनसान जगह बलात्कार होगा, इसका अन्दाजा कोई कैसे लगा सकता है? वैसे भी जब हमारे समाज में परिवारों के भीतर बहू-बेटियों के शारीरिक शोषण के अनेकों समाजशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध हैं तो यह बात सोचने की है कि कहीं हम दोहरे मापदण्डों से जीवन तो नहीं जी रहे? उस स्थिति में हमारे पुरूषों के रवैये में बदलाव का प्रयास करना होगा। जो एक लम्बी व धीमी प्रक्रिया है। समाज में हो रही आर्थिक उथल-पुथल, शहरीकरण, देशी और विदेशी संस्कृति का घालमेल और मीडिया पर आने वाले कामोŸोजक कार्यक्रमों ने अपसंस्कृति को बढ़ाया है। जहाँ तक पुलिसवालों के खराब व्यवहार का सवाल है, तो उसके भी कारणों को समझना जरूरी है। 1980 से राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट धूल खा रही है। इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली को सुधारने के व्यापक सुझाव दिए गए थे। पर किसी भी राजनैतिक दल या सरकार ने इस रिपोर्ट को प्रचारित करने और लागू करने के लिए जोर नहीं दिया। नतीजतन हम आज भी 200 साल पुरानी पुलिस व्यवस्था से काम चला रहे हैं।
पुलिसवाले किन अमानवीय हालतों में काम करते हैं, इसकी जानकारी आम आदमी को नहीं होती। जिन लोगों को वी0आई0पी0 बताकर पुलिसवालों से उनकी सुरक्षा करवायी जाती है, ऐसे वी0आई0पी0 अक्सर कितने अनैतिक और भ्रष्ट कार्यों में लिप्त होते हैं, यह देखकर कोई पुलिसवाला कैसे अपना मानसिक संतुलन रख सकता है? समाज में भी प्रायः पैसे वाले कोई अनुकरणीय आचरण नहीं करते। पर पुलिस से सब सत्यवादी हरीशचंद्र होने की अपेक्षा रखते हैं। हममें से कितने लोगों ने पुलिस ट्रेनिंग कॉलेजों में जाकर पुलिस के प्रशिक्षणार्थियों के पाठ्यक्रम का अध्ययन किया है? इन्हें परेड और आपराधिक कानून के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं पढ़ाया जाता जिससे ये समाज की सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को समझ सकें। ऐसे में हर बात के लिए पुलिस को दोष देने वाले नेताओं और मध्यमवर्गीय जागरूक समाज को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए।
इसी तरह बलात्कार की मानसिकता पर दुनियाभर में तमाम तरह के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अध्ययन हुए हैं। कोई एक निश्चित फॉर्मूला नहीं है। पिछले दिनों मुम्बई के एक अतिसम्पन्न मारवाड़ी युवा ने 65 वर्ष की महिला से बलात्कार किया तो सारा देश स्तब्ध रह गया। इस अनहोनी घटना पर तमाम सवाल खड़े किए गये। पिता द्वारा पुत्रियों के लगातार बलात्कार के सैंकड़ों मामले रोज देश के सामने आ रहे हैं। अभी दुनिया ऑस्ट्रिया  के गाटफ्राइट नाम के उस गोरे बाप को भूली नहीं है जिसने अपनी ही सबसे बड़ी बेटी को अपने घर के तहखाने में दो दशक तक कैद करके रखा और उससे दर्जन भर बच्चे पैदा किए। इस पूरे परिवार को कभी न तो धूप देखने को मिली और न ही सामान्य जीवन। घर की चार दीवारी में बन्द इस जघन्य काण्ड का खुलासा 2011 में तब हुआ जब गाटफ्राइट की एक बच्ची गंभीर रूप से बीमारी की हालत में अस्पताल लाई गयी। अब ऐसे काण्डों के लिए आप किसे जिम्मेदार ठहरायेंगे? पुलिस को या प्रशासन को ? यह एक मानसिक विकृति है। जिसका समाधान दो-चार लोगों को फाँसी देकर नहीं किया जा सकता। इसी तरह पिछले दिनों एक प्रमुख अंग्रेजी टी0वी0 चैनल के एंकरपर्सन ने अतिउत्साह में बलात्कारियों को नपुंसक बनाने की मांग रखी। कुछ देशों में यह कानून है। पर इसके घातक परिणाम सामने आए हैं। इस तरह जबरन नपुंसक बना दिया गया पुरूष हिंसक हो जाता है और समाज के लिए खतरा बन जाता है।
बलात्कार के मामलों में पुलिस तुरत-फुरत कार्यवाही करे और सभी अदालतें हर दिन सुनवाई कर 90 दिन के भीतर सजा सुना दें। सजा ऐसी कड़ी हो कि उसका बलात्कारियों के दिमाग पर वांछित असर पड़े और बाकी समाज भी ऐसा करने से पहले डरे। इसके लिए जरूरी है कि जागरूक नागरिक, केवल महिलाऐं ही नहीं पुरूष भी, सक्रिय पहल करें और सभी राजनैतिक दलों और संसद पर लगातार तब तक दबाव बनाऐ रखें जब तक ऐसे कानून नहीं बन जाते। कानून बनने के बाद भी उनके लागू करवाने में जागरूक नागरिकों को हमेशा सतर्क रहना होगा। वरना कानून बेअसर रहेंगे। अगर ऐसा हो पाता है तो वह दामिनी की शहादत को हिन्दुस्तान के आवाम की सच्ची श्रद्धांजली होगी।

Monday, December 24, 2012

मोदी की जीत से कॉंग्रेस को सबक

गुजरात के 47 फीसदी मतदाताओं ने नरेन्द्र मोदी के विकास के एजेण्डे पर स्वीकृति की मोहर लगा दी। मोदी के दावों के विरूद्ध काँग्रेस का प्रचार उसे मात्र 38 फीसदी वोट दिला पाया। मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में भी मोदी को मिले वोट ने यह सिद्ध कर दिया कि गुजरात का मतदाता जाति और धर्म के दायरों से बाहर निकलकर विकास के रास्ते पर बढ़ना चाहता है। मोदी ने मुसलमानों की प्रतीकात्मक टोपी भले ही न ओढ़ी हो, पर गुजरात की सड़कों पर अवैध रूप से बने मन्दिर और मस्जिद गिराकर यह संदेश साफतौर पर दे दिया था कि उनकी सरकार विकास के रास्ते में धर्मान्धता को प्राश्रय नहीं देगी। यह बात दूसरी है कि मोदी की इस पहल से विहिप और संघ दोनों मोदी से नाराज हो गऐ और उनके खिलाफ अन्दर ही अन्दर माहौल भी बनाने की कोशिश की। पर इस परिणाम ने उन्हें हाशिए पर खड़ा कर दिया। संघ के नेतृत्व के लिए भी यह एक कड़ा संदेश है। अब तक संघ ने कभी भी मजबूत नेतृत्व को खड़ा नहीं होने दिया। जो उनके दरबार में हाजिरी दे, वही उनके लिए योग्य नेता होता है। चाहे फिर वो नितिन गडकरी ही क्यों न हो? कल्याण सिंह को विफल करने में संघ की यही मानसिकता जिम्मेदार रही।
रही बात मोदी के भविष्य की तो इस पर अनेक टी0वी0 चर्चा में चल ही रही है और अब 2014 तक चलेंगी भी। सबका यही मानना है कि मोदी को अपना तेवर और भाषा दोनों बदलनी पड़ेगी। फिर भी गारण्टी नहीं कि राजग के सहयोगी दल मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मान लें। उससे पहले भाजपा के अन्दर भी संघर्ष कम नहीं होगा। पर अगर भाजपा मोदी के नेतृत्व का लाभ उठाना चाहती है, तो एक रास्ता है। वह अपने सहयोगी दलों से एक गुप्त समझौता कर ले। जिसका आधार यह हो कि भाजपा मोदी को अपना उम्मीदवार बनाकर आक्रामक प्रचार में जुटे और वो सहयोगी दल जो इससे सहमत न हों, अलग-अलग रहकर चुनाव लड़ें। जहाँ दोनों के बीच सीधा मुकाबला हो, वहाँ नूरा-कुश्ती लड़ ली जाए। मतलब जनता की निगाह में लड़ाई हो और वास्तव में मिलकर खेल खेला जाए। जैसे बड़े राजनेताओं के परिवारजनों को जिताने के लिए प्रायः विरोधी राजनैतिक दल भी कमजोर उम्मीदवार खड़ा करते हैं। इससे राजग के सभी दलों को अपनी ताकत अजमाने का मौका मिलेगा। लोकसभा चुनावों के परिणाम के बाद जिसके सांसद ज्यादा हों, वो प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश कर सकता है। पर यह निर्णय इतने आसान नहीं होते। अनेक तरह के बाहरी दबाव दलों को और उनके नेताओं को झेलने पड़ते हैं। वैसे आज की तारीख में पूरा कॉरपोरेट जगत और व्यापारी समाज यह मानता है कि देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाने के लिए मोदी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। जबकि देहात से जुड़ा तबका मोदी के इस स्वरूप से प्रभावित नहीं है।
इसका सीधा प्रमाण गुजरात के 49 फीसदी मतदाताओं ने दिया है। जिन्होंने मोदी के खिलाफ वोट दिया है। साफ जाहिर है कि विकास के दावों का भारी भरकम प्रचार और मोदी को मिला मीडिया का अतिउत्साही समर्थन भी गुजरात की 49 फीसदी मतदाताओं को आश्वस्त नहीं कर पाया। मतलब यह कि मोदी का विकास का दावा आम जनता ने नहीं स्वीकारा। यह बात दूसरी है कि अपने उसी टेंपो में मोदी ने जीत के बाद पहले हिंदी भाषण में पूरे देश के मतदाताओं को सम्बोधित किया और उन्हें रोजगार के लिए गुजरात आने का न्यौता दिया। यानि वे एक बार फिर इसी आक्रामक प्रचार शैली से देश के सामने अपनी नयी भूमिका के लिए खुद को प्रस्तुत करने वाले हैं।
काँग्रेस के लिए यह बड़ी चुनौती है। उस तरह नहीं, जिस तरह राजनैतिक विश्लेषक मीडिया पर बता रहे हैं। जो कि यह मान बैठे हैं कि मोदी का विकास का नारा चल गया। वे इस हकीकत को नजरअंदाज कर रहे हैं कि 49 फीसदी मतदाता मोदी के दावे से सहमत नहीं हैं। काँग्रेस इस बात का पूरा फायदा नहीं उठा पायी। अब उसके सामने चुनौती यह है कि वह देश के सामने इन तथ्यों को कैसे रखे कि जनता प्रचार के प्रभाव से बचकर निष्पक्ष मूल्यांकन कर सके। बाकी देश की जनता गुजरातियों की तरह न तो उद्यमी है और न ही व्यापारी। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात को छोड़कर पश्चिमी भारत से असम तक आम हिन्दुस्तानी अभी भी कृषि, छोटे कारोबार और सेवा सैक्टर से जुड़ा है। जिसके लिए न तो मोदी की भाषा और न तेवर का ही कोई महत्व है। मतदाताओं का यह वह विशाल वर्ग है जिसके लिए विकास का मतलब है छोटी-छोटी जरूरतों का पूरा होना। उसके जल, जंगल, जमीन का बचना। उसके लिए रोजगार का सृजन होना। ऐसे सभी कामों में तमाम आलोचनाओं के बावजूद काँगे्रस मोदी से पहले भी आगे थी और आज भी आगे है।
आम आदमी के हक में भाजपा के मुकाबले काँगे्रस ने हमेशा ही ज्यादा ठोस और जोखिम भरे फैसले लिए हैं। चाहें वो इन्दिरा गांधी के जमाने में बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो या पंचायत राज या सीधे नकद सब्सिडी। काँग्रेस के सामने दो चुनौतियां हैं। एक तो यह कि वह अपनी इन योजनाओं को प्रभावी तरीके से लागू करने में जी-जान से जुट जाए। कोई कोताही न होने दे। अफसरशाही पर अपनी नकेल कसे। प्रशासन को जनोन्मुखी बनाऐ। दूसरी चुनौती यह है कि मोदी की तरह ही वह अपनी उपलब्धियों का आक्रामक तरीके से प्रचार करें।
ये चुनावी दंगल का वर्ष है। राजग और सप्रंग दोनों अपने खम्भ ठोकेंगे। कमजोरियों और उपलब्धियों में दोनों में से कोई किसी से कम नहीं है। जनता इस तमाशे को देखेगी और जिसका सन्देश उसके दिल में उतरेगा, उसे दिल्ली की गद्दी पर बिठा देगी।

Monday, December 17, 2012

क्यों लगने लगे हैं पत्रकारों पर ब्लैकमेलिंग के आरोप

जबसे जी0टी0वी0 के दो सम्पादक जिंदल स्टील के मामले में ब्लैकमेलिंग के आरोप में तिहाड़ जेल भेजे गए हैं, तब से मीडिया दायरों में यह बहस चल पड़ी है कि क्या पत्रकारिता का स्तर इतना गिर गया है कि अब पत्रकारों को ब्लैकमेलिंग के आरोप में गिरफ्तार करने की नौबत भी आने लगी है? दरअसल ब्लैकमेलिंग और पत्रकारिता का सम्बन्ध ऐसा है कि जैसे उत्तरी धु्रव और दक्षिणी ध्रुव। ब्लैकमेलिंग एक अपराध है और पत्रकारिता एक मिशन। मिशनरी अपराधी नहीं हो सकता और अपराधी मिशनरी नहीं हो सकता। जिंदल और जीटीवी के मामले में कौन सही है और कौन गलत, इस विवाद में हम नहीं पड़ेंगे, क्योंकि यह पुलिस और न्यायालय के बीच का मामला है। पर यहाँ जानना जरूरी है कि पत्रकारों पर ब्लैकमेलिंग के आरोप क्यों लगने लगें है?
जब कोई पत्रकार किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ सबूत इकट्ठे करता है जिसने कोई अनैतिक कार्य किया है और उन तथ्यों को जाँच के बाद सत्यापित कर लेता है, तब उसे उन्हें प्रकाशित या प्रसारित कर देना होता है। ऐसा न करके अगर कोई आरोपित व्यक्ति से मोल भाव करे कि तुम मुझे इतनी रकम दो तो मैं तुम्हारे खिलाफ इस खबर को दबा दूंगा, तो इसे ब्लैकमेलिंग कहा जाऐगा।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ब्लैकमेलिंग का शिकार वही व्यक्ति, अफसर, नेता, धर्माचार्य या उद्योगपति होता है जो जाने-अनजाने कोई अनैतिक कार्य कर बैठता है। अपनी बदनामी और कानून की पकड़ से बचने के लिए वह ब्लैकमेलिंग का शिकार बन जाता है। मतलब यह हुआ कि इस प्रक्रिया में दोनों ही पक्ष अपराधी हो गए।
समाज है तो विसंगतियां भी होंगी ही। विसंगतियां हैं तो खबर भी बनेगी। जितना बड़ा आदमी होगा, उतनी बड़ी खबर होगी। पर पत्रकारिता का पेशा किसी के फटे में पैर देने का नहीं है बल्कि विसंगतियों को उजागर करते हुए या तो निष्पक्ष सूचना देने का है या एक कदम और आगे बढ़ें तो समाज को दिशा देने का है। ब्लैकमेलिंग का कतई नहीं।
फिर यह बात क्यों सामने आ रही है? आग है तभी तो धुंआ है। कस्बे से लेकर देश की राजधानी तक ऐसे अनेकों उदाहरण मिलेंगे, जहाँ पत्रकारों ने पत्रकारिता के पेशे का दुरूपयोग कर अपने वैभव का असीम विस्तार किया है। इसमें दो श्रेणियां हैं, एक वो जिन्हें अनैतिक आचरण करने वाले ताकतवर व्यक्ति ने रिश्वत का ऑफर देकर खरीद लिया। दूसरे वे जो ब्लैकमेलिंग का रास्ता अपनाकर अपनी दौलत बढ़ाते हैं। जिससे पूरा पेशा बदनाम हो रहा है। इन दोनों ही मामलों में ज्यादा जिम्मेदारी अखबार या टी0वी0 समूह के मालिक की होती है। जो मालिक निष्पक्ष और ईमानदार पत्रकारिता करवाना चाहते हैं, उनके प्रतिष्ठान में ऐसा पत्रकार टिक ही नहीं सकता। उसका पता लगते ही उसे निकाल दिया जाऐगा। पर आज मीडिया का ग्लैमर और ताकत अगर बढ़ी है तो हर मीडिया हाउस यह दावा नहीं कर सकता कि वह विशुद्ध पत्रकारिता के आधार पर अपने प्रतिष्ठान को जीवित रखे हुए है। सच्चाई तो यह है कि ज्यादातर ऐसे प्रतिष्ठान घाटे में चल रहे हैं। कोई उद्योगपति या निवेशक घाटा उठाकर किसी अखबार या टी0वी0 न्यूज का उत्पादन क्यों करेगा और कब तक करेगा? जाहिरन यहाँ घाटा तो कहीं और से मुनाफा। इसलिए ऐसे लोग भी इस पेशे में जमे हुए हैं।
दूसरा दबाव कुछ संपादकों का होता है। पहले संपादक पत्रकारिता के पेशे से आते थे और शुद्ध पत्रकारिता करते थे। अब कुछ संपादक कम्पनी के सी.ई.ओ. भी बना दिए जाते हैं। इसलिए संपादकीय बैठक में उनका ध्यान खबर की गुणवत्ता से ज्यादा इस बात पर होता है कि कम्पनी का मुनाफा कैसे बढ़े? मुनाफा बढ़ाने का तरीका अखबार का दाम बढ़ाना नहीं, बल्कि विज्ञापन बढ़ाना होता है। प्रायः विज्ञापन व्यवसायिक दृष्टिकोण से कम दिए जाते हैं और अखबार का मुँह बन्द करने के लिए ज्यादा। इसलिए संपादक संवाददाताओं से प्रायः ऐसी खबर करवाते हैं जिससे घबराकर विज्ञापनदाता उस प्रकाशन या चैनल को भारी भरकम विज्ञापन देने लगें। सतह पर यह कोई अपराध नहीं लगता, पर हकीकत यह है कि यह भी ब्लैकमेलिंग का एक साफ-सुथरा नमूना है। तीसरे स्तर की ब्लैकमेलिंग संवाददाताओं के स्तर पर छोटी-छोटी खबरों के बारे में सुनने में आती है। जब सम्पन्न लोगों से संवाददाता अपने पेशे की धमकी देकर चैथ वसूली करते हैं। इनमें भी दो श्रेणियां हैं। एक वे जिनका धंधा ही यह होता है, दूसरे वे जो हालात से मजबूर होते हैं। जब अखबार या चैनल मालिक संवाददाता को उसकी योग्यता और आवश्यकता से कहीं कम भुगतान करता है तो भौतिकता के दबाव में, समाज का माहौल देखते हुए उस पत्रकार को इस तरह पैसा कमाने का लोभ पैदा हो जाता है। लेकिन दूसरी तरह के वे होते हैं जिन्हें मुफ्त की कमाई करने में मजा आने लगता है। यह उनकी आवश्यकता नहीं होती, बल्कि व्यसन होता है।
सवाल यह है कि क्या मीडिया अन्य उद्योगों की तरह एक कमाई का धंधा है या लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ? अगर मीडिया का व्यापार शुद्ध मुनाफे का कारोबार नहीं है तो कोई कितने दिन तक घाटा उठाकर अपने अखबार और टी0वी0 चैनल चला पाऐगा? जाहिरन वह राजनैतिक और औधोगिक संरक्षण लेकर ही चल पाता है। अभी तक देश में ऐसा कोई मॉडल बड़े स्तर पर सफल नहीं हुआ जब समाज ने सही, निष्पक्ष और निडरता से बटोरी गई खबरों को जानने के लिए किसी प्रिंट या टीवी मीडिया हाउस को सामूहिक रूप से ऐसा आर्थिक समर्थन दिया हो कि उस हाउस को किसी के भी आगे हाथ न फैलाना पड़े। अगर ऐसा होता है तो न तो पत्रकारिता की गरिमा गिरेगी और न ही देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटकर या जनता के पैसे को घोटालों के माध्यम से हड़पकर अकूत दौलत कमाने वाले उद्योगपति, नेता और अफसर निर्भय होकर विचरण कर पाऐंगे। तब जनता को सही खबर भी मिलेगी और उसकी ताकत भी बढ़ेगी। साथ ही सरकार हो या निजी क्षेत्र दोनों को जिम्मेदारी से पारदर्शी व्यवहार करना पड़ेगा। जब तक मौजूदा हालात बने रहते हैं, तब तक पत्रकारिता पेशे का एक अंग भी अनैतिक कृत्यों से बचा नहीं रह पाऐगा।
यह इस बात पर निर्भय करेगा कि इस पेशे को अपनाते वक्त उस व्यक्ति के सामने क्या लक्ष्य था? क्या हम पत्रकारिता के माध्यम से समाज को सजाने-संवारने के लिए उतरे हैं या बिना मेहनत की मोटी कमाई करने के लिए? पहली श्रेणी के पत्रकार धीरे-धीरे प्रगति करेंगे पर लम्बे समय तक सार्वजनिक जीवन में टिके रहेंगे। दूसरी श्रेणी के पत्रकार धन तो पहले दिन से कमा लेंगे, पर समाज में प्रतिष्ठा पाना उनसे कोसों दूर रहेगा। जब तक कोई स्पष्ट समाधान न मिले, तब तक हालात बदलने वाले नहीं हैं। देश की जनता और सरकार के लिए यह बहुत चिंता का विषय होना चाहिए कि लोकतंत्र का यह चैथा खम्बा इस तरह के आपराधिक आरोपों से बदनाम किया जा रहा है।

Monday, December 10, 2012

देश में हलचल क्यूँ मची हुई है

देश में हलचल मची है। खासतौर पर सरकारी नीतियों को लेकर मीडिया और विपक्ष सक्रिय हो उठा है। लेकिन मुद्दे जल्दी जल्दी आ और जा रहे हैं। किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि हमारा मुख्य मुद्दा है क्या? ऐसे हालात में मीडिया की तरफ से एक शब्द आया है- पॉलिसी पैरालिसिस! इसकी हिन्दी करना भी मुश्किल हो रहा है। विशेषज्ञ बता रहे हैं कि पिछले तीन-चार महीनों में इस शब्द का चलन अचानक बढ़ गया है।
दरअसल इस शब्द का प्रयोग ज्यादातर कॉरपोरेट जगत कर रहा है। जिसका आरोप है कि सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में सोच और नीतियों को लेकर एकरूपता नहीं है। अवसरशाही नाहक निर्णयों को लम्बा खींच रही है। देश में विनियोग करने का वातावरण खत्म होता जा रहा है। मजबूरन भारत के बड़े औघोगिक घरानों को दूसरे देशों में विनियोग की संभावनाऐं तलाशनी पड़ रही हैं।
यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि लोकतंत्र में सरकार की जबावदेही आमजनता के प्रति ज्यादा होती है। इसलिए कॉरपोरेट जगत की इस शिकायत को सही मानते हुए भी हमे देखना होगा कि क्या वाकई सरकार हर मामले में इतनी ढीली पड़ गयी है कि उसके लिए ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ का नामकरण किया जाऐ?
ऐसा नहीं है। पहली बात तो यह कि ‘नीतिगत फॉलिश’ मारा जाना या ‘नीतिगत पक्षाघात’ से कोई अर्थचित्र नहीं बन पा रहा है। नीति में दोष तो हो सकता है, लेकिन नीति को ‘फॉलिश’ मारने की कोई स्थिति समझ में नहीं आती। जितने भी लोगों के बीच इस शब्द को लेकर अनौपचारिक बातचीत हो रही है, वे कहना तो यही चाह रहे हैं कि सरकार की नीतियाँ समझ में नहीं आ रही हैं। यदि उन्हें यही कहना है तो वे सरलता से कह सकते हैं कि नीतियों में ‘स्पष्टता’ नहीं है। लेकिन यह बात कही इसलिए नहीं जा सकती क्योंकि आजादी के बाद देश में पहली बार सरकार की नीतियों को लेकर इतनी तीव्रता और सघनता से बहस हो रही है और नीतियों का विरोध हो रहा है - इसलिए कोई नहीं कह सकता कि नीतियाँ समझ में नहीं आ रहीं। खासतौर पर सब्सिडी को सीधे लाभार्थी को दिए जाना और खुदरा में एफ.डी.आई. को शुरू किए जाना, ऐसी नीतियाँ या उपाय हैं, जिनकी सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है। इन नीतियों के कार्यान्वयन में अब कानूनी तौर पर कोई अड़चन नहीं दिखती। बस वे अन्देशे दिखते हैं जिन्हें मीडिया और नीति विरोधी शक्तियाँ दिखा रही हैं। इसलिए इस पर विचार करने की जरूरत है।
गांवों तक सब्सिडी के रूप में हर जरूरतमंद को सीधे धन पहुँचाने की नीति को लेकर सबसे ज्यादा हलचल है। इसके विरोध में आमतौर पर एक तर्क यह दिया जा रहा है कि यह देश के बहुत बड़े तबके (आम मतदाता) को घूस देने की कोशिश है। विपक्ष के इस आरोप के जबाव में सरकारी विशेषज्ञों का कहना है कि आजादी के बाद से आज तक हर सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह रही है कि अन्तिम व्यक्ति तक मदद कैसे पहुँचे? जितनी नीतियां और कार्यक्रम अन्तिम व्यक्ति के लिए बने, उन सबको नौकरशाही और बिचैलिए खा गए। यह पहली बार है कि अब इन सबकी कोई भूमिका नहीं रही। आम आदमी सीधे लाभ उठा सकेगा। इसी से विरोधियों में घबराहट है कि अगर ऐसा हो गया तो फिर इसकी टक्कर में उनके पास क्या बचा? इससे यह तो साफ है कि सरकार की नीति में कोई शैथिल्य नहीं है। वह जो चाह रही है, धड़ल्ले से कर रही है। हां, यह बात जरूर है कि जैसा दावा सरकार कर रही है, वैसा लाभ क्या वाकई आम आदमी को मिल पाऐगा? तो फिर यह तो क्रियान्वयन की संभावनाओं पर संशय वाली स्थिति हुई। इसमें नीतिगित शैथिल्य कहाँ से आया?
एफ.डी.आई. ऐसी दूसरी नीति है। संसद में लगातार चार दिन की बहस में इस नीति के लगभग हरेक पक्ष पर खूब बातचीत हुई है। कुल मिलाकर इसके विरोध में एक ही तर्क दिया गया कि किराना या खुदरा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लगभग 20-25 करोड़ लोगों का क्या होगा? लेकिन यह बात किसी ने नहीं उठाई, सरकार ने भी नहीं, कि अगर यह प्रयोग सफल हो जाता है तो आज खुदरा व्यापार में शोषित हो रहे श्रमिकों और कर्मचारियों की दशा में कितना गुणात्मक सुधार आ जाऐगा? वैसे भी हैरत की बात यह है कि शुरूआत में यह सिर्फ 10 लाख से ज्यादा आबादी के 53 शहरों तक ही सीमित थी और बाद में राजनीतिक परिस्थितियों में निकलकर यह आया कि शुरूआती तौर पर इसका प्रयोग या क्रियान्वयन सिर्फ 15 शहरों में हो पाऐगा। यानि 15 शहरों से प्रायोगिक तौर पर शुरू की जा रही इस नीति का कार्यान्वयन होना है। जिसे लेकर कोई भी कह सकता है कि इसके नतीजों को देखकर ही इसके आगे जाने की सम्भावनाऐं बनेंगी। हाँ, यह तय हो गया है कि ये दोनों नीतियां जल्दी ही शुरू होनी हैं। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि बगैर ज्यादा शोर मचे ये दोनों काम शुरू हो चुके हैं। यानि ‘नीतिगत शैथिल्य’ का प्रश्न अब प्रासंगिक हुआ नहीं दिखता।
जहाँ तक औघोगिक जगत का आरोप है, वहाँ वाकई सरकार की जबावदेही बनती है। पर केन्द्र की ही क्यों, राज्यों की सरकारें भी कोई प्रभावी विकल्प नहीं दे पाई हैं। पिछले दशक में केवल तीन मुख्यमंत्री ऐसे रहे हैं, नरेन्द्र मोदी, शीला दीक्षित और मायावती जिन्होंने अपनी नौकरशाही पर पकड़ बनाई है। वर्ना राज्य हों या केन्द्र, नौकरशाही आज भी इतनी ताकतवर है कि वो जनता और नेता दोनों को मूर्ख बना रही है। नेता राजनैतिक निर्णय ले या भ्रष्ट आचरण करे तो माना जा सकता है कि यह चुनावी व्यवस्था की मजबूरी है, जहाँ उसका भविष्य अनिश्चित रहता है। पर सुरक्षित वर्तमान और भविष्य को लेकर सरकार का स्थायी अंग बनी नौकरशाही क्यों गलत होने देती है? क्यों सही का समर्थन नहीं करती? क्यों अपने से बेहतर विचारों ओैर कार्यक्रमों को स्वीकारने में उसके अहम को चोट लगती है? जब सबकुछ मिला है तो वो क्यों भ्रष्ट हो जाती है? आज देश में इस झंझट में से निकलकर प्रगति के रास्ते पर चलने का माहौल बनना चाहिए। जिसका एक बड़ा हिस्सा होगा कि जनता नौकरशाही की जबावदेही के लिए पूरा दबाव बनाऐ। फिर जनता में चाहें रतन टाटा हों या मध्यम वर्ग या आम इंसान।