Monday, July 21, 2014

आम भारतीय के रास्ते का रोड़ा बनी हुई है अंग्रेजी



गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने यूनाइटेड नेशंस पापुलेशन फंड इण्डिया के एक समारोह में हिंदी में भाषण देकर ऐसा क्या गुनाह कर दिया कि अंग्रेजी मीडिया उन पर टूट पड़ा है ? अंग्रेजी छोड़ हिंदी अखबार तक गृह मंत्री के समर्थन में आवाज़ बुलंद नहीं कर रहे | दरअसल राजनाथ जी इस मौके पर दो सन्देश दे रहे थे | एक तो यह कि दुनिया की चौथी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी को दुनिया में सम्मान देने का समय आ गया है | दूसरा वे अपने बहुसंख्यक मतदाताओं को ध्यान में रख कर बोल रहे थे | वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ही देश की अस्मिता के सवाल को उठाया जाता है | मौजूदा सरकार और उसके प्रधानमन्त्री इस मुद्दे पर काफी गंभीर हैं और संजीदगी से इसे आगे बढ़ाना चाहते हैं | इसलिए ऐसे और भी मौके अभी आयेंगे |

कुछ अखबारों की यह आलोचना सही है कि ऐसे मौकों पर हिंदी भाषण का अंग्रेजी अनुवाद पहले से तैयार रखा जा सकता है | पर अंग्रेजी ही क्यों ? जब अंतर्राष्ट्रीय मंच की बात है तो रूसी, चीनी, जापानी, स्पैनिश क्यों नहीं ? दूसरी बात यह कि कई बार आत्मविश्वास वाले नेता अपने दिल की बात मौके पर स्वतंत्र रूप से रखना चाहते हैं | ऐसे में कोई पूर्वनिर्धारित भाषण की सीमाओं में बंधे रहना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करता है |

पिछले कितने दशकों से करूणानिधि या जयललिता हमेशा सदन में, मीडिया के सामने और विशिष्ट अतिथियों के साथ वार्ता में केवल तमिल भाषा का ही प्रयोग करते हैं | तो इससे किसी को कोई परेशानी नहीं होती | ऐसा ही अन्य राज्यों के नेता भी करते हैं | पर उससे हिंदी भाषी आहत महसूस नहीं करते | बल्कि उनके मातृभाषा प्रेम की सराहना करते हैं| दरअसल दो फीसद अंग्रेजी बोलने वाले लोग पिछले डेढ़ सौ वर्षों से अठानवे फीसद लोगों का शोषण करते आ रहे हैं | क्षेत्रीय भाषाओँ को दासी का दर्जा दिया गया है और अंग्रेजी को मालकिन का | यह स्थिति अब बदलनी चाहिए | बीस बरस पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने भी हिंदी के समर्थन में मजबूत मोर्चा खोला था | उनकी भी इसी तरह आलोचना हुई और मजाक उड़ा | पर वे विचलित नहीं हुए और अपने अभियान में सफल रहे|

तीस वर्ष पहले बहुराष्ट्रीय कम्पनीयां अपने विज्ञापन अंग्रेजी में ही छापती थी, चाहे प्रकाशन किसी भी क्षेत्रीय भाषा का हो | जब उन्हें लगा कि उपभोक्ता का विशाल बाजार अंग्रेजी नहीं क्षेत्रीय भाषा समझता है तो उन्होंने अपने विज्ञापन इन भाषाओँ में छापने शुरू कर दिए और आम आदमी तक पहुँच गए | यहाँ तक की आधुनिक तकनिकी की सौगात गूगल ने भी क्षेत्रीय भाषाओं के महत्व को स्वीकार कर अपने डेटा में इन भाषाओं के सब विकल्प उपलब्ध करा रखे हैं |

दूसरी तरफ हमारे हिंदी अखबार हैं, जिन्होंने अकारण अपनी भाषा को दोगला बना लिया है | अखबार हिंदी में छपता है और उसका नाम अंग्रेजी में | ख़बरों में भी अंग्रेजी के शब्दों की अकारण भरमार रहती है | यह अखबार गर्व से कहते हैं कि वे ‘हिंगलिश’ के अखबार हैं | यह तर्क बहुत बेहूदा है | इससे पूरी पीढ़ी की भाषा बिगड़ रही है | हम सब भी तो रोज़मर्रा की बोलचाल में उदारता से अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करते हैं | जिससे हम कोई भी भाषा ठीक और शुद्ध नहीं बोल पाते - ना हिंदी, ना अंग्रेजी | दूसरी तरफ रूस व चीन जैसे वे देश हैं जहाँ अगर आप उनकी भाषा में ना बोलें तो न तो आपको पीनी को पानी मिल पायेगा और ना ही शौचालय का मार्ग कोई बताएगा | आप लघुशंका के वेग से उछलते रह जाएंगे | क्योंकि अंग्रेजी में पूछे गए आपके सवालों का जवाब वे अपनी भाषा में देते रहेंगे और हम एक दूसरे की बात नहीं समझ पायेंगे | जब विदेशों में हम अंग्रेजी से काम नहीं चला पाते तो अपने देश में उसकी बैसाखियों का सहारा क्यों लेते हैं ?

प्राथमिक शिक्षा हो या विश्वविद्यालयी शिक्षा, प्रतियोगी परीक्षा हो या कचहरी की कार्यवाही या फिर सरकारी काम काज, अंग्रेजी आज आम भारतीय को उसका हक मिलने के रास्ते में रोड़ा बन कर बैठी है | अपने हक के लिए तीन दशकों तक मुकदमा लड़ने के बाद जब वादी और प्रतिवादी सर्वोच्च न्यायालय पहुँचते हैं तो उन्हें यह पता नहीं चलता कि उनकी जिंदगी का फैसला करेने वाले मुकदमें में क्या बहस हो रही है ? इसी तरह गांव की हकीकत से जुड़ा एक मेधावी नौजवान प्रशासनिक अधिकारी बनकर अपने लोगों का कितना काम कर सकता था ? पर अंग्रेजी में हाथ तंग होने के कारण वह मौका चूक जाता है |

भारत की नई सरकार को अगर देश की राष्ट्रभाषा हिंदी को उसका वांछित स्थान दिलवाना है तो भविष्य में अनुवाद आदि की व्यवस्थाओं को और व्यापक बनाना होगा | जिससे ऐसे विवाद फिर खड़े ना हों | फ़िलहाल हमें राजनाथ सिंह जी को बधाई देनी चाहिए और उनका उत्साह बढ़ाना चाहिए ताकि राष्ट्रभाषा को उसका दीर्घ प्रतीक्षित स्थान मिल सके |

Monday, July 14, 2014

बढ़ती जा रहीं है देश की समस्याएं और चिंताएं


देश में समस्याएं और चिंताएं बढ़ती जा रही है | हाल ही में लोकसभा के चुनावों के दौरान इन समस्याओं को जनता के सामने बार बार रख कर सभी राजनेतिक दलों ने अपनी अपनी समझ से उपाए रखे और वादे किये | लोगों ने नरेन्द्र मोदी में भरोसा जताया | उनकी स्पष्ट बहुमत की सरकार बन गयी |

स्थायी समस्याओं के रूप में सरकार के सामने – महंगाई भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी है | महंगाई घटती नहीं दिखती, भ्रष्टाचार की स्थिति का पता नहीं है और रोज़गार इतनी बड़ी समस्या है कि विकास की बात कहने के अलावा किसी के पास कभी कोई योजना होती ही नहीं है |

महंगाई को लेकर पिछली सरकार के खिलाफ सतत विरोध अभियान चलाया गया था | मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि यूपीए सरकार इसी मुद्दे पर हारी थी | इस आधार पर हम अनुमान लगा सकते हैं कि नई सरकार के सामने सबसे पहले करने के लिए यही काम होना चाहिए था | संयोगवश और परंपरावश रेल बजट और आम बजट को इन्ही दिनों पेश होना था | रेल बजट के पहले रेल किराये और भाड़ा बढ़ाना पड़ा | सरकार ने खूब तर्क दिए और मजबूरियां बताई लेकिन नई सरकार की छवि को मजबूरी से किये गए इस काम से काफी नुक्सान पहुंचा है | जबकि सरकार चाहती तो यही काम करने के पहले जनता को जागरूक बना सकती थी | रेलवे पर श्वेतपत्र लाकर यह काम किया जा सकता था | और अगर श्वेतपत्र लाने में देर हो जाने का तर्क था तो वैसे में कम से कम रेलवे की वास्तविक स्थिति का प्रचार तो सरकार कर ही सकती थी |

लगातार रोजी-रोटी के जुगाड़ में लगी जनता बजट की बारीकी और आर्थिक बातों की गहराई समझ नहीं पाती | वह तो अपनी रोज़मर्रा की समस्याओं से निजात चाहती है और जबतक निजात ना मिले तो कुछ राहत चाहती है | महंगाई के मोर्चे पर वह राहत जनता को महसूस नहीं हुई | हालांकि वित्त मंत्री ने अपने व्यक्तित्व के हिसाब से दलीलें दीं, लेकिन इन्ही वित्त मंत्री को लोगों ने चुनाव के दौरान भी सुना था | उनके भाषणों के उस दौर को गुज़रे हुए अभी दो महीने भी नहीं हुए हैं | जो भी हुआ हो लेकिन अब एक ही स्थिति बनती है कि देश के वास्तविक हालात की जानकारी समझने लायक अंदाज़ में दी जाये और महंगाई से निपटने के कुछ फौरी उपाए भी किये जायें | यह बात कुछ ज्यादा गंभीर इसलिए भी है क्योंकि – अच्छा मौसम आने वाला है इस खुशफ़हमी में नहीं रहा जा सकता | इस साल बारिश के अब तक के आंकड़े निराशाजनक हैं | इस आसमानी आफत से सुल्तानी तरीके से कैसे निपटा जाये यह चुनौती खड़ी हो गयी है | वैसे बारिश के चार महीनों में अभी सिर्फ एक महीना ही गुज़रा है | इसमें हमें 40-50 फीसद पानी मिला है | लेकिन इसके आधार पर पता नहीं क्यों सूखे की आशंकाएं जताए जाने लगी हैं | यानी ऐसी आशंकाएं जताने में कहीं जल्दबाजी तो नहीं हो रही है | और अगर दुर्भाग्य से वैसा हुआ भी तब भी अभी से ऐसी आशंकाओं से महंगाई के हालात और ज्यादा बिगड़ सकते है |

साग सब्जियों, दाल और अनाज के व्यापारी बाज़ार की ‘धारणाओं’ से चलते हैं | सूखे और दूसरी आसमानी आफत की ज्यादा बातें फ़िज़ूल इसलिए भी हैं क्योंकि ऐसी आफतों से निपटने का उपाय हम जैसे देश अभी ढूंढ नहीं पाए हैं | प्रकृति बार बार चेता कर हमें जल संरक्षण सीखने का सुझाव देती है | लेकिन पता नहीं क्यों यह राजनैतिक मुद्दा नहीं बनता | यह बात चुनावी घोषणापत्रों में नहीं आती | हो सकता है इसका कारण यह हो कि इस काम के लिए लंबा समय चाहिए | जबकि सामान्य अनुभाव यह है कि हम चाहे सरकार गिराना हो और चाहे सरकार बनाना हो सिर्फ फौरी बातों का ही सहारा लेते हैं |

नए राजनैतिक माहौल में ऐसी बातें किन्हें पसंद आएँगी इसका अनुमान तो अभी नहीं लगाया जा सकता | लेकिन यह तय है कि जटिल समस्याओं के समाधान में लंबे सोच विचार की ज़रूरत पड़ती है और मजबूरी में दीर्घकालिक योजनाएं बनानी पड़ती हैं | खासतौर पर महंगाई जैसी फौरी समस्याओं के समाधान को भी हम जलप्रबंधन जैसे उपायों के संदर्भ में क्यों नहीं देख सकते |

पिछले एक महीने की बारिश में हमें सामान्य से आधा पानी मिला | अगर दुनिया के कुछ क्षेत्रों को देखें तो उनके यहाँ अपने देश की कुल औसत बारिश से एक चौथाई औसत बारिश से ही काम चल जाता है यह उनके जलप्रबंधन का कमाल है | और हैरत की बात यह है कि हमारे देश के और प्रदेशों के जल संसाधान मंत्री लगभग हर साल उन क्षेत्रों में दौरा करने जाते हैं और लौट कर तारीफें भी करते हैं लेकिन वैसा कुछ कर नहीं पाते | सामान्य अनुभव है कि वैसा करने के लिए पैसे की कमी का रोना रोया जाता है | लेकिन सवाल यह उठता है कि जब दूसरे क्षेत्रों में विदेशी निवेश का उपाय हम अपना लेते हैं तो इतने महत्वपूर्ण क्षेत्र में यानी जलप्रबंधन के क्षेत्र में विदेशी निवेश की छूट के नफे नुक्सान पर हम क्यों नहीं सोचते?

Monday, July 7, 2014

सीवीसी की नियुक्ति में कोई अड़चन नहीं आएगी

संसद में सबसे बड़ा विपक्षी दल इस बात को ले कर परेशान है कि सरकार उसके नेता को ‘नेता प्रतिपक्ष’ का दर्ज़ा क्यों नहीं देना चाहती | कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने श्रीमती सोनिया गांधी की अध्यक्षता में इस मुद्दे पर सरकार को संसद में घेरने कि रणनीति बनाई है | वैसे ये फैसला लोकसभा की अध्यक्षा श्रीमती सुमित्रा महाजन को करना है | कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद ने एक सार्वजनिक बयान देकर यह चिंता जताई है कि नेता प्रतिपक्ष की नियुक्ति न होने से सीवीसी जैसे अनेक संवैधानिक पदों को भरना असंभव हो जायेगा | जबकि हकीकत यह नहीं है | सीवीसी एक्ट की धारा चार के अनुसार सीवीसी की नियुक्ति राष्ट्रपति के आदेश पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली एक समिति द्वारा की जाति है | जिसके अन्य दो सदस्य भारत के गृहमंत्री व नेता प्रतिपक्ष होते हैं | जैन हवाला काण्ड का फैसला देते समय भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था महत्वपूर्ण पदों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाने के लिए की थी | पर इसके साथ ही इस क़ानून के निर्माताओं ने संसद की मौजूदा स्थिति का शायद पूर्वानुमान लगा कर ही इस अधिनियम के सब-सेक्शन में यह स्पष्ट कर दिया है कि सीवीसी कि नियुक्ति के सम्बन्ध में ‘नेता प्रतिपक्ष’ का तात्पर्य लोक सभा में सबसे अधिक सांसदों वाले दल के नेता से है | ऐसे में अगर श्रीमती सुमित्रा महाजन कांग्रेस की मांग पर उसके नेता को सदन में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं देतीं तो भी सीवीसी कि नियुक्ति में कोई अड़चन नहीं आएगी |

ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सीवीसी की संरचना को लेकर सरकार कुछ नई पहल करे | जिस तरह भारत के मुख्य न्यायाधीश ने विशेष मामलों के लिए सर्वोच्च न्यायायलय में विशेष योग्यता वाले न्यायाधीशों की नियुक्ति की पहल की है | उसी तरह सीवीसी के भी सदस्यों की संख्या में विस्तार किये जाने की आवश्यकता है | अभी परंपरा यह बन गयी है कि एक सदस्य भारतीय प्रशासनिक सेवा का होता है, एक भारतीय पुलिस सेवा का और एक बैंकिंग सेवा का | ये तीन तो ठीक हैं इनके अलावा एक सदस्य कर विशेषज्ञ होना चाहिए, एक सिविल इन्जीनियरिंग का, एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय मामलों का और एक सदस्य कानूनविद होना चाहिए | इनकी भी नियुक्ति उसी तरह हो जैसी मौजूदा सदस्यों की होती है | क्योंकि सीवीसी के सामने जो ढेरों मामले आते हैं उनको जांचने परखने के लिए ऐसे विशेषज्ञों का होना अनिवार्य है |

इसके साथ ही एक सबसे बड़ी समस्या मंत्रालयों, सार्वजनिक उपक्रमों व अन्य सरकारी विभागों में नियुक्त सीवीओ को लेकर है | इस प्राणी का जीवन मगरमच्छ के मुंह में अटका है | उसी विभाग के संयुक्त सचिव स्तर के व्यक्ति को कुछ अवधि के लिए उसी विभाग का सीवीओ बना दिया जाता है | जिसका काम अपने विभाग में हो रहे भ्रष्टाचार की शिकयतों को सुलटाना होता है | अब यदि विभाग का अध्यक्ष ही टेंडर आदि में बड़े घोटाले कर रहा हो तो उसका अधीनस्त कर्मचारी उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत कैसे कर सकता है ? क्योंकि इस पद से हटने के बाद तो उसे उसी अधिकारी के अधीन शेष नौकरी करनी होगी | आवश्यक्ता इस बात की है कि सीवीसी को यह अधिकार दिया जाये कि वो देश के किसी भी राज्य या विभाग के किसी भी योग्य अधिकारी का चयन कर उसे सीवीओ नियुक्त करे, जिससे वह पूर्ण निष्पक्षता से कार्य कर सके |

सीवीसी की दूसरी बड़ी समस्या यह है कि उसके पास योग्य अफसरों का अभाव हमेशा बना रहता है |  ज्यादा नियुक्तियां करने से नाहक खर्च बढ़ेगा | अच्छा ये हो कि सीवीसी को अधिकार दिया जाये कि वह सेवानिवृत्त योग्य व अनुभवी अधिकारीयों को शिकायतों कि जाँच करने के लिए सलाहकार रूप में बुला सके | इससे पेंशनयाफ्ता खाली बैठे योग्य अधिकारियों का सदुपयोग होगा और जाँच की प्रक्रिया में तेज़ी भी आएगी |
 
वैसे तो सीबीआई की स्वायत्ता और उस पर सीवीसी के नियंत्रण को लेकर कई महत्वपूर्ण मुकदमें फिलहाल भारत के मुख्य न्यायधीश के विचाराधीन हैं | पर सरकार को भी इस मामले पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए | लोकपाल के गठन और असर को लेकर कई पेच हैं | पर मौजूदा व्यवस्था में थोड़े से सुधार से भ्रष्टाचार को लेकर जो चिंता लोगों के मन में है उसके समाधान प्रस्तुत किये जा सकते हैं | इससे नई सरकार की प्रतिबद्धता भी स्पष्ट होगी और देश में एक सही सन्देश जायेगा |

Monday, June 30, 2014

मोदी सरकार का मूल्यांकन करने में जल्दबाजी न करें

    महंगाई कुछ बढ़ी है और कुछ बढ़ने के आसार हैं। इसी से आम लोगों के बीच हलचल है। जाहिर है कि सीमित आय के बहुसंख्यक भारतीय समाज को देश की बड़ी-बड़ी योजनाओं से कोई सरोकार नहीं होता। उसे तो अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में राहत चाहिए। थोड़ी-सी हलचल उसे विचलित कर देती है। फिर कई छुटभइये नेताओं को भड़काने का मौका मिल जाता है। यह सही है कि जब-जब महंगाई बढ़ती है, विपक्षी दल उसके खिलाफ शोर मचाते हैं। पर इस बार परिस्थितियां फर्क हैं। नरेंद्र मोदी को सत्ता संभाले अभी एक महीना भी नहीं हुआ। इतने दिन में तो देश की नब्ज पकड़ना तो दूर प्रधानमंत्री कार्यालय और अपने मंत्रीमंडल को काम पर लगाना ही बड़ी जिम्मेदारी है। फिर दूरगामी परिणाम वाले नीतिगत फैसले लेने का तो अभी वक्त ही कहां मिला है।
    वैसे भी अगर देखा जाए तो आजादी के बाद पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी है। अब तक जितनी भी सरकारें बनीं, वे या तो कांग्रेस की थीं या कांग्रेस से निकले हुए नेताओं की थी। अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार भी उन बैसाखियों के सहारे टिकी थी, जिनके नेता कांग्रेस की संस्कृति में पले-बढ़े थे। इसलिए उसे भी गैर कांग्रेसी सरकार नहीं माना जा सकता। जबकि नरेंद्र मोदी की सरकार पूरी तरह गैर कांग्रेसी है और संघ और भाजपा की विचारधारा से निर्देशित है। इसलिए यह उम्मीद की जानी चाहिए कि यह सरकार अपनी नीतियों और कार्यशैली में कुछ ऐसा जरूर करेगी, जो पिछली सरकारों से अलग होगा, मौलिक होगा और देशज होगा। जरूरी नहीं कि उससे देश को लाभ ही हो। कभी-कभी गलतियां करके भी आगे बढ़ा जाता है। पर महत्वपूर्ण बात यह होगी कि देश को एक नई सोच को समझने और परखने का मौका मिलेगा।
    नरेंद्र मोदी सरकार को लेकर सबसे बड़ा आरोप यह लग रहा है कि इसके मंत्रिमंडल में नौसिखियों की भरमार है। इसलिए इस सरकार से कोई गंभीर फैसलों की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह सोच सरासर गलत है। आज दुनिया के औद्योगिक जगत में महत्वपूर्ण निर्णय लेने की भूमिका में नौजवानों की भरमार है। जाहिर है कि ये कंपनियां धर्मार्थ तो चलती नहीं, मुनाफा कमाने के लिए बाजार में आती हैं। ऐसे में अगर नौसिखियों के हाथ में बागडोर सौंप दी जाए, तो कंपनी को भारी घाटा हो सकता है। पर अक्सर ऐसा नहीं होता। जिन नौजवानों को इन औद्योगिक साम्राज्यों को चलाने का जिम्मा सौंपा जाता है। उनकी योग्यता और सूझबूझ पर भरोसा करके ही उन्हें छूट दी जाती है। परिणाम हमारे सामने है कि ऐसी कंपनियां दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की कर रही हैं। मोदी मंत्रिमंडल में जिन्हें नौसिखिया समझा जा रहा है, हो सकता है वे अपने नए विचारों और छिपी योग्यताओं से कुछ ऐसे बुनियादी बदलाव करके दिखा दें, जिसका देश की जनता को एक लंबे अर्से से इंतजार है।
    रही बात महंगाई की तो विशेषज्ञों का मानना है कि सब्सिडी की अर्थव्यवस्था लंबे समय तक नहीं चल सकती। लोगों को परजीवी बनाने की बजाय आत्मनिर्भर बनाने की व्यवस्था होनी चाहिए। इसके लिए कुछ कड़े निर्णय तो लेने पड़ेंगे। जो शुरू में कड़वी दवा की तरह लगंेगे। पर अंत में हो सकता है कि देश की अर्थव्यवस्था को निरोग कर दें। हां, इस दिशा में एक महत्वपूर्ण सवाल कालेधन को लेकर है। कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करने के लिए भाजपा ने विदेशों में जमा कालाधन भारत लाने की मुहिम शुरू की थी। जिसे बड़े जोरशोर से बाबा रामदेव ने पकड़ लिया। बाबा ने सारे देश में हजारों जनसभाएं कर और अपने टी.वी. पर हजारों घंटे देशवासियों को भ्रष्टाचार खत्म करने और विदेशों में जमा कालाधन वापिस लाने के लिए कांग्रेस को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया था। बाबा मोदी सरकार से आश्वासन लेकर फिर से अपने योग और आयुर्वेद के काम में जुट गए हैं। अब यह जिम्मेदारी मोदी सरकार की है कि वह यथासंभव यथाशीघ्र कालाधन विदेशों से भारत लाएं। क्योंकि जैसा कहा जा रहा था कि ऐसा हो जाने पर हर भारतीय विदेशी कर्ज से मुक्त हो जाएगा और अर्थव्यवस्था में भारी मजबूती आएगी। इसके साथ ही देश में भी कालेधन की कोई कमी नहीं है। चाहे राजनैतिक गतिविधियां हों या आर्थिक या फिर आपराधिक, कालेधन का चलन बहुत बड़ी मात्रा में आज भी हो रहा है। इसे रोकने के लिए कर नीति को जनोन्मुख और सरल बनाना होगा। जिससे लोगों में कालाधन संचय के प्रति उत्साह ही न बचे। जिनके पास है, वे बेखौफ होकर कर देकर अपने कालेधन को सफेद कर लें।
    जैसा कि हमने मोदी की विजय के बाद लिखा था, राष्ट्र का निर्माण सही दिशा में तभी होगा, जब हर भारतीय अपने स्तर पर, अपने परिवेश को बदलने की पहल करे। नागरिक ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित हो, इसके लिए प्रधानमंत्री को जनता का विशेषकर युवाओं का राष्ट्रव्यापी आह्वान करना होगा। उन्हें आश्वस्त करना होगा कि अगर वे जनहित में सरकारी व्यवस्था से जवाबदेही या पारदर्शिता की अपेक्षा रखते हैं, तो उन्हें निराशा नहीं मिलेगी। इसकी शुरूआत नरेंद्र भाई ने कर दी है। दिल्ली की तपती गर्मी में ठंडे देशों में दौड़ जाने वाले बड़े अफसर और नेता आज सुबह से रात तक अपनी कुर्सियों से चिपके हैं और लगातार काम में जुटे हैं। क्योंकि प्रधानमंत्री हरेक पर निगाह रखे हुए हैं। उनका यह प्रयास अगर सफल रहा, तो राज्यों को भी इसका अनुसरण करना पड़ेगा। साथ ही नरेंद्र भाई को अब यह ध्यान देना होगा कि जनता की अपेक्षाओं को और ज्यादा न बढ़ाया जाए। जितनी अपेक्षा जनता ने उनसे कर ली हैं, उन्हें ही पूरा करना एक बड़ी चुनौती है। इसलिए हम सबको थोड़ा सब्र रखना होगा और देखना होगा कि नई सरकार किस तरह बुनियादी बदलाव लाने की तरफ बढ़ रही है।

Monday, June 23, 2014

उतावलेपन से नहीं शुद्ध होंगी गंगा-यमुना

    पर्यावरणप्रेमियों व धर्मावलम्बियों के लिए सुखद अनुभूति है कि 30 वर्ष बाद देश के प्रधानमंत्री ने मां गंगा की सेवा का संकल्प लिया है। 30 वर्ष पहले राजीव गांधी ने भी यही प्रयास किया था। अरबों रूपये खर्च होने के बाद भी गंगा में गिरने वाला प्रदूषण रोका नहीं जा सका। पर यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि नदियों को बचाने की मुहिम में अभी जो सारा ध्यान गंगा पर है, उससे समस्या का हल नहीं निकलेगा। क्योंकि गंगा अपनी सहायक नदियों से ही गंगा है। गंगा की सबसे बड़ी सहायक नदी है यमुना।
    यमुना का भी पौराणिक महात्म्य है। गंगा भगवान के श्रीचरणों से निकली है और भोले शंकर की जटाओं में समा गई। जबकि यमुना यमराज की बहिन है। इसलिए यम के फंदे से बचाती है। भगवान कृष्ण की पटरानी हैं, इसलिए भक्तों की भक्ति बढ़ाती है। ब्रज के देवालयों में अभिषेक के लिए और गुजरात के वल्लभ कुल भक्तों के लिए तो यमुना का महत्व गंगा से भी ज्यादा है। अगर उपयोगिता के लिहाज से देखें तो यमुना का आर्थिक महत्व भी उतना ही है, जितना गंगा का।
    पिछले दो दशकों में गंगा की देखरेख की बात तो हुई, लेकिन कर कोई कुछ खास नहीं पाया। यह बात अलग है कि इतना बड़ा अभियान शुरू करने से पहले जिस तरह के सोच-विचार और शोध की जरूरत पड़ती है, उसे तो कभी किया ही नहीं जा सका। विज्ञान और टैक्नोलॉजी के इस्तेमाल की जितनी ज्यादा चर्चा होती रही, उसे ऐसे काम में बड़ी आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता था। जबकि जो कुछ भी हुआ, वो ऊपरी तौर पर और फौरीतौर पर हुआ। नारेबाजी ज्यादा हुई और काम कम हुआ।
    इससे यह पता चलता है कि देश की धमनियां मानी जाने वाली गंगा-यमुना जैसे जीवनदायक संसाधनों की हम किस हद तक उपेक्षा कर रहे हैं। इससे हमारे नजरिये का भी पता चलता है। आज यह बात करना इसलिए जरूरी है कि गंगा शुद्धि अभियान की केंद्रीय मंत्री उमा भारती हों, स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या गंगा-यमुना के तटों पर बसे भक्त, संत व आम लोग हों। सब इस परियोजना को लेकर न केवल उत्साहित हैं, बल्कि गंभीर भी हैं। इसलिए चेतावनी के बिंदु रेखांकित करना और भी जरूरी हो जाता है।
    यहां यह दर्ज कराना महत्वपूर्ण होगा कि यमुना का पुनरोद्धार करने का मतलब ही होगा लगभग गंगा का पुनरोद्धार करना। क्योंकि अंततोगत्वाः प्रयाग पहुंचकर यमुना का जल गंगा में ही तो गिरने वाला है। इसलिए अगर हम अपना लक्ष्य ऐसा बनाए, जो सुसाध्य हो, तो बड़ी आसनी से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यमुना शुद्धीकरण को ही गंगा शुद्धि अभियान का प्रस्थान बिंदु माना जाए। यहां से होने वाली शुरूआत देश के जल संसाधनों के पुनर्नियोजन में बड़ी भूमिका निभा सकती है। अब देश के सामने समस्या यह है कि एक हजार किलोमीटर से ज्यादा लंबी यमुना के शुद्धीकरण के लिए कोई व्यवस्थित योजना हमारे सामने नहीं है। यह बात अलग है कि नई सरकार के ऊपर इस मामले में जल्दी से जल्दी सफलता हासिल करने का जो दवाब है, वो भी सरकारी अमले को उतावला करने को मजबूर कर देता है। जबकि ऐसा उतावलापन कभी भी लाभ नहीं देता। उल्टा संसाधनों की बर्बादी और हताशा को जन्म देता है। मतलब साफ है कि यमुना के लिए हमें गंभीरता से सोच विचार के बाद एक विश्वसनीय योजना चाहिए। ऐसी योजना बनाने के लिए मंत्रालयों के अधिकारियों को गंगा और यमुना को प्रदूषित करने वाले कारणों और उनके निदान के अनुभवजन्य समाधानों का ज्ञान होना चाहिए। ज्ञान की छोड़ो कम से कम तथ्यों की जानकारी तो होनी चाहिए। हैरत की बात है कि यमुना के जल अधिकरण क्षेत्र को ही हम विवाद में डाले हुए हैं। हरियाणा कुछ कह रहा है, उत्तर प्रदेश कुछ कह रहा है और अपनी जीवनरक्षक जरूरतों के दवाब में आकर दिल्ली कुछ और दावा करता है। उधर राजस्थान और हिमाचल भले ही आज इस लड़ाई में शामिल न हों, पर आने वाले वक्त में वे भी यमुना के जल को लेकर लड़ाई में कूदेंगे। तब उनका दवाब अलग से पड़ने वाला है। कुल मिलाकर यमुना के सवाल को लेकर विवादों का ढ़ेर खड़ा है। यह भारत सरकार के लिए आज तक बड़ी चुनौती है। समस्या जटिल तो है ही लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर दे दें। अगर यह दावा किया जा रहा है कि आज हमारे पास संसाधनों का इतना टोटा नहीं है कि हम अपने न्यूनतम कार्यक्रम के लिए संसाधनों का प्रबंध न कर सकें, तो यमुना के पुनरोद्धार के लिए किसी भी अड़चन का बहाना नहीं बनाया जा सकता।
अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण यमुना की एक विशेषता यह है कि उसे हम कई स्वतंत्र भागों में भी बांट सकते हैं। मसलन, अपने उद्गमस्थल से लेकर ताजेवाला, ताजेवाला से लेकर ओखला और ओखला से लेकर मथुरा। फिर मथुरा के बाद कुछ ही दूर चंबल के इसमें गिरने के बाद यमुना की समस्याएं उतनी नहीं दिखतीं, फिर भी मथुरा से लेकर इलाहबाद तक हम एक भाग और मान सकते हैं। यहां पर अगर हमें यमुना शुद्धीकरण के लिए चरणबद्ध तरीके से कुछ करना हो, तो असली समस्या ओखला से लेकर मथुरा तक की दिखती है। इसी भाग में मारामारी है, प्रदूषण है और यमुना के अस्तित्व का प्रश्न खड़ा है।
इसलिए 400 किलोमीटर के इस खंड में अगर पिछले अनुभवों का इस्तेमाल करते हुए कोई योजना बनायी जाए, तो हम उम्मीद कर सकते हैं कि यमुना के पुनरोद्धार का कार्य तो होगा ही हम गंगा की सहायक नदी के माध्यम से गंगा का भी पुनरोद्धार कर रहे होंगे। इससे भी बड़ी बात यह होगी कि यमुना के माध्यम से देश के जल संसाधनों के प्रबंध के लिए हम एक मॉडल भी तैयार कर रहे होंगे।

Monday, June 9, 2014

सांसद बने अपने क्षेत्र का सी.ई.ओ.


नए चुने गए सांसदों पर इस देश के लिए सही कानून बनाने और जो गलत हो चुका है, उसे ठीक करने की बड़ी जिम्मेदारी है। इसके साथ ही वे अपने संसदीय क्षेत्र के सीईओ भी हैं। यदि वे संसद में और संसद के बाहर समाज की छोटी-छोटी समस्याओं के प्रति सजग और सचेत रहेंगे, तो कोई वजह नहीं कि भारत के करोड़ों मतदाताओं ने जिस विश्वास के साथ उनको इतनी ताकत दी है, उसके बल पर उनकी आशाओं पर खरे न उतरें। वैसे देश में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं, जब बिना सांसद बने व्यक्तियों ने अपने क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास कार्य किए हैं। फिर उनके पास तो शक्ति भी है, सत्ता भी है और संसाधनों तक उनकी पहुंच भी है। फिर क्यों उनका संसदीय क्षेत्र इतना पिछड़ा रहे?
यह सही है कि देश के 125 करोड़ लोगों की अपेक्षाएं बहुत हैं, जिन्हें बहुत जल्दी पूरा करना आसान नहीं। हर नेता और दल भ्रष्टाचार दूर करने, रोजगार दिलवाने, गरीबी हटाने और आम जनता को न्याय दिलवाने के नारे के साथ सत्ता में अता है। फिर भी इन मोर्चों पर कुछ खास नहीं कर पाता। जनता जल्दी निराश होकर उसके विरूद्ध हो जाती है। इसलिए विकास, जी.डी.पी., आधारभूत ढांचा, निर्माण के साथ आम आदमी के सवालों पर लगातार ध्यान देने की ज़रूरत होगी।
पिछले 3 वर्षों में हमने राजनीति में कुछ ऐसे लोगों का हंगामा झेला जिनका दावा था कि वे भ्रष्टाचार दूर करना चाहते हैं। उनके आचरण में जो दोहरापन थी, जो नाटकीयता थी और जो गधेे का सींग पाने की जिद्द थी उसने उन्हें रातोरात सितारा बना दिया। पर जब जनता को असलियत समझ में आई तो सितारे जमीन पर उतर आए। इस प्रक्रिया में वे जबरदस्ती लोकपाल बिल पारित करवा कर देश की प्रशासनिक व्यवस्था पर नाहक बोझ डालकर चले गए। जबकि बिना लोकपाल बने, इसी व्यवस्था में भ्रष्टाचार के विरूद्ध जो लड़ाई 20 वर्ष पहले हमने लड़ी थी। उसके ठोस परिणाम तब भी आए थे और आज भी सर्वोच्च न्यायालय में उनका महत्व बरकरार है। इसलिए सासदों से गुजारिश है कि एक बार फिर चिन्तन करें और ब्लैकमेलिंग के दबाव में आकर पारित किए गए लोकपाल विधेयक की सार्थकता पर विचार करें। बिना इसके भी मौजूदा कानूनों में मामूली सुधार करके भ्रष्टाचार से निपटने का काम किया जा सकता है।
इसी तरह साम्प्रदायिकता और जातिवाद का खेल बहुत हो चुका। देश का नौजवान तरक्की चाहता है। इस चुनाव के परिणाम इसका प्रमाण हैं। 1994-96 में चुनाव सुधारों को लेकर तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी.एन. शेषन और मैंने साथ-साथ देश में सैकड़ों जन सभाओं को संबोधित किया था। उस समय मुरादाबाद की एक जन सभा में मैंने कहा था कि,‘आप जानते हैं कि मैं एक मुसलमान हूं। मुसलमान वो जिसने खुदा के आगे समर्पण कर दिया है। मैंने भी खुदा के आगे समर्पण किया है। फर्क इतना है कि मैं खुदा को श्रीकृष्ण कहता हूं। मैं एक सिक्ख भी हूं। सिक्ख वो जिसने सत्गुरू की शरण ली हो। चूंकि मैंने एक सतगुरू की शरण ली है इसलिए मैं सिक्ख भी हूं। ईसामसीह बाइबिल में कहते हैं, ‘लव दाई गाड बाई द डैप्थ ऑफ दाई हार्ट’ अपने प्रभु को हृदय की गहराईयों से प्यार करने की कोशिश करों। चूंकि मैं ऐसा करता हूं इसलिए मैं ईसाई भी हूं। जिस दिन मैं जान जाऊंगा कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं कहा जाना है, उस दिन मैं बौद्ध हो जाऊंगा और अगर मैं अपनी इंद्रियों को नियंत्रित कर सकूं तो मैं जिनेन्द्रिय यानी जैन हो जाऊंगा। चूंकि मैं सनातन धर्म के नियमों का पालन करता हूं इसलिए मैं सनातनधर्मी भी हूं। यह है मेरा धर्म।’
जातिवाद से लड़ने के लिए हमें भगवत् गीता की मदद लेनी चाहिए। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि चारों वर्णों की मैंने सृष्टि की है और उन्हें गुण और कर्म के अनुसार बांटा है। जन्म से न कोई ब्राह्मण है, न क्षत्रिय, न वैश्य, न शूद्र है। हाल ही में बाबा रामदेव के संकल्प-पूर्ति महोत्सव में जब मैंने हजारों कार्यकर्ताओं और टीवी के करोड़ों दर्शकों के सम्मुख यही विचार रखे तो मुझे देशभर से बहुत सारे सहमति के सन्देश मिले। मेरा विश्वास है कि अगर हम इस भावना से अपने धर्म, अपनी आस्था और अपने व्यक्तित्व का मूल्यांकन करना शुरू कर दे ंतो हम साम्प्रदायिक या जातिवादी रह नहीं पाएंगे। श्री नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व में वह ऊर्जा है कि वे इस विनम्र विचार को देश की जनता के मन में बिठा सकते हैं और इस विष को समाप्त करने की एक पहल कर सकते हैं।
इसी तरह रोज़गार का सवाल है। अमरिका में मंदी के दौर में वहां के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने देश के युवाओं से कहा था कि रोजगार के लिए किसी की तरफ मत ताकों। अपने घर के गैरेज में छोटा सा कारोबार शुरू कर लो। भारत के बेरोजगार नौजवानों के घरों में कार के गैराज नहीं होते। पर हर शहर और कस्बे में खोके लगा कर ये नौजवान साइकिल से मोटर मरम्मत तक के छोटे-छोटे कारोबार खड़े कर लेते हैं। किसी पाॅलिटेकनिक में शिक्षा लिए बिना काम सीख लेते हैं। इन्हें पुलिस और प्रशासन हमेंशा तंग करता है। इनसे पैसे वसूलता है। अगर इन नौजवानों की थोड़ी सी भी व्यवस्थित मदद सरकार कर सके तो देश में करोड़ों नौजवानों की बेरोजगारी खत्म हो सकती है। यह बात छोटी सी है पर इसका असर गहरा पड़ेगा। सरकार से नौकरी की उम्मीद में बैठने वाले नौजवानों की फौज को कोई सरकार संतुष्ट नहीं कर सकती।
देश की योजनाओं के निर्माण में ऐसे खोखले लोग अपने संपर्कों से घुसा दिए जाते हैं जो जमीनी हकीकत को समझे बिना खानापूर्ति की योजनाएं बनवा देते हैं। जिनसे न तो जनता को लाभ होता है और ना ही पैसे का सदुपयोग। जेएनयूआरएम की हजारों करोड की योजनाएं ऐसे ही मूर्खों न तैयार की हैं। इसलिए जमीनी हकीकत नहीं बदलती।
कमाल अतातुर्क जब तुर्की के राष्ट्रपति बने तो तुर्की एक मध्ययुगीन पिछड़ा मुसलमानी समाज था। पर उन्होंने अपने कड़े इरादे से कुछ ही वर्षों में उसे यूरोप के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया। फिर भारत में नरेंद्र मोदी ऐसा क्यों नहीं हो सकते ?

Monday, June 2, 2014

समय बताएगा स्मृति ईरानी की योग्यता

जिस देश में ऐसी शिक्षा व्यवस्था चली आ रही हो कि एम.ए.-पी.एच.डी. की डिग्रियां दस बीस हजार रूपए में बिक रही हों । जिस देश के डिग्री कालेजों में हजारों छात्र भरती हों पर कभी क्लास में ना आते हों क्यूंकि उनके प्रवक्तागण मोटा वेतन ले कर भी पढ़ा न रहे हों । उस देश में स्मृति ईरानी के नाम के पहले अगर डा. लगा होता तो क्या उनकी योग्यता बढ़ जाति ? 
कांग्रेस के प्रवक्ता अजय माकन ने भाजपा नेता स्मृति ईरानी को मानव संसाधन मंत्रालय दिए जाने पर आपत्ति जताई और उनकी शिक्षा पर सवाल खड़े कर नए विवाद को जन्म दे दिया। इस पर भाजपा ने प्रधानमंत्री तक को संचालित करने वाली यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री के अध्यादेश को बकवास करार देने वाले राहुल गांधी की योग्यता और शिक्षा पूछी। इस पर कांग्रेस को बैकफुट पर जाना पड़ा और मामले को वही दबा दिया गया।
एक कलाकार में जो समाज के प्रति सम्वेंदनशीलता होती है वह आम जन से ज्यादा होती है। इसी कारण कलाकार बड़ी सहजता से अलग अलग तरह के किरदार निभा लेता है। जन आकर्षण का प्रतिनिधित्व कर रहे टीवी धारावाहिक क्योंकि सास भी कभी बहू थीं में तुलसी का किरदार निभाने वाली स्मृति ईरानी ने जनमानस के दिल में एक अच्छी बहू और सास की छवि बनाई। इसके बाद वह भाजपा में पिछले कई वर्षों से सक्रिय होकर संगठन के लिए कार्य रहीं हैं और भाजपा का एक सशक्त चेहरा बनकर उभरी हैं। नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार में उन्होंने ‘नमो टी‘ का सुझाव दिया, जो काफी सफल रहा। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है, वह संवदेनशील व सतर्क नेता हैं, जो समाज की नब्ज पकड़ने की कुव्वत रखती हैं।
सब जानते हैं कि राजनीति में संवाद का बहुत महत्व होता है। बड़े-बड़े नेता तक अपनी बात आम जनता को समझा नहीं पाते। जबकि स्मृति धाराप्रवाह हिंदी-अंग्रेजी बोलने में पारंगत हैं। जब-जब भाजपा को विषम दौर से गुजरना पड़ा, तब-तब उन्होंने भाजपा का पक्ष मजबूती के साथ रखा। दरअसल उनमें भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता बनने की योग्यता है।
क्या स्मृति ईरानी को मानव संसाधन मंत्रालय इसलिए नहीं मिलना चाहिए कि वह कम पढ़ी-लिखी हैं। कोई और मंत्रालय दिया होता तो क्या यह सवाल उठता ? क्या उड्ययन मंत्री बनने के लिए पाइलट होना जरूरी है। क्या रक्षा मंत्री बनने के लिए तोप चलानी आनी चाहिए ? और क्या एक डाॅक्टर ही स्वास्थ्य मंत्री बन सकता है ? अगर कोई परिवहन या रेल मंत्री बनाया गया है, तो क्या उसे बस और रेल चलाने की जानकारी होना जरूरी है। मानव संसाधन विकास मंत्री का काम शोध कराना या क्लास में पढ़ाना नहीं होता और न ही उनका स्कॉलर होना जरूरी है। ऐसे हर मामले को जांचने परखने वाले विशेषज्ञों और नौकरशाहों की लंबी फौज स्मृति ईरानी के अधीन मौजूद है। जिनकी सलाह पर वह अपने निर्णय ले सकती हैं। जरूरी यह होगा कि वे देश के शिक्षा संसाधनों में सर्वाधिक योग्य व्यक्तियों को बैठाएं। आप उन मानव संसाधन विकास मंत्रियों के विषय में क्या कहेंगे, जो अंगूठा छाप लोगों को कुलपति नियुक्त करते आए हैं ? देश में आज उच्च शिक्षा के संसाधनों में सुधार की इतनी जरूरत नहीं है, जितनी कि प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा पर ध्यान देने की है। जिसके लिए स्मृति ईरानी के पास पर्याप्त जमीनी अनुभव है।
एक बात और महत्वपूर्ण है कि हजारों वर्ष पूर्व चीन में पहले प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति उनकी शैक्षिक योग्यता या डिग्री के आधार पर नहीं होती थी। प्रत्याशी को अपने जीवन के अनुभव को एक कविता के माध्यम से लिखने को कहा जाता था और उसी काव्य के आधार पर उसकी नियुक्त होती थी। मतलब कि कलात्मक अभिव्यक्ति का धनी व्यक्ति समाज को समझने में देर नहीं लगाता, क्योंकि उसकी संवेदनशीलता बहुत गहरी होती है। इसलिए समाज के पिछड़े वर्गों की शिक्षा के सुधार के लिए स्मृति बहुत कुछ नया कर सकती हैं।
वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत जीवन पर निगाह डालें, तो उनके द्वारा किए गए संघर्ष का पता चलेगा कि शुरूआती दिनों में पांेछा-झाडू लगाकर व छोटे-छोटे काम करके एवं कष्टप्रद जीवन व्यतीत करके वे आज यहां तक पहुंची हैं। उन्होंने गरीबी को काफी करीब से देखा और भोगा है। इसलिए वे गरीबों का दर्द बखूबी समझ सकती हैं। कांग्रेस की परंपरागत सीट रही अमेठी से जब राहुल गांधी के खिलाफ स्मृति ईरानी को लड़ाया गया, तब भी वह पीछे नहीं हटीं और उन्होंने मात्र 25 दिन के अपने चुनाव प्रचार में राहुल गांधी के माथे पर बल डाल दिए। आलम यह हो गया कि पिछले 10 वर्षों से इकतरफा जीत दर्ज करने वाले राहुल गांधी को बूथ-दर-बूथ जाकर एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। जाहिर है स्मृति में राजनैतिक नेतृत्व की क्षमता है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रीय राजनीति के शिखर पर आते ही नरेंद्र मोदी ने पूरी दुनिया में अपनी धाक पैदा कर दी है। चुनाव के दौरान भी उनकी यही सूझबूझ काम आयी और एक इतिहास रच गया। नरेंद्र मोदी देश के अब तक सबसे सफल मुख्यमंत्री रहे हैं। कोई भी फैसला वह लेते हैं, उसमें कहीं न कहीं की सोच छिपी रहती है। उनके निर्णय पर इतनी जल्दी सवाल उठाना अब बेमानी होगी। उन्होंने अभी तक जो भी किया है, वह एक अनूठा प्रयोग रहा और सफल भी रहा। अपने शपथ समारोह तक को सार्क सम्मेलन में बदलकर मोदी ने यह बता दिया कि उनका हर कदम दूरदर्शी होता है। ऐसे में मोदी द्वारा स्मृति ईरानी को मानव संसाधन विकास मंत्रालय सौंपना हो सकता है, उनकी कोई दूर की सोच रही हो, बाकी समय बताएगा।