Monday, October 30, 2017

किसानों के साथ धोखाधड़ी


हमारे देश में अगर कोई सबसे अधिक मेहनत करता है, तो वो इस देश के किसान हैं, जो दिन-रात, जाड़ा, गर्मी और बरसात झेलकर फसल उगाते हैं और 125 करोड़ देशवासियों का पेट भरते हैं। लेकिन सबसे ज्यादा उपेक्षा भी उनकी ही होती है। चुनावों के माहौल में हर राजनैतिक दल किसानों के दुख-दर्द का रोना रोता है और ये जताने की कोशिश करता है कि मौजूदा सरकार के शासन में किसानों का बुरा हाल है और वो आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। जबकि हकीकत यह है कि वही राजनैतिक दल जब सत्ता में होते हैं, तो ऐसी नीतियां बनाते हैं, जिनसे किसान की तरक्की हो ही नहीं सकती। चाहे वह बिजली की आपूर्ति हो या सिंचाई के जल की, चाहे वह समर्थन मूल्य की बात हो या खाद के दाम की। हर नीति की नींव में एक बड़ा घोटाला छिपा होता है। जिसका खामियाजा, इस देश के करोड़ों किसानों को झेलना पड़ता है। जबकि इन नीतियों को बनाने वाले नेता और अफसर, मोटी चांदी काटते हैं।


दरअसल किसानों के प्रति उपेक्षा का ये भाव सत्ताधीशों का ही नहीं होता, हम सब शहरी लोग भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। अब मीडिया को ही ले लीजिए, अखबार हो या टी.वी., कुल खबरों की कितनी फीसदी खबर, किसानों की जिंदगी पर केंद्रित होती हैं? सारी खबरें औद्योगिक जगत, बहुर्राष्ट्रीय कंपनियां, सिनेमा या खेल पर केंद्रित होती है। किसानों पर खबर नहीं होती, किसान खुद खबर बनते हैं, जब वे भूख से तड़प कर मरते हैं या कर्ज में डूबकर आत्महत्या करते है।


ये कैसा समाजवाद है? कहने को श्रीमती गांधी ने भारतीय संविधान में संशोधन करके समाजवाद शब्द को घुसवाया। पर क्या यूपीए सरकार की नीतियां ऐसी थीं कि किसानों की दिन-दूगनी और रात-चैगुनी तरक्की होती? अगर ऐसी हुआ होता, तो किसानों की हालत इतनी खराब कैसे हो गयी कि वे आत्महत्या करने पर मजबूर हो गये? ये रातों-रात तो हुआ नहीं, बल्कि वर्षों की गलत नीतियों का परिणाम है। हमारी सरकारों ने किसानों को आत्मनिर्भर बनाने की बजाए, याचक बना दिया। ताकि वो हमेशा सत्ताधीशों के सामने हाथ जोड़े खड़ा रहे। छोटे-छोटे कर्जों में डूबा किसान तो अपनी इज्जत बचाने के लिए आत्महत्या करता आ रहा है, पर क्या किसी उद्योगपति ने बैंकों का कर्जा न लौटाने पर आत्महत्या की? लाखों-करोडों का कर्जा उद्योग जगत पर है। पर उन्हें आत्महत्या करने की जरूरत नहीं पड़ती। क्योंकि वे मंहगे वकील खड़े करके, बैंकों को मुकदमों में उलझा देते हैं। जिसमें दशकों का समय यूं ही निकल जाता है।


प्रधानमंत्री मोदी पर आरोप लग रहा है कि उनकी परोक्ष मदद के कारण अंबानी और अडानी की प्रगति दिन-दूनी और रात-चैगुनी हो रही है। पर क्या ये बात किसी से छिपी है कि पूर्ववर्ती सरकारों के कार्यकाल में भी अंबानी समूह की बेइंतहां वृद्धि हुई? सारा औद्योगिक जगत ये तमाशा देखता रहा कि कैसे सरकार से निकटता का लाभ लेकर, धीरूभाई अंबानी ने ये विशाल साम्राज्य खड़ा कर लिया था।  इसमें नया क्या है?


मैं पूंजीवाद के खिलाफ नहीं हूं। मैं मानता हूं कि व्यक्तिगत पुरूषार्थ के बिना, आर्थिक प्रगति नहीं होती। सरकारों की सहायता पर पलने वाला समाज कभी आत्मविश्वास से नहीं भर सकता। वह हमेशा परजीवि बना रहेगा। साम्यवादी देश इसका स्पष्ट उदाहरण है। जबकि पूंजीपति बुद्धि लगाता है, मेहनत करता है, खतरे मोल लेता है और दिन-रात जुटता है, तब जाकर उसका औद्योगिक साम्राज्य खड़ा होता है। इसलिए पूंजीपतियों की प्रगति का विरोध नहीं है। विरोध है, उनके द्वारा गलत तरीके अपनाकर धन कमाना और टैक्स की चोरी करना। इससे समाज का अहित होता है। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ऐसी व्यवस्था लाना चाह रहे हैं, जिससे टैक्स की चोरी भी न हो और लोग अपना आर्थिक विकास भी कर सकें। इस तरह सरकार के पास, सामाजिक कार्यों के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध हो जायेंगे।

 
हर परिवर्तन कुछ आशंका लिए होता है। ढर्रे पर चलने वाले लोग, हर बदलाव का विरोध करते हैं। परंतु बदलाव अगर उनकी भलाई के लिए हो, तो क्रमशः उसे स्वीकार कर लेते हैं। आज देश के समझदार लोगों को किसानों और देश की आर्थिक स्थिति पर मंथन करना चाहिए और ये तय करना चाहिए कि भारत का आर्थिक विकास किस माडल पर होगा? क्या देश का केवल औद्योगिकरण होगा या किसानों मजदूरों के आर्थिक उत्थान को साथ लेकर चलते हुए औद्योगिक विकास होगा? क्योंकि समाज के बहुसंख्यक लोगों को अभावों में रखकर मुट्ठीभर लोग वैभव पर एकाधिकार नहीं कर सकते। उन्हें गांधी जी के ‘ट्रस्टीशिप’ वाले सिद्धांत को मानना होगा। जिसका मूल है कि धन इसलिए कमाना है कि हम समाज का भला कर सकें। ऐसी सोच विकसित होगी, तो किसान भी खुश होगा और शेष समाज भी।



भारत के आर्थिक विकास के माडल पर बहुत कुछ सोचा-लिखा जा चुका है। उसी पर अगर एकबार फिर मंथन कर लिया जाए, तो तस्वीर साफ हो जायेगी। जरूरत है कि हम विकास के पश्चिमी माडल से हटकर देशी माडल को विकसित करें, जिसमें सबका साथ हो-सबका विकास हो।

Monday, October 23, 2017

अयोध्या में दीपावली: प्रतीकों का भी महत्व होता है

उ.प्र. के मुख्यमंत्री  आदित्यनाथ योगी ने इस बार अयोध्या में भव्य दीपावली का आयोजन किया। पुष्पक विमान के प्रतीक रूप हैलीकाप्टर से, जब भगवान श्रीराम,सीता व लक्षमण जी सरयू के घाट पर उतरे तो, पूरा अयोध्या उल्लासमय हो गया। लाखों दीपों से सरयू के घाट को सजाया गया। हजारों वर्ष बाद अयोध्यावासियों को वही अनुभूति हुई जो त्रेता युग में हुई होगी। इसके साथ ही अयोध्या के सौंदर्यीकरण के लिए योगी जी ने अनेक घोषणाऐं की।

भाजपा के राजनैतिक आलोचक कहते हैं कि जब से भाजपा सरकार आई है, तब से प्रधानमंत्री मोदी और उनके मुख्यमंत्री हिंदू धर्म को अनावश्यक रूप से महत्व देकर, अपना वोट बैंक पक्का कर रहे हैं। हो सकता है कि उनकी इस बात में तथ्य हो। पर प्रश्न उठता है कि क्या इस तरह के भव्य आयोजन पूर्व सरकारें नहीं करती थीं? राजीव गांधी के समय में कई देशों में जाकर भारत के जो उत्सव किये गये, जिसमें करोड़ों रूपया खर्च किया गया, उनका उद्देश्य था भारतीय संस्कृति से विश्व का परिचय कराना, उसमें कुछ गलत नहीं था।

जो लोग योगी जी की निंदा कर रहे हैं क्या उन्होंने पिछले 70 वर्षों में इस बात की निंदा की कि हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकारों में रमजान के महीने में रोज क्यों प्रधानमंत्री, राज्यपाल व मुख्यमंत्रियों के यहां इफ्तार दावत होती थी ? उनका जवाब होगा कि शासक को समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करना होता है। तो फिर नवरात्रि पर व्रत के भोज क्यों नहीं अयोजित किये गए ?

पिछले लगभग 1500 वर्ष का इतिहास है कि  हिंदू धर्म के जो प्रतीक थे उनका या तो उपहास किया गया या उन्हें दबाया गया या उनको सह लिया गया। पर प्रोत्साहित नहीं किया गया। कारण स्पष्ट है कि अगर शासक विधर्मी या नास्तिक  होंगे तो उन्हें हिंदू धर्म व संस्कृति में, उसकी आस्थाओं में और  पर्वों में क्यों रूचि होगी ? अब जब पहली बार ऐसी स्थिति बनी है कि केंद्र में पूर्णं बहुमत से और अनेक राज्यों में हिंदू मानसिकता की सरकार हैं, तो अगर हर्षोंल्लास से हिंदू पर्व मनाए जा रहे है, तो इसमें किसी को क्यों तकलीफ होनी चाहिए ?

जिस समय इलाहाबाद उच्च न्यायालय का अयोध्या पर निर्णय आ रहा था, तो एक टीवी चैनल पर लाइव चर्चा पर मैं भी बैठा हुआ टिप्पणी कर रहा था। उसके तुरंत बाद मैं सीधा अडवाणी जी के घर गया, तभी वहां वैंकेया नायडू, नजमा हैप्दुल्लाह, राजनाथ सिंह व अरूण जेटली भी आ गए। वहां चर्चा चली कि अब राम जन्मभूमि को लेकर आगे क्या किया जाए। सबके अलग-अलग विचार थे। चूंकि ये भाजपा  का राजनैतिक मामला था, इसलिए मैं कुछ देर ही बैठा और उन सबके साथ जलपान कर वहां से निकल लिया। लेकिन एक बात मैंने जरूर उन सबके सामने रखी और वो ये कि पिछले 20 वर्षों से या यूं कहिए जब से राम जन्मभूमि आंदोलन चला में अटल जी, आडवाणी जी और मुरली मनोहर जोशी जी से लगातार कहता रहता था कि मंदिर जब बनेगा बन जायेगा, तब तक अयोध्या का तो कायाकल्प कर लिया जाय। अगर ऐसा किया गया होता तो आज टीवी चैनलों पर अयोध्या की दुर्दशा दिखाकर भाजपा का उपहास नहीं हो रहा होता। जो उस दिन टीवी चैनलों पर जम कर किया गया।

उल्लेखनीय है कि अपनी कालचक्र विडियो पत्रिका में 1990 में राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के कारसेवकों पर हुई बर्बर हिंसा पर मैने बहुत हृदयविदारक प्रभावशाली टीवी रिर्पोट तैयार की थी। उस वक्त देश में कोई प्राइवेट टीवी चैनल नहीं थे, तो अपने किस्म की ये अकेली रिर्पोट दी जिसे भाजपा ने पूरे देश मे खूब दिखाया। तभी से मैं अयोध्या में सरयू के घाटों, वहां के कुंडों- सरोवरों, जीर्ण-शीर्ण पड़े भवनो पर काम किया जाना चाहिए ऐसा भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से लगातार कहता रहा। विनम्रता से कहना चाहूंगा कि बिना सरकारी पैसे के, पिछले 15 वर्षों में जिस निष्ठा से हमारी ब्रज फाउंडेशन ने ब्रज का अध्ययन करने में, ब्रज के सम्पूर्ण विकास का माडल तैयार करने में और भगवान कृष्ण की दर्जनों लीलास्थलीओ का कलात्मक जीर्णोद्धार करने में जो निपुणता हासिल की है, उसकी आज सर्वत्र प्रशंसा हो रही है। जहां चाह, वहां राह। फिर अयोध्या ही क्यों, काशी हो, जगन्नाथपुरी हो या भारत का कोई भी अन्य तीर्थ स्थल हो, सबका कायाकल्प हो सकता है। बशर्ते हमारे अनुभवों का लाभ लिया जाय और करोड़ो रूपये की मोटी फीस ऐंठने वाले हाई-फाई प्रोफेशनल्स से बचा जाय। जिनके ब्रज में कई घोटाले हम पहले ही उजागर कर चुके हैं।

ऐसा नहीं हैं कि पिछली सरकारें चाहें वह कांग्रेस की हों या समाजवादी या बसपा की हों या किसी अन्य दल की हों, उन्होंने प्रतीको का सहारा लेकर विभिन्न धर्मों को संतुष्ठ करने का प्रयास नहीं किया, जरूर किया। सोमनाथ, तिरूपति बालाजी और वैष्णो देवी का विकास कांग्रेस के शासनकाल में हुआ और बहुत अच्छा हुआ। ऐसे दूसरे बहुत से कार्य अन्य दलों द्वारा भी हुए, जिनको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन जिस भक्ति भावना से या जिस ऐलानियत से यह कार्य किये जाने चाहिए थे, वे नहीं हुए।आज जब इस हो रहा है, तो उसकी निंदा न करें, उनका आंनंद ले, उनका रस लें। हाँ अगर इनसे पर्यावरण का या समाज का कोई अहित हो रहा हो तो उस पर टिप्पणी करने में कोई संकोच न किया जाय। मैं समझता हूं कि योगी जी ने अयोध्या में जो कुछ भी किया, उससे पूरे विश्व में हिंदू समाज को बहुत सुखद अनुभूति हुई है। जिसके लिए वे और उनकी सरकार बधाई के पात्र हैं।

Monday, October 16, 2017

दीपावली कैसे मनाऐं?


आतिशबाजी’ सनातन धर्म के शब्दकोश में कोई शब्द नहीं है। यह पश्चिम ऐशिया से आयातित है, क्योंकि गोला-बारूद भी भारत में वहीं से ‘मध्ययुग’ में आया था। इसलिए दीपावली पर राजधानी दिल्ली में पटाखों को प्रतिबंधित करके, सर्वोच्च न्यायालय ने उचित निर्णंय लिया। हम सभी जानते हैं कि पर्यावरण, स्वास्थ, सुरक्षा व सामाजिक कारणों से पटाखे हमारी जिंदगी में ज़हर घोलते हैं। इनका निर्माण व प्रयोग सदा के लिए बंद होना चाहिए। यह बात पिछले 30 वर्षों से बार-बार उठती रही है।



हमारी सांस्कृतिक परंपरा में हर उत्सव व त्यौहार, आनंद और पर्यावरण की शुद्धि करने वाला होता है। दीपावली पर तेल या घी के दीपक जलाना, यज्ञ करके उसमें आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियां डालकर वातावरण को शुद्ध करना, द्वार पर आम के पत्तों के तोरण बांधना, केले के स्तंभ लगाना, रंगोली बनाना, घर पर शुद्ध पकवान बनाना, मिल बैठकर मंगल गीत गाना, धर्म चर्चा करना, बालकों द्वारा भगवान की लीलाओं का मंचन करना, घर के बहीखातों में परिवार के सभी सदस्यों के हस्ताक्षर लेकर, समसामयिक अर्थव्यवस्था का रिकार्ड दर्ज करना जैसी गतिविधियों में दशहरा-दीपावली के उत्सव आनंद से संपन्न होते थे। जिससे समाज में नई ऊर्जा का संचार होता है।



बाज़ार के प्रभाव में आज हमने अपने सभी पर्वों को विद्रूप और आक्रामक बना दिया है। अब उनको मनाना, अपनी आर्थिक सत्ता का प्रदर्शन करना और आसपास के वातावरण में हलचल पैदा करने जैसा होता है। इसमें से सामूहिकता, प्रेम-सौहार्द और उत्सव के उत्साह जैसी भावना का लोप हो गया है। रही सही कसर चीनी सामान ने पूरी कर दी। त्यौहार कोई भी हो, उसमें खपने वाली सामग्री साम्यवादी चीन से बनकर आ रही है। उससे हमारे देश के रोजगार पर भारी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। इस वर्ष चीन की सीमा पर दबाव बनाने के विरोध में सोशल मीडिया पर चीनी माल के बहिष्कार का खूब प्रचार हुआ है। देखना होगा कि हमारे उपभोक्ताओ पर उसका कितना असर पड़ रहा है? क्या हम वास्तव में खरीददारी करते समय, चीनी माल का बहिष्कार करने को तैयार है?



गनीमत है कि भारत के ग्रामों में अभी बाजारू संस्कृति का वैसा व्यापक दुष्प्रभाव नहीं पड़ा, जैसा शहरों पर पड़ा है। अन्यथा सब चैपट हो जाता। ग्रामीण अंचलों में आज भी त्यौहारों को मनाने में भारत की माटी का सोंधापन दीखता है। यह स्थिति बदल रही है। जिसे ग्रामीण युवाओं को रोकना है।



आज भारतीय जनमानस कई तरह की मानसिक उथल-पुथल से गुजर रहा है। कुछ तो मोदी जी की नई आर्थिक नीतियों के कारण ऐसा हो रहा है और कुछ सदियों बाद हिंदू मानसिकता को मिली राजनैतिक सत्ता के कारण है। एक तरफ बहुसंख्यक समाज अपनी दबी भावनाओं की खुली अभिव्यक्ति के लिए बैचेन है, तो दूसरी तरफ इससे कुछ लोगों की तीखी प्रतिक्रियाऐं भी है। पर इतना जरूर है कि यह समय आत्मविश्लेषण और अपनी जीवन शैली पर पुनः विचार करने का है।



हम अपने बच्चों का ‘हैपी बर्थ डे’ केक काटकर मनाए, जिसका हमारी मान्यताओं और संस्कृति से कोई नाता नहीं है या उनका तिलक कर, आरती उतार कर या आर्शीवाद या मंगलाचरण करके करें, यह हमें सोचना होगा। अगर हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियां अपनी भारतीय संस्कृति पर गर्व करे, परिवार में प्रेम को बढ़ाने वाली गतिविधियां हों, बच्चे बड़ों का सम्मान करें, तो हमें अपने समाज में पुनः पारंपरिक मूल्यों की स्थापना करनी होगी। वो जीवन मूल्य, जिन्होंने हमारी संस्कृति को हजारों साल तक बचाकर रखा, चाहे कितने ही तूफान आये। पश्चिमी देशों में जाकर बस गए, भारतीय परिवारों से पूछिऐ-जिन्होंने वहां की संस्कृति को अपनाया, उनके परिवारों का क्या हाल है और जिन्होंने वहां रहकर भी भारतीय सामाजिक मूल्यों को अपने परिवार और बच्चों पर लागू किया। वे कितने सधे हुए, सुखी और संगठित है। तनाव, बिखराव तलाक, टूटन ये आधुनिक जीवन पद्धति के ‘प्रसाद’ है। इनसे बचना और अपनी जड़ों से जुड़ना, यह भारत के सनातनधर्मियों का मूलमंत्र होना चाहिए।



पिछले कुछ वर्षों से टेलीविजन चैनलों पर साम्प्रदायिक मुद्दों को लेकर आऐ दिन तीखी झरपें होती रहती है। जिनका कोई अर्थ नहीं होता। उनसे किसी भी सम्प्रदाय को कोई भी लाभ नहीं मिलता, केवल उत्तेजना बढ़ती है। जबकि हर धर्म और संस्कृति में कुछ ऐसे जीवन मूल्य होते हैं, जिनका यदि अनुपालन किया जाए, तो समाज में सुख, शांति और समरसता का विस्तार होगा। अगर हमारे टीवी एंकर और उनकी शोध टीम ऐसे मुद्दों को चुनकर उन पर गंभीर और सार्थक बहस करवाऐं, तो समाज को दिशा मिलेगी। हर धर्म के मानने वालों को यह स्वीकारना होगा कि दूसरों के धर्म में सब कुछ बुरा नहीं है और उनके धर्म में सब कुछ श्रेष्ठ नहीं है। चूंकि हम हिंदू बहुसंख्यक हैं और सदियों से इस बात से पीड़ित रहे हैं कि सत्ताओं ने कभी हमारे बुनियादी सिद्धांतों को समझने की कोशिश नहीं की। या तो उन्हें दबाया गया या उनका उपहास किया गया या उन्हें अनिच्छा से सह लिया गया। नये माहौल में इन सवालों पर खुलकर बहस होनी चाहिए थी। जो नहीं हो रही। निरर्थक विषयों को उठाकर समाज में विष घोला जा रहा है। इस बार दीपावली पर 5 दिन का अवकाश है। इसलिए सब मिल बैठकर सोचें, कौन थे हम, क्या हो गये और होंगे क्या अभी।

Monday, October 2, 2017

हिंदू राष्ट्र का सपना क्या अधूरा रहेगा?


2014 में जब नरेन्द्र मोदी पूर्णं बहुमत लेकर सत्ता में आऐ, तो सारी दुनिया के हिंदुओं ने खुशी मनाई कि लगभग 1000 साल बाद भारत में हिंदू राज की स्थापना हुई है। नरेन्द्र भाई का व्यक्तिगत जीवन आस्थावान रहा है। हिमालय में तप करने से लेकर भारत की सनातन परंपराओं के प्रति उनकी आस्था ने भारत को हिंदू राष्ट्र बनने की संभावनाओं को बढ़ा दिया। पर आज हिंदू राष्ट्र का सपना संजोने वाले बहुत से गंभीर वृत्ति के लोग भारत के विकास की दशा और दिशा को देखकर चिंतित हैं। इनमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा से सहानुभूति रखने वालों से लेकर, संघ से अलग रहने वाले हिंदूवादी तक शामिल हैं। उन्हें लगता है कि जिस दिशा में मोदी जी बढ़ रहे हैं, ये वो दिशा नहीं, जिसका सपना उन्होंने देखा था। इन लोगों की मजबूरी ये है कि ये स्वयं राजनैतिक सत्ता हासिल करने में न तो सक्षम है और न ही उनकी महत्वाकांक्षा है।  ये तो वो लोग हैं, जो इस बात की प्रतीक्षा करते हैं, कि कोई सत्ताधीश इनकी पीडा को समझकर, अपने बलबूते पर, इनके विचारों को नीतिओं में लागू करें। ऐसी परिस्थितियां प्रायः नहीं बना करतीं, अब बनी हैं, तो समय निकला जा रहा है और कोई दूरगामी ठोस परिणाम आ नहीं रहे। इसलिए इनकी चिंता स्वभाविक है।

दूसरी तरफ प्रधानमंत्री के पद की भी कुछ सीमाऐं होती हैं। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दबाव, सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक परिस्थितियां चाहकर भी प्रधानमंत्री को बहुत से कदम नहीं उठाने देतीं। समस्या तब खड़ी होती है, जब जो संभव है, वो भी नहीं होता और जो कुछ हो रहा होता है, वह अपेक्षाओं के विपरीत होता है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली की एक जानीमानी महिला बुद्धिजीवी जो अंगे्रजी में अपने लेख और शोधपत्रों के माध्यम से गत 35 वर्षों से हिंदू विचारधारा की प्रबल प्रवक्ता रही हैं, उनके स्वनामधन्य पिता देश के सबसे प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक के वर्षों संपादक रहे और वे भी जीवन के अंतिम दशक में कट्टर हिंदूवादी हो गये थे, आज ये महिला मौजूदा सरकार से खिन्न है।

इनकी शिकायत है कि हिंदूत्व के नाम पर मोदी सरकार में ऐसे लोगों को महत्वपूर्णं पदों पर बिठाया जा रहा है, जिनकी योग्यता सामान्य से भी निचले स्तर की है। ऐसे अयोग्य लोग उन संस्थाओं का तो भट्टा बैठा ही रहे हैं, हिंदू हित का भी भारी अहित कर रहे हैं। इन विदुषी महिला का आरोप है कि कई मंत्रालयों ने उनसे ऐसे पदों पर चयन करने के पूर्व कुछ नाम सुझाने को कहा। इन्होंने अपनी ओर से देखे परखे, ऐसे लोगों के नाम सुझाये, जिनकी योग्यता और हिंदू संस्कृति के प्रति आस्था उच्चकोटि है।  पर उन्हें हर बार निराशा हुई, क्योंकि जिन्हें चुना गया, वे इनके सामने खड़े होने के भी लायक नहीं थे। उनका कहना था कि ऐसा नहीं है कि जो नाम उन्होंने सुझाये, वे उनके परिचितों या मित्रों के थे। उनमें से कई लोगों को तो वे व्यक्तिगत रूप से कभी मिली भी नहीं थीं। केवल उनकी योग्यता ने उन्हें प्रभावित किया। कम्युनिस्टों की घोर विरोधी रही, ये विदुषी महिला कहतीं हैं कि हमसे गलती हुई, जो हम सारी जिंदगी कम्युनिस्टों को कोसते रहे। भाजपा से तो कम्युनिस्ट कहीं बेहतर थे, कि उन्होंने ऐसे चयन में योग्यता की उपेक्षा प्रायः नहीं की। यही कारण है कि भारत की राजनीति में वे अल्पसंख्यक होते हुए भी आज तक इतने प्रभावशाली रहे हैं कि उन्होंने भारत के मीडिया व अकादमिक क्षेत्र को प्रभावित किया। जबकि मौजूदा सरकार द्वारा नियुक्त हिंदूवादी व्यक्ति, जिस संस्था में भी जा रहे हैं, अपने अधकचरे ज्ञान और अपरिपक्व स्वभाव के कारण संस्थाओं को बिगाड़ रहे हैं और अपना मखौल उड़वा रहे हैं।

हिंदू संस्कृति के क्षेत्रों को विकास के मामले में, मेरा भी अनुभव ऐसा ही रहा है। कई बार मैंने इस सवाल को, इस कॉलम  माध्यम से उठाया है। मोदी जी ने अच्छी भावना से अनेक योजनाओं की घोषणा की, पर उनकी नीतियां बनाने और क्रियान्वयन करने का काम उसी नौकरशाही पर छोड़ दिया, जो आज तक औपनिवेशिक मानसिकता के बाहर नहीं निकल पाई है। नतीजतन हिंदू संस्कृति से जुड़े मुद्दों पर जो भी योजनाऐं बन रही हैं, उनसे न तो व्यापक समाज का भला हो रहा है और न ही हिंदू संस्कृति का। पता नहीं क्यों हम जैसे राष्ट्रप्रेमी और सनातन धर्मप्रेमियों के अच्छे सुझाव भी प्रधानमंत्री के कानों तक नहीं पहुंचते। हमारी समस्या यह है कि पिछली सरकारों से हम हिंदू संस्कृति के लिए इसलिए बहुत कुछ ठोस नहीं करवा पाए, क्योंकि वे धर्मनिरपेक्षता की चश्मे के बाहर देखने को तैयार नहीं थीं। जबकि भाजपा की मौजूदा सरकारें अपनी लक्ष्मण रेखा के बाहर नहीं देखना चाहतीं। लक्ष्मण रेखा के भीतर माने भाजपा व संघ परिवार के बाहर उन्हें न तो कोई हिंदूवादी दिखता है और न ही कोई योग्य। सत्ता और पद के लिए हम, न तो पहले झुके और न आगे झुकने की इच्छा है। झुके होते तो कब के सत्ता पर काबिज हो गये होते। क्योंकि सत्ता ने कई बार हमारा दरवाजा खटखटाया, पर हमने उसे घर में घुसने नहीं दिया। हमारे जैसे लोग देश में लाखों की संख्या में हैं, जो किसी की राजनीति का मोहरा बनने को तैयार नहीं है। पर देश व सनातन धर्म के लिए अपना जीवन खपाते आऐ हैं और अगर मोदी सरकार, हमारे सुझावों को गंभीरता से ले तो  हिंदू संस्कृति के हित में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। क्योंकि इन सब लोगों के पास अनुभव का लंबा खजाना है, विचारों की स्पष्टता है और लक्ष्य हासिल करने का जुनून भी।

Monday, September 25, 2017

देश में क्यों बढ़ रही है हताशा?

मोदी सरकार के तीन साल पूरे हो गये। सरकारी स्तर पर अनेक क्रन्तिकारी निर्णय लिये गये। देश को बताया गया कि उनके दूरगामी अच्छे परिणाम आयेंगे। सरकार के इस दावे पर शक करने की कोई वजह नहीं है। कारण स्पष्ट है कि मोदी दिल से चाहते हैं कि भारत एक मजबूत राष्ट्र बने। राष्ट्र मजबूत तब बनता है, जब उसके नागरिक स्वस्थ हों, सुसंस्कारित हों, अपने भौतिक जीवन में सुखी हों और उनमें आत्मविश्वास और देश के प्रति प्रेम हो। इस चौथे बिंदु पर मोदी जी ने अच्छा काम किया है। जिस तरह उनका सम्मान हर धर्म के हर देश में हुआ है। उससे आज हर भारतीय गर्व महसूस करता है। इसमें बहुत अहम भूमिका प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार श्री अजीत दोभाल की रही है। जिन्होंने रात-दिन कड़ी मेहनत करके प्रधानमंत्री की अंतर्राष्ट्रीय पकड़ मजबूत बनाने का काम किया है। श्री दोभाल का देश प्रेम किसी से छुपा नहीं है। उन्होंने देश के हित में कई बार जान को जोखिम में डाली है। इसलिए वे जो भी कहते हैं, प्रधानमंत्री उसे गंभीरता से लेते हैं।

फिर क्यों देश में हताशा है? कारण स्पष्ट है कि अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे तमाम लोग हैं, जिन्होंने समाज की अच्छाई के लिए गरीबों के कल्याण और धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए जीवन समर्पित कर दिया। ऐसे लोगों को अभी तक प्रधानमंत्री ने अपने साथ नहीं जोड़ा है। जबकि केंद्र की सत्ता में आने से पहले गुजरात में उनकी छवि थी कि वे हर नये विचार और उसके लिए समर्पित व्यक्तियों को सम्मान देकर जमीनी काम करने का मौका देते थे। पर जब से वह दिल्ली आये हैं, तब से उन्होंने दोभाल साहब जैसे अन्य क्षेत्रों के सक्षम और राष्ट्रभक्त लोगों को अपने सलाहकार मंडल में स्थान नहीं दिया। जबकि उन्हें अकबर के नौरत्नों की तरह अन्य क्षेत्रों के विशेषज्ञों को भी अपने टीम में शामिल कर लेना चाहिए।

मोदीजी की सारी निर्भरता अफसरों के ऊपर है, जो ठीक नहीं है। क्योंकि अफसर बंद कमरे में सोचने के आदी हो चुके हैं। इसलिए उनका जमीन से जुड़ाव नहीं होता। यही कारण है कि नीतियां तो बहुत बनती, पर उनका क्रियान्वन होता दिखाई नहीं देता। इसी से जनता में हताशा फैलती है।

इस मामले में नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत को पहल करनी चाहिए । वे ऐसा मॉडल विकसित करें, जिससे केंद्र सरकार के अनुदान फर्जी कन्सल्टेंट्स और भ्रष्ट्र नौकरशाही के जाल में उलझने से बच जायें। पर पता नहीं क्यों वे भी अभी तक ऐसा नहीं कर पाए हैं।

देश के युवाओं में बेरोजगारी के कारण भारी हताशा है। ऐसा नहीं है कि बेराजगारी मोदी सरकार की देन है। चूंकि मोदी जी ने अपने चुनावी अभियान में युवाओं को रोजगार देने का आश्वासन दिया था। इसलिए उनकी अपेक्षाऐं पूरी नहीं हुई। माना कि हम आधुनिक विकास मॉडल के चलते युवाओं को नौकरी नहीं दे सकते  पर उनकी ऊर्जा को अच्छे कामों में लगाकर उन्हें भटकने से तो रोक सकते हैं। इस दिशा में भी आज तक कोई ठोस काम नहीं हुआ।

यही  हाल देश के उद्योगपतियों और व्यापारियों का भी है, जो आज तक भाजपा के कट्टर समर्थक रहे हैं, वे भी अब मोदी सरकार की आर्थिक नीतिओं के चलते बहुत नाराज है और अपनी आमदनी व कारोबार के तेजी से घट जाने से चिंतित है। उन्हें लगता है कि ये सरकार तो उनकी सरकार थी, फिर उनके साथ ये अन्याय क्यों किया गया? उधर भाजपा के नेतृत्व की शायद सोच ये है कि व्यापारी उद्योगपति तो 3 प्रतिशत भी नहीं है। इसलिए उनके वोटों की दल को चिंता नहीं है। सारा ध्यान और ऊर्जा आर्थिक रूप से निचली पायदानों पर खड़े लोगों की तरफ दिया जा रहा है। जिससे उनके वोटों से फिर सरकार में आया जा सके।

जब्कि व्यापारी और उद्योगपति वर्ग कहना ये है कि वे न केवल उत्पादन करते हैं, बल्कि सैकड़ों परिवारों का भी भरन पोषण करते हैं और उन्हें रोजगार देते हैं। मौजूदा आर्थिक नीतियों ने उनकी हालत इतनी पतली कर दी है कि वे अब अपने कर्मचरियों की छटनी कर रहे हैं। इससे गांवों में और बेरोजगारी और युवाओं हताशा फैल रही है। पता नहीं क्यों देश में जहां भी जाओ वहां केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर बहुत हताशा व्यक्त की जा रही है। लोग नहीं सोच पा रहे हैं कि अब उनका भविष्य कैसा होगा?

मीडिया के दायरों में अक्सर ये बात चल रही है कि मोदी सरकार के खिलाफ लिखने या बोलने से देशद्रोही होने का ठप्पा लग जाता है। हमने इस कॉलम में पहले भी संकेत किया था कि आज से 2500 वर्ष पहले मगध सम्राट अशोक भेष बदल-बदलकर जनता से अपने बारे में राय जानने का प्रयास करते थे। जिस इलाके में विरोध के स्वर प्रबल होते थे, वहीं राहत पहुंचाने की कोशिश करते थे। मैं समझता हूं कि मोदी जी को मीडिया को यह साफ संदेश देना चाहिए कि अगर वे निष्पक्ष और संतुलित होकर रिर्पोटिंग करते हैं, तो वे खिलाफ दिप्पणियों का भी स्वागत करेंगे। इससे लोगों का गुबार बाहर निकलेगा। देश में बहुत सारे योग्य व्यक्ति चुपचाप अपने काम में जुटे हैं। उन्हें ढू़ढ़कर बाहर निकालने की जरूरत है और उन्हें विकास के कार्यों की प्रक्रिया से जोड़ने की जरूरत है। तब कुछ रास्ता निकलेगा। केवल नौकरशाही पर निर्भर रहने से नहीं।

Monday, September 4, 2017

युवा पाईलटों के साथ ये बेइंसाफी क्यों?

नागरिक उड्डयन मंत्रालय और निजी एयरलाइन्स की मिली भगत के कई घोटाले हम पहले उजागर कर चुके हैं। हमारी ही खोज के बाद जैट ऐयरवेज को सवा सौ से ज्यादा अकुशल पाइॅलटों को घर बैठाना पड़ा था। ये पाइलेट बिना कुशलता की परीक्षा पास किये, डीजीसीए में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण यात्रियों की जिंदगी के खिलवाड़ कर रहे थे। हवाई जहाज का पाइॅलट बनना एक मंहगा सौदा है। इसके प्रशिक्षण में ही 50 लाख रूपये खर्च हो जाते हैं। एक मध्यम वर्गीय परिवार पेट काटकर अपने बच्चे को पाइॅलेट बनाता है। इस उम्मीद में कि उसे जब अच्छा वेतन मिलेगा, तो वह पढ़ाई का खर्चा पाट लेगा। पाइॅलेटों की भर्ती में लगातार धांधली चल रही है। योग्यता और वरीयता को कोई महत्व नहीं दिया जाता। पिछले दरवाजे से अयोग्य पाइलटों की भर्ती होना आम बात है। पाइॅलटों की नौकरी से पहले ली जाने वाली परीक्षा मे भी खूब रिश्वत चलती है?


ताजा मामला एयर इंडिया का है। 21 अगस्त को एयर इंडिया में पाइॅलट की नौकरी के लिए आवेदन करने का विज्ञापन आया। जिसमें रैटेड और सीपीएल पाइॅलटों के लिए आवेदन मांगे गये हैं, लेकिन केवल रिर्जव कोटा के आवेदनकर्ताओं से ही। देखने से यह प्रतीत होता है कि ये विज्ञापन बहुत जल्दी में निकाला गया है। क्योंकि 31 अगस्त के लखनऊ के एक समाचार पत्र में सरकार का एक वकतव्य आया था कि रिजर्वेशन पाने के लिए परिवार की सालाना आय 8 लाख से कम होनी चाहिए। ये बात समझ के बाहर है कि कोई भी परिवार जिसकी सालाना आय 8 रूपये से लाख से कम होगी वह अपने बच्चे को पाइॅलट बनाने के लिए 35 से 55 लाख रूपये की राशि कैसे खर्च कर सकता है, वह भी एक से दो साल के अंदर?


इस विज्ञापन में पहले की बहुत सी निर्धारित योग्यताओं को ताक पर रखा गया है। आज तक शायद  ही कभी एयर इंडिया का ऐसा कोई विज्ञापन आया हो, जिसमें सीपीएल और हर तरह के रेटेड पाइॅलटों से एक साथ आवेदन मांगे गये हों।
कई सालों से किसी भी वकेंसी में आवेदन के लिए साईकोमैट्रिक पहला चरण हुआ करता था।  पिछले कुछ सालों में रिर्जव कैटेगरी के बहुत से प्रत्याशी इसे सफलतापूर्वक पास नहीं कर पाये। इस बार के विज्ञापन में उसको भी हटा दिया गया है। अब तो और भी नाकारा पाइॅलटो की भर्ती होगी।


अभी तक सरकारी नौकरियों में रिर्जव केटेगरी के लिए 60 प्रतिशत का रिजर्वेंशन आता था। इस वेंकेसी में टोटल सीट ही रिर्जव कैटेगरी के लिए हैं, जनरल कोटे वालों का कहीं कोई जिक्र नहीं है। पिछले साल एयर इंडिया अपनी वेंकेसी में रिजर्व कैटेगरी की सीट उपयुक्त प्रत्याशी के अभाव में नहीं भर पाई थी। उस संदर्भ में ये विज्ञापन अपने आप में ही एक मजाक प्रतीत होता है।

एयर इंडिया के हक में और प्रत्याशियों के भविष्य को देखते हुए, क्या यह उचित नहीं होगा कि रिर्जव कैटेगरी के योग्य आवेदनकर्ताओं के अभाव में रिर्जव कैटेगरी की सीटों को जनरल कैटेगरी से भर लिया जाये।

महत्वपूर्ण बात यह है कि सीपीएल का लाईसेंस लेने के लिए व्यक्ति को 30 से 35 लाख रूपये खर्च करने पड़ते है। किसी भी विशिष्टि विमान की रेटिंग के लिए उपर से 20 से 25 लाख रूपये और खर्च होते हैं। जब सारी योग्यताऐं लिखित और प्रायोगिक पूरी हो जाती हैं, तभी डीजीसीए लाईसेंस जारी करता है। सारे पेपर्स और रिकौर्ड्स चैक करने के बाद ही यह किया जाता है।  इतना सब होने के बाद किसी भी एयर लाईन को पाइॅलट नियुक्त करने के लिए अलग से लिखित परीक्षा/साक्षात्कार/सिम चैक लेने की क्या आवश्यक्ता है? एक व्यक्ति को लाईसेंस तभी मिलता है, जब वह डीजीसीए की हर कसौटी पर खड़ा उतरता है। नियुक्ति के बाद भी हर एयर लाईन्स अपनी जरूरत और नियमों के अनुसार हर पाईलेट को कड़ी ट्रैनिंग करवाती है। एक बार ‘सिम टैस्ट’ देने में ही पाइलेट को 25 हजार रूपये उस एयर लाईन्स को देने पड़ते है। आना-जाना और अन्य खर्चे अलग। इतना सब होने के बाद भी नौकरी की गांरटी नहीं । किसी भी आम पाइॅलट के लिए ये सब खर्च अनावश्यक भार ही तो है।

जरूरत इस बात की है कि डीजीसीए में व्याप्त भ्रष्टाचार पर लगाम कसी जाये। भाई-भतीजावाद को रोका जाए। डीजीसीए आवेदनकर्ता पाइॅलटों की आनलाईन एक वरिष्ठता सूची तैयार करे। जिसमें हर पाइॅलट को उसके लाईलेंस जारी करने की तारीख और रेंटिंग की तारीख के अनुसार रखा जाए। इसके बाद हर एयर लाईस अपनी जरूरत के अनुसार उसमें से सीनियर्टी के अनुसार प्रत्याशी ले ले और अपनी जरूरत के अनुसार उनको और आगे की ट्रेनिंग दे।

Monday, August 28, 2017

कब मोह भंग होगा हमारा छद्म गुरूओं से

एक ओर आत्मघोषित गुरू का भांडाफोड़ हुआ। कल तक ऐश्वर्य की गोद में रंग-रंगेलिया मनाने वाला ‘भक्तों का भगवान’ अब बाकी की जिंदगी, आसाराम और रामलाल की तरह जेल की सलाखों के पीछे काटेगा। सच्चे भक्तों की पीड़ा, मैं समझ सकता हूँ, क्योंकि मैंने कुछ ऐसा मंजर बहुत करीब से देखा है और उसके खिलाफ देशभर में, आवाज भी बुलंद की थी। जब मुझे पता चला कि अपनी पूजा करवाने गुरूओं का इतिहास व व्यभिचार और दुराचरण से भरा हुआ है।  सन्यास का वेश धारणकर, शिष्यों के पुत्र-पुत्रियों और पत्नियों से नाजायाज संबंध बनाने वाले, ये तथाकथित सन्यासी, अब गृहस्थ जीवन जी रहे हैं। उनमें से एक, पूर्व सन्यासी रहे, व्यक्ति से मैंने पूछा कि क्यों तो तुमने सन्यास लिया और क्यों तुम्हारा पतन हो गया? उसने सीधा उत्तर दिया कि अपने गुरू भाईयों का ऐश्वर्य और उनके सैकड़ों-हजारों चेलों की उनके प्रति अंधभक्ति देख, मेरी भी इच्छा गुरू बनने की हुई और मैंने सन्यास ले लिया। दिनभर तो मैं किसी तरह, अपने पर नियन्त्रण रख लेता, पर रात नहीं कटती थी। रात को कामवासना इतनी प्रबल हो जाती थी कि मुझसे नहीं रहा गया। उसने तो अपना गुनाह कबूल कर लिया। पर शेर की खाल में आज भी हजारों भेड़िये, देशभर में आध्यात्मिक गुरू बने बैठे हैं। जो भोली जनता की भावुकता का नाजायज लाभ उठाकर, उसे हर तरह से लूटते हैं। तन-मन-धन गुरू पर न्यौछावर कर देने वाले भक्तों को, जब पता चलता है कि जिसे गुरू रूपी भगवान माना, वो लंपट धूर्त निकला, तो  वे अपना मानसिक संतुलन खो देते हैं। वे या तो धर्म विमुख हो जाते हैं या अपना मानसिक संतुलन खो देते हैं। सिरसा में जो हुआ, उसके पीछे भक्तों की स्वभाविक प्रतिक्रिया कम और बाबा के पाले हुए बदमाशों की हिंसक रणनीति ज्यादा थी।

दरअसल छद्म भेष धरकर इन आत्मघोषित गुरूओं ने धर्म की परिभाषा बदल दी है। कलियुग के इन गुरूओं ने, उस दोहे का भरपूर दुरूपयोग किया है, जिसमें कहा गया, ‘‘गुरू गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पांय। बलिहारी गुरू आपने, जिन गोविंद दियो बताय।’’ ध्यान देने वाली बात ये है कि यहां उस गुरू को भगवान से ज्यादा महत्व देने की बात कही गई है, जो हमें भगवान से मिलाता है। पर आत्मघोषित गुरू तो खुद को ही भगवान बना बैठे हैं। मजे की बात यह है कि जब कभी भगवान धरती पर अवतरित हुए, तो उन्होंने मानव सुलभ लीलाऐं की, किंतु खुद को भगवान नहीं बताया। आज के धनपिपासु, बलात्कारी, हत्यारे और षड्यन्त्रकारी आत्मघोषित गुरू तो बाकायदा खुद को भगवान बताकर, अपना प्रचार करवाते हैं। इन्होंने तो गुरू शब्द की महिमा को ही लज्जित कर रखा है।

इसी कॉलम में जब-जब धर्म की हानि करने वाले ऐसे गुरूओं का पतन होता है, तब-तब मैं इन्हीं बिंदुओं को उठाता हूँ। इस आशा में कुछ पाठक तो ऐसे होंगे, जो इस गंभीर विषय पर सोचेंगे। दरअसल, धर्म का धंधा केवल भारत में चलता हो या केवल हिन्दू कथावाचक या महंत ही इसमें लिप्त हों यह सही नहीं है। तीन दिन तक मैं इटली के रोम नगर में ईसाईयों के सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र वेटिकन सिटी में पोप और आर्क बिशपों के आलीशान महल और वैभव के भंडार देखता रहा। एक क्षण को भी न तो आध्यात्मिक स्फूर्ति हुई और न ही कहीं भगवान के पुत्र माने जाने वाले यीशू मसीह के जीवन और आचरण से कोई संबध दिखाई दिया। कहां तो विरक्ति का जीवन जीने वाले यीशू मसीह और कहां उनके नाम पर असीम ऐश्वर्य में जीने वाले ईसाई धर्म गुरू? पैगम्बर साहब हों या गुरू नानक देव, गौतम बुद्ध हो या महावीर स्वामी, गइया चराने वाले ब्रज के गोपाल कृष्ण हो या वनवास झेलने वाले भगवान राम, कैलाश पर्वत पर समाधिस्थ भोले शंकर हो या कुशा के आसन पर भजन करने वाले हनुमान जी सबका जीवन अत्यन्त सादगी और वैराग्य पूर्ण रहा है। पर धर्म के नाम पर धंधा करने वालों ने उनके आदर्शों को ग्रन्थों तक सीमित कर साम्राज्य खड़े कर लिए हैं। कोई धर्म इस रोग से अछूता नहीं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हर धर्म क्रमशः भौतिकता की ओर पतनशील हो जाता है।

संत वो है जिसके पास बैठने से हम जैसे गृहस्थ विषयी भोगियों की वासनाएं शान्त हो जाए, भौतिकता से विरक्ति होने लगे और प्रभु के श्री चरणों में अनुराग बढ़ने लगे। पर आज स्वंय को ‘संत‘ कहलाने वाले क्या इस मापदंड पर खरे उतरते हैं ? जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता ? इनमें से किसी ने अपने नाम के पहले जगतगुरू, महामंडलेश्वर, परमपूज्य, अवतारी पुरूष, श्री श्री 1008 जैसी उपाधियां नहीं लगाईं। पर इनका स्मरण करते ही स्वतः भक्ति जागृत होने लगती है। ऐसे संतों की हर धर्म में आज भी कमी नहीं है। पर वे टीवी पर अपनी महानता का विज्ञापन चलवाकर या लाखों रूपया देकर अपने प्रवचनों का प्रसारण नहीं करवाते। क्योंकि वे तो वास्तव में प्रभु मिलन के प्रयास में जुटे हैं ? हम सब जानते हैं कि घी का मतलब होता है गाय या किसी अन्य पशु के दूध से निकली चिकनाई । अब अगर किसी कम्पनी को सौ फीसदी शुद्ध घी कहकर अपना माल बेचना पड़े तो साफ जाहिर है कि उसका दावा सच्चाई से कोसों दूर है। क्योंकि जो घी शुद्ध होगा उसकी सुगन्ध ही उसका परिचय दे देगी। सच्चे संत तो भौतिकता से दूर रहकर सच्चे जिज्ञासुओं को आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग बताते हैं। उन्हें तो हम जानते तक नहीं क्योंकि वे चाहते ही नहीं कि कोई उन्हें जाने। पर जो रोजाना टीवी, अखबारों और होर्डिगों पर पेप्सी कोला की तरह विज्ञापन करके अपने को संत, महामंडलेश्वर, जगद्गुरू या राधे मां कहलवाते हैं उनकी सच्चाई उनके साथ रहने से एक दिन में सामने आ जाती है। बशर्ते देखने वाले के पास आंख हों।

जैसे-जैसे आत्मघोषित धर्माचार्यो पर भौतिकता हावी होती जाती है, वैसे-वैसे उन्हें स्वंय पर विश्वास नहीं रहता इसलिए वे भांति-भांति के प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर अपने नाम का श्रंगार करते हैं। नाम का ही नहीं तन का भी श्रंगार करते हैं। पोप के जरीदार गाउन हो या रत्न जटित तामझाम, भागवताचार्यो के राजसी वस्त्र और अलंकरण हों या उनके व्यास आसन की साज सज्जा, क्या इसका यीशू मसीह के सादा लिबास या शुकदेव जी के विरक्त स्वरूप से कोई सम्बन्ध है ? अगर नहीं तो ये लोग न तो अपने इष्ट के प्रति सच्चे हैं और न ही उस आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति जिसे बांटने का ये दावा करते हैं ? हमने सच्चे संतों के श्रीमुख से सुना है कि जितने लोग आज हर धर्म के नाम पर विश्वभर में अपना साम्राज्य चला रहे हैं, अगर उनमें दस फीसदी भी ईमानदारी होती तो आज विश्व इतने संकट में न होता।

गुरमीत राम रहीम सिंह का कोई अपवाद नहीं है। वो भी उसी भौतिक चमक दमक के पीछे भागने वाला शब्दों का जादूगर है, जो शरणागत की भावनाओं का दोहन कर दिन दूनी और रात चैगुनी सम्पत्ति बढ़ाने की दौड़ में लगा रहा है। जिसके जिस्म पर लदे करोड़ों रूपए के आभूषण, फिल्मी हीरो की तरह चाल-ढाल, भड़काऊ पाश्चात्य वेशभूषा और शास्त्र विरूद्ध आचरण देखने के बाद भी उसके अनुयायी क्यों हकीकत नहीं जान पाते? जब-जब आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों का संबध ऐश्वर्य से जुड़ा है तब-तब उस धर्म का पतन हुआ है। इतिहास इसका साक्षी है। यह तो उस जनता को समझना है जो अपने जीवन के छोटे-छोटे कष्टों के निवारण की आशा में मृग-मरीचिका की तरह रेगिस्तान में दौड़ती है, कि कहीं जल मिल जाए और प्यास बुझ जाए। पर उसे निराशा ही हाथ लगती है। पुरानी कहावत है ‘पानी पीजे छान के, गुरू कीजे जान के‘।